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इब्राहीम अलकाज़ी और मुकुंद लाठ: दो अपनी ही तरह के व्यक्तित्व
09-Aug-2020 6:02 PM
इब्राहीम अलकाज़ी और मुकुंद लाठ: दो अपनी ही तरह के व्यक्तित्व

-अशोक वाजपेयी

(इब्राहीम अलकाज़ी ने हिन्दी रंगमंच को भारतीय रंगमंच का उल्लेखनीय अंग बनाया तो मुकुंद लाठ हिन्दी में गंभीर दार्शनिक चिंतन करने वाले लगभग आखिरी मूर्धन्य थे)

इब्राहीम अलकाज़ी

रंगकर्मी, रंगगुरु, कलाकार, कलाप्रोत्साहक, कलासंग्राहक, इब्राहीम अलकाज़ी का देहावसान सचमुच युगान्त है. उन्होंने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सांस्कृतिक भारत के रूपाकार को गढ़ने, समझने और प्रसारित करने में बहुत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभायी. स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत का, सांस्कृतिक बहुलता से समृद्ध भारत का आधुनिक रंगमंच और रूपंकर कला क्या-कैसे होंगे इसका एक सशक्त विकल्प उनके रंगकर्म से उभरा. यथार्थवाद को रंगव्यापार में अलकाज़ी ने जो परिष्कार, तीक्ष्णता और सौष्ठव दिया वह अपने आप में एक प्रतिमान बन गया. उनका रंगमंच यथार्थवादी शास्त्र का एक बहुत सक्षम और कुशल संस्करण था.

इब्राहीम अलकाज़ी द्वारा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दीक्षित अभिनेताओं और निर्देशकों की बड़ी संख्या है और उनमें से अधिकांश ने अपने ढंग से भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया है. यह उल्लेखनीय है कि उनके शिष्यों में से अनेक ने, जैसे ब व कारन्त, नीलम मानसिंह, रतन थियाम आदि ने यथार्थवादी रंगमंच से अलग राहें चुनीं. उन्हें अपने गुरु से अलग रास्ता चुनने की स्वतंत्रता और निर्भीकता भी, निश्चय ही, गुरु अलकाज़ी की ही देन रही होगी. शम्भु मित्र, हबीब तनवीर, ब व कारन्त, कावलम पणिकर के बाद अलकाज़ी का निधन युगान्त है. ‘अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला’.

हिन्दी रंग-संसार को अलकाज़ी के प्रति गहरी कृतज्ञता इस कारण भी है कि उनके निर्देशन में ‘अन्धा युग’ (धर्मवीर भारती), ‘आषाढ़ का एक दिन’ (मोहन राकेश) जैसे हिन्दी नाटकों की रंगप्रस्तुतियों ने हिन्दी रंगमंच को भारतीय रंगमंच का उल्लेखनीय अंग बनाया जिसे आगे बढ़ाया उन्हीं के शिष्य कारन्त, मोहन महर्षि, बी एस शाह, भानु भारती, बंसी कौल, एम के रैना, अमाल अलाना, कीर्ति जैन, अनुराधा कपूर आदि ने. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मुक्त होने के बाद अलकाज़ी ने आर्ट हैरिटेज़ नामक कलावीथिका खोली जिसमें कई दशकों से श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली कलाकारों की प्रदशनियां होती आयी हैं. वहां की सुघरता और चयन में कल्पनाशीलता, कलाकारों के चुनाव में जोखिम ले सकने का माद्दा कला-जगत् में प्रतिमान ही बन गये.

अलकाज़ी के यहां किसी भी स्तर पर ढीलेपन, काम चलाऊ रुख़ की कोई जगह नहीं बन सकी. कलाकर्म में हर घटक पर पूरा ध्यान होना चाहिये यह शिक्षा उनसे कइयों ने ग्रहण की. ब्योरों में जाने से न ऊबना, साफ़-सफ़ाई, घण्टों काम करके भी थकान अनुभव न करना आदि ऐसे गुण हैं जो अलकाज़ी ने अपने कर्म से सिखाये. उनके बारे में यह सही है कि आने वाली नस्लें हम पर रश्क करेंगी कि हमने अलकाज़ी को, उनके काम को देखने का सौभाग्य पाया था.

हंसमुख विद्वत्ता

मुकुन्द लाठ से जब पहली मुलाक़ात दशकों पहले हुई थी तो वे सहज हंसमुख और शालीन लगे थे. यह पहला प्रभाव अन्त तक वैसा ही बना रहा. वे विद्वान् थे, दर्शन और संस्कृति के, परम्परा और आधुनिकता के, शास्त्रीय संगीत और आधुनिक कला के ऐसे विशेषज्ञ थे जो उनमें उठने वाले गम्भीर प्रश्नों को लगातार सम्बोधित करते थे और बहुत प्रेषणीय गद्य में विवेचन और विश्लेषण, सप्रमाण, करते रहे. वे न तो परम्परा से, न ही आधुनिकता से कभी आतंकित हुए. उनकी दोनों की समझ बहुत गहरी और प्रश्नाकुल थी. वे उन थोड़े से मर्मज्ञों में थे जो परम्परा और आधुनिकता को निरन्तरता में देख और समझ-समझा पाते थे. हिन्दी में साफ़-सुधरे गद्य में गम्भीर दार्शनिक चिन्तन करने वाले वे लगभग आखि़री मूर्धन्य थे. शास्त्रीय संगीत और नृत्य, नाट्य शास्त्र, आधुनिक कला आदि में फैली उनकी रुचि और समझ का वितान इतना विस्तृत था कि कोई दूसरा उदाहरण याद नहीं आता.

उनसे बरसों का घनिष्ठ परिचय, संवाद और दूर रहकर भी सहज साहचर्य था. वे संवेदनशील कवि और बहुत सर्जनात्मक अनुवादक थे. उन्होंने पृथ्वी सूक्त का जो सुन्दर अनुवाद किया है वह रज़ा पुस्तकमाला में जल्दी ही प्रकाशित हो रहा है. उनके साहित्य और अन्य कलाओं पर निबन्धों का एक संचयन ‘भावन’ इसी पुस्तकमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुका है. कलाप्रेमी होने के साथ-साथ मुकुन्द जी बड़े कलासंग्राहक भी थे. उनका आधुनिक भारतीय कलाकारों का निजी संग्रह ऐसे संग्रहों में अद्वितीय है. उनसे जयपुर में उनके अत्यन्त सुकल्पित निवास पर आखि़री भेंट पिछली जनवरी में तब हुई थी जब उनके निजी संग्रह को देखने फ्रांस के कई संग्रहालयों के विशेषज्ञ आये थे और उस संग्रह की विविधता और सुरुचिपूर्ण चयन को चकित भाव से देख रहे थे.

हिन्दी में दार्शनिक विमर्श की एक पत्रिका ‘उन्मीलन’ भी मुकुन्द जी ने अपने साधनों से निकाली और उसमें लगातार दर्शन संबंधित मौलिक सामग्री लिखते और प्रकाशित करते रहे. ‘धर्मसंकट’ पर उनका चिन्तन बेजोड़ है और हमारी परम्परा से लेकर आज तक उसकी क्या स्थिति और परिणति रही है इस पर विस्तार से विचार करता है. मुकुन्द जी ने गहरी रसिकता और समझ से ‘राम की शक्तिपूजा’, अज्ञेय, रमेशचन्द्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन आदि की कृतियों और यशदेव शल्य के काव्य-विमर्श पर लिखा है. पश्चिम के कलाचिन्तन से भारतीय कला चिन्तन कहां और कैसे अलग है इसकी बड़ी सटीक पहचान और तर्क-तथ्य-संगत समझ मुकुन्द जी को थी और वे उसका गम्भीर विश्लेषण कर पाये थे, वह भी अन्यथा विचार-विपन्न हिन्दी में. शास्त्रीय संगीत पर मुकुन्द जी ने जिस सघन विचारशक्ति के साथ लिखा है वह हिन्दी में तो अद्वितीय है ही, भारतीय संगीत परिदृश्य में भी बेजोड़ है. उनके देहावसान से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का आखि़री मूर्धन्य शास्त्री चला गया. उनके अलावा और किसने यह कहा है - ‘... संगीत, नृत्य, और साहित्य, शिल्प किसी एक को समझने के लिए दूसरे में उतरना आवश्यक है इन कलाओं के आत्मबोध में (इनके शास्त्र और चिन्तन में) भी यह परस्पर भाव स्पष्ट है.’

अन्तःकरण का गणतन्त्र

दशकों पहले साम्यवादी सत्ताओं के रहते पोलिश और चैक कवियों हेर्बेत और होलुव के हवाले से आयरिश कवि शीयस हीनी ने अन्तःकरण के गणतन्त्र की अवधारणा की थी. हमारे यहां धूमिल ने लगभग तभी ‘दूसरे प्रजातन्त्र’ की तलाश की बात की थी. व्यापक रूप से यह मान्य है कि लगभग तभी मुक्तिबोध ने अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता में अन्तःकरण की अवधारणा जोड़ी थी.

आज की कविता किस हद तक, वर्तमान सत्ता के निरंकुश व्यवहार और असहमति को द्रोह मानने की नीति के चलते, अन्तःकरण का गणतन्त्र बन पा रही है, यह सोचने का मन करता है. हेर्बेत और होलुब दोनों ही अपने देशों में रहे थे - वे उसे छोड़कर कहीं गणतन्त्र की तलाश में नहीं गये थे. लगभग कगार पर ढकेल दिये जाने के बावजूद किसी लेखक या कवि ने तंग आकर भारत छोड़ा नहीं है. इसका सीधा अर्थ यही है कि अगर अन्तःकरण का गणतन्त्र रूपायित होना है तो यहीं होना है, अन्यत्र नहीं.

आज की कविता के बड़े हिस्से में प्रतिरोध बुजुर्गों और अधेड़ों के ज़िम्मे आ पड़ा है. युवा लेखकों के बड़े हिस्से पर रोज़मर्रा की मुश्किलें, बाधाएं, अत्याचार, हिंसा आदि कोई प्रभाव नहीं डालते ऐसा संभव नहीं है. युवा पीढ़ी में, फिर भी, अपेक्षाकृत बहुत थोड़े हैं जिनका अन्तःकरण निर्भीक और साहसी कविता में चरितार्थ हो रहा है. ज़ाहिर है कि अन्तःकरण कविता में घोषणा या वक्तव्य की आसानी से चस्पां की जा सकने वाली हरकत का सहारा नहीं लेगा - वह जीवन्त ब्योरों में, जीवन-छवियों, क्रियाओं आदि में चरितार्थ होगा, आकार लेगा. वह बार-बार क़समें नहीं खायेगा बल्कि हलफ़ उठायेगा तो, बिना कोई रियायत मांग-चाहे, भाषा और शिल्प में शिरकत, साहचर्य, आत्माभियोग आदि के बिम्बों-अभिप्रायों में मुखर होगा, सक्रिय भी. (satyagrah)

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