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जिस वजह से जियो-मीट की आलोचना हो रही है, वह उसकी कारोबारी रणनीति भी हो सकती है!
10-Jul-2020 7:10 PM
जिस वजह से जियो-मीट की आलोचना हो रही है, वह उसकी कारोबारी रणनीति भी हो सकती है!

अभिषेक सिंह राव

जुलाई के पहले हफ्ते में रिलायंस जियो ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मार्केट में कदम रखते हुए जियो-मीट को लांॅच किया है। वैसे तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लिकेशन्स के क्षेत्र में ज़ूम, गूगल हैंगऑउट, गूगल मीट, गोटू मीटिंग, स्काइप, माइक्रोसॉफ्ट टीम, इत्यादि का बोलबाला पहले से है लेकिन इन तमाम? प्लिकेशन्स में करीब नौ साल पुरानी कंपनी ज़ूम सबसे अव्वल है। 2011 में चाइनीज मूल के एरिक युआन ने 40 इंजीनियर्स के साथ मिलकर ‘सासबी’ नामक एक कंपनी की शुरुआत की थी। फिर दूसरे साल ही इसका नाम बदलकर ‘ज़ूम’ रख दिया गया। साल दर साल ज़ूम ने बाज़ार से फंडिंग उठाते हुए अपने प्रोडक्ट पर काम किया और धीरे-धीरे जब वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का मार्केट परिपक्व होने लगा तो ज़ूम ने अपना लोहा मनवाना शुरू किया।

अप्रैल 2019 में ज़ूम ने अमेरिका में अपना आईपीओ लांॅच किया। आज जूम 2500 कर्मचारियों से लैस दुनिया की नामचीन सॉफ्टवेयर कंपनियों में से एक है। ग्लासडोर के एक सर्वे के मुताबिक कर्मचारियों के लिए ज़ूम 2019 की दूसरे पायदान की ‘बेस्ट प्लेसेस टू वर्क’ कंपनी थी।

कोरोना-काल और ज़ूम की लोकप्रियता

कोरोना संकट के समय में सोशल डिस्टेन्सिंग के चलते ज़ूम की लोकप्रियता में चार चांद लगने शुरू हो गए। बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में 18 मार्च के दिन तमाम बिजनेस ऐप्स के बीच आईफोन के दैनिक डाउनलोड में ज़ूम पहले स्थान पर रहा। दफ्तरों एवं शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के कारण कितनी ही समस्याओं से जूझ रहे भारतीयों को भी यह ऐप एक बेहतर उपाय की तरह दिखने लगा। योरस्टोरी की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 29 मार्च के दिन व्हाट्सएप, टिकटॉक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे दिग्गज? प्लिकेशन्स को पछाड़ते हुए ज़ूम ने नंबर एक का स्थान हासिल किया था।

सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन चूंकि ज़ूम के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा चीन में स्थित है, इस वजह से ज़ूम के बढ़ते उपयोग ने सर्विलांस और सेंसरशिप की चिंताओं को जन्म देना शुरू किया। अप्रैल की शुरुआत में भारत सरकार ने एक एडवाइजरी जारी कर कहा था कि ‘ज़ूम का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं है।’ इसमें सरकार ने जोर देते हुए कहा कि ‘सरकारी अधिकारी या अफसर आधिकारिक काम के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल न करें।’ भारत के अलावा अन्य देश भी इसे आशंका से देख रहे हैं। विश्व पटल पर इस विवाद की गहराइयों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मई महीने की शुरुआत में ज़ूम के सीईओ एरिक युआन को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि ‘ज़ूम चाइनीज़ नहीं, अमेरिकन कंपनी है।’

ज़ूम के मुकाबले जियो-मीट की लॉन्चिंग

विश्वव्यापी और खासकर भारत में मौजूदा चीन विरोधी माहौल के बीच, पिछले दिनों देश में ज़ूम के मुकाबले की एक ‘मेड इन इंडिया’ एप्लीकेशन की मांग ने जन्म लिया। यह कहा जा सकता है कि जियो ने सही समय पर इस मांग को समझते हुए अपना एप लॉन्च किया है। जियो ने महज़ दो-तीन महीने के भीतर ज़ूम के फ़ीचर्स को आधार बनाते हुए खुद की एप्लीकेशन लॉन्च कर दी। एप लॉन्च करने के पहले की परिस्थितियों का अंदाजा लगाएं तो जियो के इंजीनियर्स घर से काम कर रहे होंगे, इसके चलते कम्युनिकेशन-गैप एवं इंटरनेट की भी समस्याएं रही होंगी लेकिन इसके बावजूद जियो, बेहद कम वक्त में यह प्रोडक्ट तैयार करने में सफल हुआ है। राष्ट्रवाद की सवारी एवं ज़ूम से मिलते-जुलते इंटरफेस के कारण सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर जियो-मीट चर्चा में रहा। इसके लिए कुछ लोग जहां इसकी आलोचना करते दिखाई दिए वहीं कइयों ने इसे मिसाल की तरह पेश किया है।

ऐसे तो इंटरफेस शब्द के मायने बहुत हैं लेकिन आईटी की भाषा में ‘यूजर इंटरफेस’ अर्थात एक तरह का डिज़ाइन जिसकी मदद से हम किसी भी एप्लीकेशन के फीचर्स का उपयोग करते हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि ज़ूम और जियो-मीट का इंटरफ़ेस एक जैसा है! लेकिन जियो की बिजनेस स्ट्रेटेजी पर गौर करें तो जिस ‘कॉपी-इंटरफेस’ का विरोध हो रहा है शायद यही उसकी स्ट्रेटेजी का मुख्य हिस्सा हो सकता है।

किसी भी एप्लीकेशन को मार्केट की डिमांड पूरा करने के लिए बनाया जाता है। इसी डिमांड को पकड़ते हुए कम्पनियां अपने अल्टीमेट गोल रेवेन्यू जेनरेशन का रास्ता बनाती हैं। जैसे चीन के सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोबिन ली ने गूगल जैसे चाइनीज़ सर्च इंजन की डिमांड को पूरा करने के लिए ‘बायदु’ सर्च इंजन बनाया। अमरीका में एमेजॉन के बोल-बाले के बाद भारत में बंसल जोड़ी ने फ्लिपकार्ट खड़ा किया। वहीं, कई बार कंपनियां कुछ नए आइडियाज के ज़रिये नया मार्केट खड़ा करने में भी कामयाब होती हैं। जैसे गूगल ने सर्च इंजन का मार्केट खड़ा किया, यूट्यूब ने वीडियो का, फेसबुक ने सोशल मीडिया का, ऊबर ने टैक्सी सर्विस का, ज़ोमाटो ने फ़ूड डिलीवरी का, अमेजन ने ऑनलाइन शॉपिंग का। एप्लीकेशन डेवलपमेंट का विचार इन दोनों पहलुओं के बीच की ही बात है। या तो आप नए इनोवेटिव आईडिया के ज़रिये नया मार्केट खड़ा कीजिये या फिर जो मार्केट बना हुआ है, उसी की डिमांड्स को समझिए।

जियो ने क्या किया?

जियो की केस-स्टडी की जाए तो समझ में आता है कि इस कंपनी ने फोर-जी सर्विस लॉन्च करते वक्त भी सबसे पहले टेलीकम्यूनिकेशन के मार्केट की डिमांड को समझा और उस समय वे जो सबसे बढिय़ा दे सकते थे उसी को आधार बनाते हुए, आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाई। हालांकि उस समय जियो की फोर-जी सर्विस भारत के लिए ही नई थी, विकसित देशों में यह पुरानी बात हो चुकी थी। ऐसे में जियो भारत में एक नया मार्केट खड़ा करने में कामयाब रहा जिसका आगे चलकर दूसरी भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनियों ने भी अनुसरण किया। नतीजा यह है कि आज बेहतर प्लानिंग, अनूठी सर्विस और मार्केटिंग के चलते महज़ चार साल में यह कंपनी टेलीकम्यूनिकेशन मार्केट के शीर्ष पर है।

जियो-मीट के विवाद के बीच आईटी क्षेत्र की कार्यप्रणाली को समझे बगैर हम इसकी तह तक नहीं पहुंच सकते हैं। वर्तमान की आईटी कार्यप्रणालियों में मार्केट की डिमांड समझते हुए एक साफ-सुथरे स्थायी प्रोडक्ट को बाज़ार में उतारना पहला चरण है। कंपनियों को पता होता है कि उनके पहले वजऱ्न में सुधार की गुंजाइशे हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि सौ फीसदी परफेक्ट प्रोडक्ट एक असंभव सी बात है और इसको पूरा करने के चक्कर में या तो मार्केट की डिमांड बदल जाएगी या फिर कोई और इस मार्केट को हथिया लेगा। इसलिए वे अपने प्रोडक्ट्स को ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च करती हैं। इसका मतलब होता है कि यह प्रोडक्ट अभी पूरी तरह से रिलीज़ नहीं हुआ है, कंपनी ने इसको मुख्यत: टेस्टिंग के उद्देश्य के मार्केट में उतारा गया है। चूंकि किसी एक प्रोडक्ट में सुधार हमेशा चलते रहने वाली प्रक्रिया है इसलिए ‘बीटा वजऱ्न’ के ज़रिये कंपनियां सही समय पर मार्केट में अपनी जगह बनाने में कामयाब होती हैं। इस दौरान उपयोगकर्ताओं की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए ऑफिशियल रिलीज़ में महत्वपूर्ण सुधारों को अंजाम दिया जाता है।

जियो-मीट का इंटरफ़ेस कॉपी-केस या यूएसपी?

आईपी कंपनियों में एक और शब्द प्रचलित है ‘यूएसपी’ इसका मतलब है ‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’। यानी कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स को लेकर जब बाज़ार में उतरती हैं तो उस प्रोडक्ट की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो एक तो उस प्रोडक्ट के बनने का कारण होती हैं, दूसरा बिक्री के दृष्टिकोण से उन विशेषताओं की ख़ास अहमियत होती है। कंपनियां प्रचार के वक्त इन्ही विशेषताओं को आगे रख कर अपनी ऑडियंस को आकर्षित करती है। जियो मीट के मामले में ज़ूम से मिलता-जुलता इंटरफेस इसकी यूएसपी साबित हो सकता है।

अगर जियो के ज़ूम से मिलते-झूलते इंटरफ़ेस के विषय पर ज़ूम के ही ऑफिशियल स्टेटमेंट पर गौर किया जाए तो उन्होंने जियो-मीट के कम्पटीशन का स्वागत किया है। जियो-मीट के लॉन्च के बाद जिस तरह से इसे ट्रोल किया गया मानो ज़ूम को तुरंत ही जियो पर लीगल कार्यवाही करनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि आईटी क्षेत्र में एक जैसे इंटरफ़ेस का होना बहुत आम सी बात है। वहीं, रिलायंस जियो के पिछले रिकॉर्ड को देखें तो पता चलता है कि यह कंपनी मार्केट रिसर्च के वक्त जो सबसे बेस्ट है, उसको आधार बनाते हुए बाज़ार की मांग को पूरा करने के विषय में सोचती है।

जियो-मीट का इंटरफ़ेस एकदम ज़ूम की तरह रखने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत के जो उपयोगकर्ता पहले से ज़ूम का उपयोग कर रहे हैं या कर चुके हैं, उन्हें जियो-मीट पर माइग्रेट होते वक्त एक नए इंटरफ़ेस के कारण कोई परेशानी न हो। सीधा गणित है यानी लोग ज़ूम ऐप को उपयोग करना जानते हैं, ऐसे में अगर एक पूरा नया इंटरफेस आता है तो लोगों को उसकी आदत लगने में वक्त लग सकता है ऐसे में इसके कुछ यूजर दूर जा सकते हैं। जियो-मीट की लॉन्चिंग के समय पर ध्यान दें तो कंपनी इस वक्त या ग्राहकों को गंवाने का रिस्क नहीं लेना चाहेगी।

कहा जा सकता है कि जियो ने इंटरफ़ेस के ज़रिये मुख्यत: इस बात का ख्याल रखा है कि लोग आसानी से ज़ूम से जियो-मीट पर माइग्रेट हो जाएं और उन्हें उसका उपयोग करने में कोई तकलीफ़ न हो। फि़लहाल जियो-मीट ‘बीटा वजऱ्न’ के तौर पर लॉन्च हुआ है, मतलब इस वक्त स्वदेशी की छतरी तले ज़ूम के यूज़र्स को अपने यहां माइग्रेट करवा लेने के बाद, हो सकता है कि आने वाले कुछ समय में इसका यूजर इंटरफेस भी बदल दिया जाए।

मौजूदा आईटी कार्यप्रणालियों में एक स्टेबल प्रोडक्ट के साथ सही समय पर मार्केट में आना ज़रूरी है, भले ही उसमे कुछ सुधारों की गुंजाइशें साफ़ दिख रही हो। जियो को जल्द से जल्द मार्केट में कूदने की जल्दबाज़ी थी और उसके इंजीनियर्स को एक सख़्त डेडलाइन मिली होगी। ऐसे में वे अगर नया इंटरफ़ेस बनाने बैठते तो फिर ज़ीरो से सब शुरू करना होता। उस हालत में यह काम 2-3 महीनों में पूरा हो पाना संभव ही नहीं था। (सत्याग्रह)

 

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