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लॉकडाउन ने और चौड़ी कर दी डिजिटल विभाजन की खाई
30-Jul-2020 9:50 AM
लॉकडाउन ने और चौड़ी कर दी डिजिटल विभाजन की खाई

इलस्ट्रेशन : रितिका बोहरा

-कुणाल पाण्डेय

कोरोनावायरस महामारी और इससे बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने “जूम” ऐप को रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। मध्यम और उच्च वर्गीय शहरी तबका इसका इस्तेमाल ऑनलाइन कक्षाओं, दफ्तरों की मीटिंग, वेबिनार आदि में करने लगा। लेकिन देश का एक बड़ा तबका इससे अछूता ही रहा। कोरोना काल ने इन दो तबकों के बीच डिजिटल डिवाइड (विभाजन) को स्पष्टता से उजागर कर दिया। आर्थिक रूप से बेहद कमजोर इस बड़े तबके को समझने के लिए डाउन टू अर्थ मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के सुदूर गांव कोटा गुंजापुर पहुंचा और यहां रहने वाले 13 वर्षीय छात्र बृज कुमार और उसकी मां से मिला।

आठवीं कक्षा का छात्र बृज आदिवासी समाज से आता है और उसकी मां हक्की बाई का बस एक ही सपना है कि इकलौती संतान अच्छे से पढ़ लिखकर इज्जत की जिंदगी जी ले। मजदूरी करके पेट भरने वाली हक्की बाई लॉकडाउन की वजह से सहमी हुई हैं। चार-पांच महीने से अधिक हो गए हैं और उनका बच्चा स्कूल जाना तो दूर, कॉपी-किताब को हाथ तक नहीं लगाता। वह कहती हैं, “नहीं मालूम यह सब कब तक चलेगा। बच्चे की पढ़ाई लगभग छूट सी गई है। डर लगता है कि अगर दो-चार महीने बाद स्कूल खुल भी जाए तो बच्चे का पढ़ने में मन लगेगा या नहीं।”

क्या फोन या इंटरनेट के माध्यम से स्कूल के संपर्क में नहीं है? इस सवाल के जवाब में हक्की बाई कहती हैं, “घर में फोन ही नहीं है। अगर कर्ज वगैरह लेकर फोन खरीद भी लें उसे चार्ज कैसे करेंगे। गांव में आज तक बिजली नहीं आई।”

जब शिक्षा के लिए फोन और इंटरनेट पर पूरा देश निर्भर हो गया है, तब हक्की बाई अकेली मां नहीं है जो ऐसी समस्या का सामना कर रही हैं। उनके गांव में एक प्राथमिक विद्यालय है। वहां करीब 31 छात्र-छात्राओं का नामांकन हुआ है। जब लॉकडाउन की अवधि बढ़ने लगी तब सरकारों ने विद्यालयों को आदेश दिया कि बच्चों को फोन या इंटरनेट के सहारे संपर्क में रखा जाए। इस आदेश के बाद, विद्यालय प्रशासन ने घर-घर घूमकर सभी से मोबाइल नंबर लेने की कोशिश की। कुल आठ घरों में मोबाइल नंबर मिले और इनमे से महज दो ही सक्रिय थे। यह जानकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक रोहणी पाठक ने दी। उनका कहना है कि अन्य गांव की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। अधिकतर बच्चे आदिवासी समाज से आते हैं और इनके माता-पिता अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी करते हैं। इन बच्चों को विद्यालय लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि इनमें से अधिकतर शिक्षा को महत्व नहीं देते। पाठक सवाल करते हैं, “जरा सोचिए, महीनों तक अगर शिक्षक और छात्रों की आमने-सामने वाली मुलाकात न हो तो बच्चे पढ़ाई-लिखाई में कितना मन लगाएंगे।”

देश के तमाम राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो ऑनलाइन क्लास जैसी सुविधा का फायदा नहीं उठा सकते। पेशे से वकील और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी से जुड़ी शोधकर्ता स्मृति परशीरा को हिमाचल प्रदेश के कई सरकारी विद्यालयों से संपर्क साधने का मौका मिला। यहां सरकारी विद्यालय के शिक्षक वाट्सऐप के माध्यम से बच्चों को संपर्क में रखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं निजी विद्यालयों के शिक्षक जूम जैसे ऐप का सहारा ले रहे हैं। दिक्कत यह है कि अधिकतर घरों में पांच के करीब सदस्य हैं और इनके बीच महज एक फोन है। इन घरों में तीन से चार पढ़ने वाले बच्चे हैं। घर का कोई सदस्य काम पर या खरीदारी करने बाजार जाता है तो उसको फोन साथ ले जाना होता है। घर के सभी लोग हमेशा उस एक फोन को पाने का संघर्ष करते दिखते हैं।

वंचित हुआ और वंचित

लॉकडाउन के बाद डिजिटल स्तर पर किए जाने वाले तमाम प्रयासों ने पिछड़े तबके को और पीछे धकेला है। तमाम क्षेत्रों में शिक्षा महज एक क्षेत्र है जिसने लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण और शहरों में व्याप्त डिजिटल डिवाइड को समझने का मौका दिया है। लेकिन गौर से देखने पर यह खाई हर जगह दिखती है। चाहे वह इंटरनेट और फोन के द्वारा मिलने वाली तमाम सुविधाएं जैसे टेलीमेडिसिन, बैंकिंग, ई-कॉमर्स या ई-गवर्नेंस ही क्यों न हों। यह स्थिति तब है जब देश ने पिछले कुछ वर्षों में वायरलेस ग्राहकों की संख्या में काफी वृद्धि दर्ज की है।

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा 29 जून को जारी मासिक रिपोर्ट के अनुसार, फरवरी 2020 में देश में 116 करोड़ से अधिक वायरलेस ग्राहक थे। चार साल पहले यानी फरवरी 2016 में देश में वायरलेस या कहें मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या 101 करोड़ के आसपास थी। यानी पिछले चार साल में ऐसे ग्राहकों की संख्या करीब 15 करोड़ बढ़ी है। इसमें शहरी ग्राहकों की संख्या 7.4 करोड़ और ग्रामीण ग्राहकों की संख्या 8.6 करोड़ बढ़ी है। लेकिन यह वृद्धि केवल बुनियादी दूरसंचार सुविधा को ही दर्शाती है। ऑनलाइन कक्षाओं, वित्तीय लेनदेन और ई-गवर्नेंस जैसी सेवाओं के लिए फोन के साथ साथ इंटरनेट, टैबलेट और कंप्यूटर जैसे इंटरनेट-सक्षम उपकरणों को संचालित करने की क्षमता की भी जरूरत होती है। इसे जाने बिना डिजिटल डिवाइड को नहीं समझा जा सकता। इन मामलों में डिजिटल डिवाइड की खाई कितनी बढ़ी है, इसका अंदाजा जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण से लगता है।

75वें दौर के राष्ट्रीय नमूना (प्रतिदर्श) सर्वेक्षण के अनुसार, महज 4.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ही कंप्यूटर उपलब्ध है। शहरी क्षेत्र में यह आंकड़ा बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों के 14.9 प्रतिशत परिवारों को ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध हो पाती है, वहीं 42 प्रतिशत शहरी घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। अगर इंटरनेट चलाने की क्षमता की बात की जाए तो पांच साल से अधिक उम्र के महज 13 प्रतिशत ग्रामीण पर 37 प्रतिशत शहरी लोग इंटरनेट चलाने में सक्षम हैं।

हालांकि इसके बावजूद डिजिटल डिवाइड की वास्तविक तस्वीर नहीं स्पष्ट होती। दिल्ली स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता कहते हैं, “शहरी क्षेत्र में प्रति 100 लोगों पर 104 इंटरनेट कनेक्शन हैं (कई फोन में दो सिम कार्ड होते हैं), जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति 100 लोगों पर लगभग 27 कनेक्शन हैं। इस आंकड़े से ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच फैली डिजिटल डिवाइड के वास्तविक स्तर का पता चलता है।”

केंद्र सरकार में दूरसंचार विभाग में सचिव रही अरुणा सुन्दराजन के अनुसार, यह स्पष्ट है कि देश में बहुत कम लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है। एक तरफ तो सब लोग यह मानने लगे हैं कि आज के समय में इंटरनेट की सुविधा मूलभूत जरूरतों में आती है पर दूसरी तरफ नीति-निर्माता अपनी प्लानिंग में इसको खास तवज्जो नहीं देते। सुन्दराजन केरल सरकार के कोविड-19 टास्क फोर्स की सदस्य भी हैं। वह कहती हैं, “कोविड-19 से लड़ाई में हमारी पहली सिफारिश यही थी कि लोगों को सुचारू रूप से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध होती रहे। हमने सुझाव दिया कि जिन लोगों के पास इंटरनेट सुविधा उपलब्ध नहीं है, उन्हें यह सुविधा उपलब्ध कराई जाए।”

डिजिटल डिवाइड की खाई को लिंग के आधार पर भी देखा जा सकता है। दुनियाभर में मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था जीएसएमए ने मार्च में जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 जारी की। इसके अनुसार देश में 79 फीसदी पुरुषों के पास मोबाइल फोन है, वहीं महिलाओं के लिए यह संख्या महज 63 फीसदी है। मोबाइल इंटरनेट के इस्तमाल में यह फासला 50 फीसदी तक बढ़ जाता है। फोन और इंटरनेट की सुविधा का होना या न होना केवल एक आर्थिक स्थिति को बयान नहीं करता बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी दर्शाता है। परशीरा कहती हैं कि अगर एक परिवार में बस एक फोन उपलब्ध है तो पूरी संभावना है कि इस फोन को इस्तेमाल करने वालों की कतार में पत्नी या बेटी आखिरी पायदान पर होंगी।

कंप्यूटर की उपलब्धता या इंटरनेट चलाने में सक्षम लोगों की संख्या के मद्देनजर देखा जाए तो विभिन्न राज्यों की स्थिति अलग-अलग है। जैसे इंटरनेट की उपलब्धता में हिमाचल प्रदेश अग्रणी है, वह चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में उत्तराखंड का शहरी क्षेत्र सबसे आगे है। जबकि केरल में ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक कंप्यूटर हैं। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में केरल एक ऐसा राज्य है, जहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर सबसे कम है।

पिछले पांच वर्षों में सरकार और निजी दोनों क्षेत्रों की तरफ से देश को डिजिटल बनाने की दिशा में काफी प्रयास हुए हैं (देखें, सुस्त चाल, पेज 43)। वर्तमान सरकार ने तो डिजिटल इंडिया की बड़ी हुंकार भरी है। 2017 में रिलायंस के जियो फोन की शुरुआत देश के इंटरनेट की दुनिया के लिए एक क्रांतिकारी कदम माना जाता है। जियो ने शुरुआती दौर में मुफ्त वॉयस कॉलिंग की सुविधा और डेटा पैक प्रदान किया। इसकी वजह से अन्य कंपनियों ने भी सस्ते दरों पर सुविधाएं उपलब्ध करानी शुरू कर दी। जियो की शुरुआत के बाद देश में इंटरनेट ट्रैफिक में बड़ी उछाल देखने को मिली। नोकिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट से इसकी पुष्टि होती है। इसके अनुसार पिछले चार वर्षों में भारत में डेटा ट्रैफिक में 44 गुना वृद्धि हुई है।

परशीरा कहती हैं कि इसके बावजूद देश की बड़ी आबादी के पास इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इनमें से अधिकतर वंचित समाज से आते हैं।

सुस्त चाल

पिछले एक दशक में, सरकारें देश में इंटरनेट का उपयोग बेहतर बनाने की कोशिश कर रही हैं ताकि अधिक से अधिक लोग इस सुविधा का इस्तेमाल कर सकें। वर्ष 2011 में, भारतनेट परियोजना की शुरुआत हुई। इसके तहत ढाई लाख पंचायतों को ऑप्टिकल फाइबर (100 एमबीपीएस) को जोड़ा जाना था। इस परियोजना पर काम 2014 में जाकर शुरू हुआ। इस योजना के तहत इन ढाई लाख गांव को मार्च 2019 तक इंटरनेट से जोड़ना था पर महज 118,000 गांव को ही जोड़ा जा सका। अब इस लक्ष्य के लिए निर्धारित समयसीमा को अगस्त 2021 तक बढ़ा दिया गया है।

वर्ष 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन और डिजिटल साक्षरता अभियान शुरू किया। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी पर स्थायी समिति ने कहा कि ये दोनों योजनाएं रूपरेखा में लगभग समान थीं। इसकी वजह से इन योजनाओं के लाभार्थियों के बीच भ्रम पैदा होने की गुंजाइश थी। वर्ष 2015 में सरकार ने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपने डिजिटल इंडिया अभियान के तहत कई योजनाएं शुरू कीं।

इसमें 2017 में शुरू किया गया प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल अभियान भी शामिल है। इसके तहत ग्रामीण भारत के छह करोड़ घरों में डिजिटल साक्षर करना था। इस पर आने वाला खर्चा करीब 2,351 करोड़ रुपए है। वर्ष 2017-18 में सरकार को इसके लिए 1175.69 करोड़ रुपए की राशि देनी थी। इतनी ही राशि इसके अगले साल के लिए थी। लेकिन सरकार ने अब तक महज 500 करोड़ रुपए ही आवंटित किए हैं। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग पर बनी स्थायी समिति ने निष्कर्ष निकाला कि सरकार की डिजिटल साक्षरता के प्रयास संतोषजनक नहीं हैं।(downtoearth)

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