संपादकीय
इन दिनों हत्या, आत्महत्या, और बलात्कार की खबरें कुछ महीने पहले के मुकाबले अधिक दिख रही हैं। अभी ऐसी तुलना करने के कोई आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन पहली नजर में ऐसा लगता है कि ऐसे अपराध, और आत्महत्या जैसे अब गैरअपराध करार दिए जा चुके मामले बढ़ रहे हैं। मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक भी यह बतला रहे हैं कि कोरोना और लॉकडाऊन, बीमारी की दहशत और बेरोजगारी-फटेहाली का मिलाजुला असर इसी किस्म से होने जा रहा है कि लोग तनाव और निराशा में ऐसे काम अधिक करेंगे।
एक अनदेखी-अनसुनी बीमारी की अंधाधुंध दहशत से लोग उबर नहीं पा रहे हैं। खासकर वे लोग जो कि कोरोना के खतरे को अधिक गंभीरता से ले रहे हैं, वे अधिक दहशत में हैं। जो लोग अधिक लापरवाह हैं, शायद उनकी दिमागी हालत बेहतर होगी, क्योंकि वे बेफिक्र हैं। लेकिन दुनिया पर से कोरोना का खतरा अभी घट नहीं रहा है, बल्कि बढ़ते चल रहा है। हिन्दुस्तान में हर दिन आज से पचास हजार या अधिक लोग कोरोनाग्रस्त मिल रहे हैं। किसी परिवार के एक व्यक्ति के कोरोनाग्रस्त होने से उस परिवार को जिस तरह घर में कैद रहना पड़ रहा है, जिस तनाव के बीच अस्पताल में अपने सदस्य को छोडऩा पड़ रहा है, जिस तरह अड़ोस-पड़ोस और समाज के लोगों की नजरों का सामना करना पड़ रहा है, उससे जाहिर है कि एक अभूतपूर्व और गंभीर तनाव सबके सामने है। किसी एक घर से किसी के कोरोनाग्रस्त होते ही आसपास के तमाम घरों का सुख-चैन, अगर अब तक थोड़ा सा बचा हुआ है तो, छिन जाता है। जो लोग इससे अब तक बेफिक्र हैं, उसमें भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनका काम-धंधा बंद हो चुका है, रोजी छिन चुकी है, कर्ज बढ़ते चल रहा है, और जैसा कि किसी ने अभी-अभी सोशल मीडिया पर लिखा है, लंबी अंधेरी सुरंग के आखिर में जो रौशनी दिख रही है, वह बैटरी तकरीबन खत्म हो चुके फोन की स्क्रीन की रौशनी है, जाने कब पूरी तरह चल बसे। ऐसे में लोग अंधाधुंध तनाव में हैं। कल की ही खबर है कि उत्तर भारत में एक गरीब किसान ने अपनी गाय बेच दी क्योंकि स्कूल में शिक्षकों ने उसे यह कहा था कि बच्चों की ऑनलाईन पढ़ाई अगर करवानी है, तो उनके लिए स्मार्टफोन लेना पड़ेगा, और ऐसा फोन लेने का अकेला जरिया उसके पास गाय बेचकर ही निकल पाया। अब अगर देश में हो रहीं बहुत सी दूसरी आत्महत्याओं में यह भी एक जुड़ जाए तो क्या हैरानी होगी? बेरोजगारी की वजह से, घर में खाने का जुगाड़ न होने की वजह से तनाव में लोग आसपास के लोगों पर हिंसा कर बैठें, या अपने पर हिंसा करें, उसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
आज पूरे देश में कोरोना से बचाव, कोरोना के इलाज, और लॉकडाऊन के असर से उबरने का संघर्ष ही चल रहा है। सरकारों से लेकर निजी लोग तक इसी में जुटे हुए हैं। ऐसे में लोगों की मानसिक स्थिति सरकार से लेकर घर-परिवार तक किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। आज कोई अपनी दिमागी परेशानी करीब के किसी के साथ बांटने की कोशिश भी करे, तो वे लोग खुद ही बेरोजगारी-फटेहाली में डूबे हुए हैं, कोरोना की दहशत में डूबे हुए हैं, और अधिकतर लोग इस बात पर हैरान होंगे कि जो आज जिंदा हैं, अस्पताल में नहीं हैं, खाना खा चुके हैं, उनके दिमाग में भी कोई परेशानी है!
ऐसे में तनाव जब बांटा नहीं जा सकता, तो वह बढ़ते-बढ़ते हिंसक या आत्मघाती हो रहा है। आने वाले महीनों में जब देश भर के आंकड़े सामने आएंगे, और पिछले बरस के इन्हीं महीनों से उनकी तुलना होगी, तो पता लगेगा कि हकीकत में हिंसा बढ़ी है या नहीं। लेकिन यह बात तो तय है कि पुलिस और नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से परे रहने वाली छोटी घरेलू हिंसा लगातार बढ़ रही है। दरअसल इंसानी मिजाज हजारों बरस की विकास यात्रा के बाद अब इस किस्म का रह नहीं गया है कि परिवार के तमाम लोग पूरे वक्त साथ रहें। इसके साथ-साथ इंसानी मिजाज ऐसा भी नहीं रह गया है कि लोग बाहर के अपने दोस्तों और दूसरे लोगों से मिले बिना रह सकें। बीमारी और फटेहाली का तनाव अलग है, और अचानक जिंदगी के तौर-तरीकों में आया यह बदलाव अलग है, इन दोनों का मिलाजुला असर लोगों पर बहुत बुरा हो रहा है। आज जब सरकार और समाज बीमारी और बेरोजगारी से ही जूझ रहे हैं, तो मनोवैज्ञानिक रास्ते निकालने और उन्हें समाज में प्रचलित करने की उम्मीद कुछ ज्यादती होगी। आज जरूरत यह है कि जिस तरह ऑनलाईन क्लास चल रही हैं, जिस तरह ऑनलाईन बैठकें चल रही हैं, उसी तरह ऑनलाईन मनोवैज्ञानिक परामर्श मुहैया कराया जाए ताकि लोग मानसिक अवसाद या मानसिक तनाव से बचे रह सकें। इसके लिए जानकार विशेषज्ञ और परामर्शदाता कुछ वीडियो बनाकर भी लोगों को भेज सकते हैं, इंटरनेट पर पोस्ट कर सकते हैं, और भडक़ाऊ वीडियो के बजाय लोगों को ऐसे वीडियो आगे बढ़ाने चाहिए। अभी इन सब तनावों के कई महीने और जारी रह सकते हैं, इसलिए सरकार न सही समाज से लोगों को रास्ते ढूंढने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)