संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तूफानी लहरों से जूझने की जरूरत, कांग्रेस लीडरशिप किनारे बैठ लहरें गिन रही...
13-Jul-2020 6:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तूफानी लहरों से जूझने की  जरूरत, कांग्रेस लीडरशिप  किनारे बैठ लहरें गिन रही...

राजस्थान में इस वक्त मुख्यमंत्री निवास में कांग्रेस विधायकों की बैठक चल रही है, और खबर के मुताबिक कई विधायकों को साथ लिए हुए उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट उसमें गैरहाजिर है। उन्होंने कल से ही यह साफ कर दिया है कि वे इस बैठक में नहीं जाएँगे। वहां कांग्रेस पार्टी की सरकार के भीतर चल रहा सत्ता संघर्ष अब पूरी ऊंचाई पर है, और आज वहां आर-पार की लड़ाई दिख रही है। कांग्रेस पार्टी के भी तेवर ऐसे दिख रहे हैं कि अगर पायलट विधायक दल की बैठक में न आए तो गैरमौजूद विधायकों के साथ-साथ उन्हें भी पार्टी से अलग किया जा सकता है। किसी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इससे अधिक नुकसान की कोई बात नहीं हो सकती कि उसके दर्जनों विधायक उससे अलग होने की कगार पर खड़े हों। अभी-अभी मध्यप्रदेश में कुछ ही महीने पहले कांग्रेस से 22 विधायक अलग हुए, पार्टी छोड़ी, और अब भाजपा सरकार के मंत्री बनकर उपचुनाव की कगार पर खड़े हैं। 

राजस्थान को देखें तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बारे में तो बाद में सोचने की जरूरत पड़ती है, पहले तो जरूरत रहती है कांग्रेस हाईकमान के बारे में सोचने की जिसने डेढ़ साल से राजस्थान में चल रहे खुले भीतरी संघर्ष को भी सुलझाया नहीं। राजस्थान में भाजपा सरकार के बाद किसी तरह कांग्रेस की सरकार आई थी, और एक पूरी पीढ़ी के फासले वाले गहलोत और पायलट के बीच मुख्यमंत्री पद की दावेदारी खुलकर सामने रही, और जैसा कि हर जगह होता है, उपमुख्यमंत्री का पद एक समझौता होता है, और हमेशा ही चुनौती भी होता है, तो राजस्थान में वही हुआ। 

आज कांग्रेस पार्टी के बारे में सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि गिने-चुने राज्य जब पास बचे हैं, तब मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ-दिग्विजय का टकराव काबू नहीं किया गया, राजस्थान में गहलोत और पायलट का टकराव काबू नहीं किया गया। और तो और काबू करने की कोशिश भी नहीं दिखी। जैसा कि मीडिया का एक बड़ा तबका और राजनीतिक लोग बताते हैं, कांग्रेस हाईकमान पार्टी के नेताओं की पहुंच से परे हो गया है। अब आज तो सोनिया परिवार के तीनों लोग पार्टी की राजनीति में सक्रिय हैं। तीनों दिल्ली में रहते हैं, और अलग-अलग वक्त पर कुछ-कुछ लोग शायद उनसे मिल भी पाते हैं। जो पार्टी आज न केन्द्र में सत्ता में रह गई, न ही अधिक राज्य जिसके पास बचे, उस पार्टी में अगर लीडरशिप अपने राज्यों के सबसे बड़े नेताओं के साथ मिलने का समय नहीं निकाल पाती, या उनके विवाद नहीं सुलझा पाती, तो यह उस पार्टी पर मंडराते खतरे का सुबूत है। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ी, तो उसके बाद राहुल गांधी का यह ट्वीट सामने आया था कि उनके लिए तो राहुल के घर के दरवाजे हमेशा ही खुले थे, और वे किसी भी वक्त आ-जा सकते थे। हो सकता है यह बात सच हो, लेकिन यह बात भी सच है कि राहुल तक ऐसी पहुंच के बाद भी ज्योतिरादित्य ने पार्टी छोड़ी। हो सकता है कि उन्हें कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के बीच मध्यप्रदेश में अपना भविष्य अच्छा न दिख रहा हो, और भाजपा में वे अपनी बेहतर संभावनाएं देख रहे हों, लेकिन महीनों से चली आ रही इन खबरों पर कांग्रेस लीडरशिप ने क्या किया, कम से कम यह जनता के बीच तो सामने नहीं आया। इसी तरह राजस्थान का यह घरेलू मनमुटाव आज सरकार को ले डूबने तक पहुंच गया है, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने इन डेढ़ बरसों में इसे सुलझाने के लिए कुछ किया था यह कम से कम लोगों के सामने नहीं आया।
 
भारत जैसे तूफानी-चुनावी लोकतंत्र में देश की सबसे पुरानी पार्टी, एक वक्त की सबसे बड़ी पार्टी, और आज की भी एक बड़ी पार्टी की लीडरशिप से लोकतंत्र में कुछ उम्मीदें की जाती हैं। भारत सरीखी राजनीति किनारे बैठकर लहरों को देखते हुए वक्त गुजारने जैसी चीज नहीं है। वह तो तूफानी लहरों में उतरकर उनसे टकराने का काम है, जो कि आज कांग्रेस में कोई करते दिख नहीं रहे हैं। इससे कांग्रेस का जो नुकसान होना है, वह एक के बाद दूसरे राज्य में होते चल रहा है, लेकिन पार्टी के साथ-साथ लोकतंत्र का बड़ा नुकसान इस तरह हो रहा है कि केन्द्र का सबसे बड़ा विपक्षी गठबंधन भी इससे कमजोर हो रहा है क्योंकि उसके भीतर मुखिया-पार्टी अगर ऐसी कमजोर हो रही है, तो जाहिर है कि गठबंधन का मनोबल भी टूटता है। 

लोकसभा चुनाव में हार के बाद अध्यक्ष पद से अलग हुए राहुल गांधी की पार्टी के भीतर आज की भूमिका एक बड़ी पहेली है। वे अध्यक्ष के किए जाने वाले तमाम काम भी कर रहे हैं, लेकिन वे उस ओहदे पर नहीं है। सोनिया गांधी उस ओहदे पर हैं, लेकिन उन तक पार्टी के नेताओं की पहुंच नहीं सरीखी ही सुनाई पड़ती है। प्रियंका गांधी उत्तरप्रदेश तक सीमित हैं जहां अपने आपमें चुनौतियां बहुत ज्यादा हैं, और उनकी संभावनाओं से बहुत अधिक भी हैं। ऐसे में कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को यह समझ नहीं पड़ता है कि वे जाएं तो कहां जाएं, मिलें तो किससे मिलें। नतीजा यह है कि एक के बाद दूसरा प्रदेश तबाही झेल रहा है, लेकिन कांग्रेस हाईकमान समझा जाने वाला परिवार पार्टी की पहुंच से परे दिख रहा है।
 
हमें कांग्रेस पार्टी के अंदरुनी मामलों को लेकर अधिक फिक्र नहीं है। लेकिन देश में एक मजबूत विपक्ष के बिना लोकतंत्र कमजोर ही रहेगा, एक मजबूत पार्टी के बिना कोई गठबंधन के मुखिया नहीं बन सकते। ऐसे में कांग्रेस का छिन्न-भिन्न होना इस पार्टी से परे लोकतंत्र की कमजोरी भी पैदा कर रहा है। लेकिन हमारे लिए यह लिखना आसान है इस पार्टी के लिए इससे उबर पाना इतना आसान नहीं है। देखें आज-कल में राजस्थान का क्या होता है, और कांग्रेस की नींद कब टूटती है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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