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सिर्फ कुछ न्यायाधीशों को ही क्यों राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले मिलते हैं?
06-Aug-2020 2:53 PM
सिर्फ कुछ न्यायाधीशों को ही क्यों राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले मिलते हैं?

दुष्यंत दवे

प्रशांत भूषण अवमानना मामले में दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ आलोचना के बिंदु उठाए 

नई दिल्ली, 6 अगस्त। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और न्यायपालिका पर ट्वीट करने के कारण अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ शुरू हुए अवमानना के मामले में बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में 3 घंटे की लंबी सुनवाई के दौरान दिलचस्प तर्क दिए गए। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की खंडपीठ के समक्ष भूषण की तरफ से वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे पेश हुए। दवे की दलीलों का केंद्रबिंदु यह था कि श्री भूषण के ट्वीट अवमाननापूर्ण थे या नहीं। 

इस दौरान दवे ने न्यायालय से आग्रह किया कि भूषण की टिप्पणियों को न्यायपालिका की बेहतरी के लिए की गई निष्पक्ष आलोचना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिनमें कोई ऐसी दुर्भावना नहीं है। न ही यह टिप्पणियां न्यायिक प्रणाली की स्वतंत्रता का अपमान करने के इरादे से की गई थी। उनकी दलीलों का मूलबिंदु यह था कि कई दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के चलते वास्तव में न्यायपालिका की प्रभावशीलता कम हो रही थी। इसलिए भूषण के ट्वीट को उस संदर्भ में समझा जाना चाहिए। 

 दवे-भूषण जैसे लोग कई बार ऐसे मुद्दों को उठाते हैं जिनको कार्यकारी या राज्य के कर्मचारी भी उठाने को तैयार नहीं होते हैं। निश्चित रूप से उनकी कई याचिकाएं खारिज कर दी जाती हैं, यह ठीक है क्योंकि आपको फैसला करना है, लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि इस पर ध्यान दिया जाए। यदि श्री भूषण कोई ‘प्रो-इस्टैब्लिश्मंट या संस्थान’ होते तो आप उनको उनके काम के लिए पद्म विभूषण दे देते।

12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार सिटिंग जजों द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा दिए गए बयानों का उल्लेख करते हुए दवे ने जोर दिया कि न्यायिक दृष्टिकोण के बारे में की गई आलोचना पूरी तरह से अनुचित नहीं थी। 

 अपने बयानों में इन न्यायाधीशों ने कहा था कि अन्य बातों के अलावा शीर्ष कोर्ट का प्रशासन भी ‘‘सुव्यवस्था में नहीं था’’ और कई ऐसी चीजें हो रही हैं जो ‘वांछनीय नहीं थी’। 

दवे- जब आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है तो अपने विचारों को रोक न पाने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन क्या इसे अवमानना माना जा सकता है?

इसके बाद उन्होंने हाल के मुद्दों के बारे में बात की और कहा कि उन्होंने न्यायपालिका की प्रभावशीलता को प्रभावित किया है जैसे कि अनुच्छेद 370 के मामलों पर कोर्ट का उदासीनभरा रवैया, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर कोई कार्यवाही न करना आदि। 

 उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की ऐसी प्रतिक्रियाओं पर किसी को भी पीड़ा होगी। दवे ने यह भी कहा कि पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई के खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीडऩ के मामले में जिस तरीके से व्यवहार किया गया है,उससे भी संस्था पर बुरा असर पड़ा है। 

दवे-उनके मामले को देखें। उसे (शिकायतकर्ता) बहाल कर दिया गया था और सभी आरोपों को हटा दिया गया था। जो यह दर्शाता है कि वह सच बोल रही थी। क्या उसके खिलाफ कोई अवमानना की कार्यवाही की गई थी? इससे क्या धारणा बनी हैै? हमें इन गंभीर मुद्दों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। एक न्यायाधीश शनिवार को अपने स्वयं के मामले में सुनवाई करता है,जो यौन उत्पीडऩ के संबंध में था।

उन्होंने यह भी कहा कि जस्टिस गोगोई को उनकी सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा सीट और जेड प्लस सुरक्षा भी दी गई। जिसने राफेल, अयोध्या, सीबीआई निदेशक आदि जैसे मामलों में दिए गए फैसलों पर सवालिया निशान उठाया है। 

इसके बाद दवे ने ये भी कहा कि न्यायाधीशों को मामलों के आवंटन का तरीका भी आलोचना के लिए पर्याप्त आधार तैयार करता हैं। उन्होंने कहा कि केवल कुछ न्यायाधीशों को ही राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले सुनवाई के लिए दिए जाते हैं। 

दवे- उदाहरण के लिए, केवल कुछ न्यायाधीशों को ही क्यों राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले मिलते हैं? उदाहरण के लिए जैसे जस्टिस नरीमन है- उन्हें कभी ऐसे मामले नहीं सौंपे जाते हैं! 

मामले की सुनवाई के बाद पीठ ने इस मामले में अपना आदेश सुरक्षित रख लिया है। 

भूषण ने अवमानना नोटिस के मामले में एक विस्तृत जवाबी हलफनामा दायर किया है। जिसमें कहा गया है कि न्यायालय के बारे में वास्तविक या यथार्थ विचारों की अभिव्यक्ति अवमानना के समान नहीं है। (hindi.livelaw)

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