सामान्य ज्ञान

लेपचा
09-Aug-2020 12:27 PM
 लेपचा

लेपचा भारत में रहने वाली एक प्रमुख जनजाति है और इस जनजाति के द्वारा बोली जाने वाली जनजातिय भाषा लेप्चा कहलाती है। लेपचा को रोंग भी कहते हैं। ये भारत के प्रमुख जनजातियों मे से एक हैं।   यह पूर्वी नेपाल, पश्चिमी भूटान,तिब्बत के कुछ क्षेत्र तथा भारत के सिक्किम और पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के प्रमुख निवासी हैं। एक अनुमान के मुताबिक इनकी संख्या 46 हजार है। अर्थात भारत के अन्य क्षेत्रों में 11 हजार, सिक्किम में 25 हजार और भूटान मे 10 हजार के आसपास, तिब्बत और नेपाल में इनकी संख्या नगण्य है। 
ये सिक्किम के सबसे पुराने निवासी माने जाते हैं, लेकिन उन्होंने 14 वीं शताब्दी और उसके बाद आए भूटिया लोगों की संस्कृति के कई तत्वों को अपना लिया है। भूटिया मुख्यत: ऊंचे पहाड़ों के पशुपालक होते हैं, जबकि लेपचा सामान्यत: दूरस्थ घाटियों में रहते हैं। जहां इन दोनों समूह में कुछ अंतर्विवाह हुए हैं वहीं वे अलग रहने और अपनी भाषाएं बोलने का प्रयास करते हैं, जो तिब्बत भाषा की बोलियां हैं। किसी भी समूह का नेपाली हिन्दू अधिवासियों से कोई संबंध नहीं है, जो 18 वीं शताब्दी में सिक्किम में आए और 20 वीं शताब्दी के अंत में जनसंख्या का दो-तिहाई भाग हो गए थे। 
लेपचा मुख्यत: एक ही विवाह करते हैं, हालांकि एक विवाहित पुरुष अपने छोटे अविवाहित भाई को अपने साथ रहने के साथ-साथ अपने खेत और अपनी पत्नी की साझेदारी हेतु निमंत्रित कर सकता है। कभी-कभी एक पुरुष की एक या अधिक पत्नियां भी हो सकती हंै। लेपचा अपना मूल पितृवंश के आधार पर मानते हैं और उनके बड़े पितृसत्तात्मक वंश होते हैं।
लेपचा, भूटिया द्वारा तिब्बती बौद्ध धर्म में परिवर्तित किए गए थे, लेकिन अब भी लेपचा लोग आत्माओं के कूलोन व उनके ओझाओं की अपनी पुरानी मान्यता को मानते हैं, जो रोगों का उपचार करती है, देवताओं से मध्यस्थता करती है और जन्म-विवाह तथा मृत्यु के समय की जाने वाली रस्मों में प्रधान होती है।  सिक्किम की जनजाति लेपचा आदिवासियों का वार्षिक उत्सव तेंदोंग पर्वत की प्रार्थना 7 अगस्त 2015 को पारंपरिक श्रद्धा और धूमधाम के साथ मनाया गया।  यह लेपचा जनजातियों का वार्षिक त्यौहार है जो प्रति वर्ष जुलाई-अगस्त के महीने में मनाया जाता है।
इस दिन लोककथाओं के अनुसार जनजाति तेंदोंग पर्वत की प्रार्थना करते हैं। इस प्रार्थना के पीछे जनजातियों की यह धारणा है कि 40 दिन और 40 रात अनवरत वर्षा से बचने के लिए उनके पूर्वजों ने इस पर्वत की शरण ली थी और इस पर्वत के कारण ही उनके पूर्वज सुरक्षित बच पाए।
 

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