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महिलाओं की आज़ादी पर पितृसत्ता का ‘सर्विलांस’
29-Jul-2020 10:41 AM
महिलाओं की आज़ादी पर पितृसत्ता का ‘सर्विलांस’

- गायत्री यादव 

‘एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए। शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए और पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए यानी किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।’ यह बात हिंदुओं के पवित्र ग्रन्थ माने जाने वाले ‘मनुस्मृति’ के पांचवे अध्याय के 148वें श्लोक में कही गई है। इस अध्याय में महिलाओं के कर्तव्य, उनकी पवित्रता और अपवित्रता के बारे में भी ‘निर्देश’ दिए गए हैं। हमारे पूरे सामाजिक इतिहास में उत्तर-वैदिक काल से ही धर्म एक ऐसा सामाजिक संस्थान रहा है जिसने मानवीय जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातें ही आज सामाजिक आचार संहिता के रूप में काम कर रही हैं। ये सामान्य समझी जाने वाली मान्यताएं भी औरतों की स्वतंत्रता के रास्ते में एक रुकावट की तरह काम करती हैं और हमारे परिवार सामाजिक संस्थान के रूप में महिलाओं के शोषण के ‘हथियार’ के रूप में काम करते हैं।

महिलाओं पर परिवार का सर्विलांस

परिवार एक ऐसी इकाई है जिसके निर्देशन के केंद्र में धार्मिक मान्यताएँ होती हैं। धार्मिक मान्यताओं का आधार धार्मिक ग्रंथों में लिखी गई बातें हैं। इस तरह धर्म और परिवार आपस में मिलकर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करते हैं जो महिलाओं के खिलाफ ‘सर्विलांस’ का काम करती है क्योंकि कई धार्मिक मान्यताओं का कहना है कि किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।

इस पूरे सर्विलांस सिस्टम की जड़ें मानवीय सभ्यता के इतिहास से जुड़ी हुई हैं। सभ्यता के शुरुआती दौर में जब आदिम साम्यवादी समाज अस्तित्व में थी तो हर व्यक्ति भोजन के लिए खुद शिकार करता और अपना भरण-पोषण करता था। मगर जैसे-जैसे सामाजिक परिवर्तन हुआ उसके साथ ही संसाधनों का बंटवारा भी हुआ और श्रम विभाजन यानी ‘डिवीज़न ऑफ़’ लेबर अस्तित्व में आया। इसी के तहत महिलाओं को घर के अंदर कैद कर दिया गया।

सामंतवादी दौर आते-आते महिलाओं को घर की इज्ज़त का प्रतीक बना दिया गया और यह धारणा बनाई गई कि महिलाओं का घर से बाहर निकलना पूरे परिवार की इज्ज़त के लिए खतरा है। इसी धारणा के तहत महिलाओं को बाहरी दुनिया से काट दिया गया और पारिवारिक अस्मिता को सर्वोपरि रखते हुए, इसकी खातिर जान न्योछावर कर देने को भी न्यायसंगत बनाया गया। इतिहास में चर्चित ‘जौहर प्रथा’ इसी का एक परिणाम है।

फ़्रांस में ज्ञानोदय और औद्योगिक क्रांति के बाद कुछ सामाजिक परिवर्तन तो हुए मगर सामंती धारणा पूरी तरह खत्म नहीं हुई और इसके परिणामस्वरूप परिवार आज भी एक पितृसत्तात्मक संस्थान बना हुआ है। परिवार के अन्दर पुरुष की बेटी,बहन,पत्नी और मां आदि के रूप में महिलाओं को पुरुष के अधीन रहना सिखाया गया, जो महिलाओं की स्वायत्त पहचान पर एक हमला है। इस संस्कृति जिसके मूल में पितृसत्ता है, का अनुसरण करते हुए परिवार यह भी तय करने लगा कि घर की औरतें क्या पहनकर, किसके साथ और कितने बजे से कितने बजे तक घर से बाहर रहेंगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि चूंकि यह नियम परिवार के मुखिया द्वारा तय किए जाते हैं इसलिए एक तरीके से एक पुरुष ही संस्थान के रूप में महिलाओं की देह को हर तरीके से नियंत्रित कर रहा है।

कामकाजी महिलाओं के खिलाफ पितृसत्ता का नैरेटिव

पितृसत्ता को सही ठहराने और महिलाओं की देह को नियंत्रित करने का काम बॉलीवुड की फ़िल्मों ने भी बखूबी किया है। ‘लस्ट स्टोरी’ का वह भाग याद करिए जिसमें भूमि पेडनेकर को घर के काम करने वाली बाई के रूप में दिखाया गया है। इस भाग में वह घर के मालिक के साथ सेक्स करते हुए दिखाई गईं हैं। हालांकि यह फिल्म महिलाओं की यौन इच्छाओं यानि सेक्शुअल डिज़ायर पर आधारित थी मगर हमें इस भाग को एक अलग सन्दर्भ में भी देखना होगा। महिलाओं की सेक्सुअलिटी को हमेशा से पुरुष ही नियंत्रित करते आये हैं। इसलिए पहले उन्होंने इससे संबंधित पैमाने भी बनाए और इन पैमानों में यह बात स्पष्ट थी कि वह महिला, जो अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाती है, वह चरित्रहीन है।

एक महिला का चरित्र हनन करना पितृसत्ता के मूल स्वाभाव में रहा है। इसी स्वाभाव की अभिव्यक्ति के रूप में फ़िल्मों के ऐसे सीन के ज़रिये एक धारणा बनाने की कोशिश की गई कि घर में काम करने वाली बाई के उस घर के पुरुष से नाजायज़ संबंध होते हैं। चूंकि वो बाई दरअसल कामकाजी औरत का प्रतीक है इसलिए एक प्रतीक के रूप में यह सम्पूर्ण कामकाजी औरतों के नीचा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया तंत्र है। साथ ही यदि इन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर नज़र डाली जाए तो समझ आएगा कि कैसे यह नैरेटिव न सिर्फ महिलाओं बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के भी खिलाफ है।  

औद्योगीकरण के बाद महिलाओं का घर से बाहर निकल कर काम करना और खुद के दम पर परिवार का जीवन यापन करना पितृसत्ता पर एक आघात था। यह एक पुरुष की आन के खिलाफ़ था कि वह पत्नी का कमाया हुआ खाए। इसलिए महिलाओं, खासकर शादीशुदा महिलाओं के घर से बाहर निकलकर काम करने के खिलाफ़ नैरेटिव बनाए गढ़े गए। हमारे घर-परिवार में ठिठोली करते हुए ननद द्वारा अक्सर भाभी को यह कहा जाता है कि “भाभी भईया पर नज़र रखना कहीं उनका बाई से चक्कर न चलने लगे।” ठिठोली में कही गई यह बात दरअसल उसी धारणा का प्रतिबिम्ब है कि दूसरे के घरों में काम करने वाली महिलाओं के अपने मालिक से नाजायज़ संबंध होते हैं। असल में यह नैरेटिव  पितृसत्ता द्वारा गढ़ा जाता है जिसके तहत महिलाओं को पूंजी से दूर रखने के पूरे प्रयास किए जाते हैं। चूंकि पूंजी ताकत का पर्याय है इसलिए महिलाओं को पूंजी से दूर किया जाना पितृसत्ता के वजूद के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि ‘अकबरनामा’ का यह कथन कि ‘अच्छे घरों की महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकलतीं’, आज भी पारिवारिक मान्यता का हिस्सा बना हुआ है।   

शिक्षण संस्थानों का पितृसत्तात्मक चरित्र

हमारे आस-पास घर से बाहर निकल कर पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या अब भी पुरुषों के मुकाबले बेहद कम है। जो बाहर निकल भी रही हैं उनके परिवार की तरफ से सुरक्षित रहने की शर्त चस्पा कर दी गई है। यह शर्त अकेली नहीं है इसके साथ कुछ निर्देश शामिल हैं, जैसे इतने बजे से उतने बजे तक बाहर रहना है, लड़कों से दूर रहना है, किसी ‘चक्कर’ में नहीं पड़ना है, छोटे कपड़े नहीं पहनने हैं, किसी भी तरह के प्रदर्शन वगैरह में शामिल नहीं होना है आदि।

अभिभावकों के लिए अपनी लड़की की सुरक्षा के लिए सबसे मुफ़ीद जगह कॉलेज-यूनिवर्सिटी के हॉस्टल या फिर सख़्त नियमों वाले प्राइवेट पीजी हैं। खास बात यह है कि ‘घर से बाहर एक घर’ जैसे दावों के साथ स्थापित प्राइवेट पीजी केवल सुविधा के आधार पर ही यह दावा नहीं करते बल्कि ये उन्हीं पाबंदियों का पालन करते हैं जो घर में प्रचलित हैं। यही हाल यूनिवर्सिटी के हॉस्टल का भी है जहां अमूमन 8 से 9 बजे रात का सख्त कर्फ्यू यह सुनिश्चित करता है कि लड़की ज्यादा देर तक बाहर न रहे।

दरअसल जिस तरह के अपराधों का शिकार होने से तथाकथित रूप से बचाने के लिए यह सख़्त नियम बनाए गए हैं उनमें अपराध करने वाले पुरुष होते हैं मगर ताज्जुब की बात यह है कि लड़कियों के हॉस्टल के विपरीत लड़कों के हॉस्टल में अमूमन कोई भी कर्फ्यू टाइमिंग नहीं होती। इस तरह सुरक्षा के नाम पर लड़कियों को कैद करने की जो पितृसत्तात्मक नियम हमारा परिवार बनाता है। आधुनिक शिक्षा देने का दावा करने वाले यह शैक्षणिक संस्थान इस तरह के नियमों के ज़रिए उसे आधिकारिक मान्यता प्रदान कर देते हैं।           

हमारे आस-पास जितनी मान्यताएं प्रचलित हैं उनमें से ज़्यादातर की शुरुआत हमारे परिवार से होती है। यह और बात है कि ये मान्यताएं हमारे परिवार में अचानक पैदा नहीं होती, इसके अपने सामाजिक कारण हैं। मगर इनके मूल में वही सामंतवादी सोच निहित होती है जिसका निर्माण इस लेख की शुरुआत में दिए गए श्लोक पर आधारित है। मुक्त व्यापार अस्तित्व में आने के बाद महिलाओं की प्रगति और सशक्तीकरण के अवसर बढ़ने चाहिए थे मगर सामाजिक चरित्र में सामंती सोच हावी होने के कारण इसके विपरीत हर संभव प्रयास किए गए ताकि उन्हें नियंत्रित रखा जाए। ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा ऐसे दी गई की उसका स्वतंत्र अस्तित्व ही ख़त्म हो जाए।

कॉलेज में पढ़ने वाली हर लड़की को यह डर रहता है कि यदि वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ डेट पर जाती है या फिर किसी प्रदर्शन में हिस्सा लेती है तो उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करके उसकी शादी करा दी जाएगी। यह डर इसलिए भी लाज़मी हो जाता है क्योंकि शादी होने के बाद न सिर्फ स्वतंत्रता और भी कम हो जाती है बल्कि शोषण भी बढ़ जाता है। जो परिवार तथाकथित रूप से लिबरल हैं और शादी के बाद भी नौकरी करने की अनुमति देते हैं, वे भी इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि ऑफ़िस ज़्यादा दूर न हो और शाम ढलने से पहले उनकी बहु घर वापस आ जाए। शादी से पहले तक जो पाबन्दी छोटे कपड़े पहनने तक होती है, शादी के बाद वह साड़ी पहनने और घूंघट रखने की अनिवार्यता तक पहुंच जाती है।

इस प्रकार स्वतंत्रता के तमाम पूंजीवादी दावों के बावजूद भी महिलाओं की कैद बरकरार है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह कैद परिवार जैसा सामाजिक संस्थान है जिससे प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही भावनात्मक जुड़ाव रखता है. पुरुषों के विपरीत यही जुड़ाव महिलाओं के शोषण की धुरी बन जाता है। इसलिए महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए पारिवारिक मान्यताओं का टूटना एक आवश्यक शर्त है।         

(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)

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