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लॉकडाउन में रेडलाइट एरिया, ना ग्राहक, ना पैसा और ..
10-Aug-2020 9:14 AM
लॉकडाउन में रेडलाइट एरिया, ना ग्राहक, ना पैसा और ..

ना ही सरकारी योजनाओं का लाभ

- चिंकी सिन्हा

उस कोठे में घुसते ही किसी बंकर-सा अहसास होता है. एक के ऊपर एक लकड़ी के पटरे लगा कर बनाई गई छोटी-छोटी कोठरियां ट्रेन के डिब्बों में बनी बर्थ जैसी लगती हैं. कोठरियों में एग्जॉस्ट पंखे लगे हैं.

पतले गद्दे, बेडशीट के बजाय तिरपाल से सजे हैं. परदे हैं लेकिन बिल्कुल घिसे हुए. ये ढांचे सिर्फ़ तुरत-फुरत सेक्स के लिए खड़े किए गए हैं. इसके सिवा ये किसी काम के नहीं हैं. इन कोठरियों में सिर्फ़ एक सौदा होता है. ऐसा सौदा, जिसमें किसी जज़्बात की कोई गुंजाइश नहीं होती.

मुंबई के कमाठीपुरा के गली नंबर 1 के रमाबाई चाल की ये बंकरनुमा कोठरियां भी देश के दूसरे तमाम वेश्यालयों के कमरों की तरह ही हैं, जहां जगहें बेहद कम होती हैं. लेकिन धंधा तो धंधा ही होता है सो बदस्तूर चलता रहता है.

इन्हें आप सर्विस चैंबर कह सकते हैं. किसी दूसरे वर्कप्लेस की तरह यहां भी काम ही होता है. रोशनी थोड़ी कम हो सकती है लेकिन वर्कप्लेस तो यह है ही.

बरसों पहले निधि (नाम बदल दिया गया है) को उनके परिवारवालों ने घर से निकाल बाहर किया था. सिर्फ़ इसलिए कि वह ट्रांसजेंडर (हिजड़ा) पैदा हुई थीं. खुली गलियों में रेप और हिंसा से गुजरने के बाद उन्हें यहां पनाह मिली. जैसे ही इस कोठे ने उन्हें अपने आगोश में लिया, उन्होंने खुद से कहा- "अब मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा. मैं महफूज़ हूं."

ये काम उन्हें पसंद नहीं था लेकिन मन को समझाना पड़ा. दूसरा कोई चारा नहीं था. यहां मौजूद दूसरी औरतों के पास भी कोई चारा नहीं था. फिर वो तो ट्रांसजेंडर थीं.

कमाठीपुरा में तबाहियों का दौर

पिछली बार जब मैं उनसे मिली तो उनकी पीठ पर सामान लदा हुआ था. उनकी नजरें टैक्सी तलाश रही थीं. उन्हें बिखरोली जाना था. कमाठीपुरा की गली नंबर 1 की कोठरियों को छोड़ कर उन्हें वहीं शिफ्ट होना था. कमाठीपुरा में चल रहे री-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की वजह से बड़ी तादाद में यौनकर्मियों को वहां से विस्थापित होना पड़ा था. महानगर के बीचोंबीच होने की वजह से यह बेशकीमती जगह थी.

उन्होंने मुझसे कहा था- "इस प्रोजेक्ट ने बड़ा परेशान किया है. यौनकर्मियों को अपने कोठे रियल एस्टेट कंपनियों के हाथों बेचने पड़े."

यह इस साल जनवरी की बात है. लेकिन मार्च का लॉकडाउन इन यौनकर्मियों के लिए तबाहियों का दौर लेकर आया. अब उन्हें अपना वजूद बचाना मुश्किल हो रहा है. वे सरकार की किसी स्कीम के दायरे में नहीं आतीं. ज़्यादातर प्रवासी हैं और अपनी पहचान साबित करने के लिए उनके पास कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं है.

कमाई ख़त्म

मई में जब लॉकडाउन का दूसरा फे़ज शुरू हुआ तो ट्रांसजेंडर यौनकर्मियों ने कहा अब उनके लिए ज़िंदा रहना बेहद मुश्किल हो गया है. कमाठीपुरा में काम करने वाले कुछ एनजीओ उन्हें राशन दे रहे थे.

लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहीं हुई थी. हाल में महाराष्ट्र में एक पत्र वितरित किया गया, जिसमें प्रशासन से अनुरोध किया गया था कि वह यौनकर्मियों की मदद करे क्योंकि उनकी कमाई ख़त्म हो गई है.

यौनकर्मियों के अधिकारों को पहचान दिलाने वाला पत्र

इस पत्र की भाषा ध्यान खींचने वाली है. महिला और बाल विकास विभाग के प्रभारी कमिश्नर हृषिकेश यशोध ने यह पत्र लिखा था. इस पत्र की भाषा यौनकर्मियों के बारे में पुरानी घिसे-पिटे अंदाज़ में की जाने वाली बातचीत की भाषा से अलग थी.

इसने इन यौनकर्मियों के काम को पहचान दिलाने के लिए लड़ने वालों को उम्मीद बंधाई थी. यौनकर्मियों के काम को सर्विस के तौर पर मान्यता दिलाने के लिए आंदोलनरत लोगों को इसने सुकून पहुंचाया था. ऐसा लगता है, शायद सरकार उनके काम को सर्विस मानने के लिए किसी वैश्विक महामारी का इंतज़ार कर रही थी.

23 जुलाई को महिला और बाल विकास विभाग की ओर से भेजे गए पत्र की सबजेक्ट लाइन में लिखा गया है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में". यह यौनकर्मियों के अधिकारों और उनके आत्मनिर्णय की दिशा में एक निश्चित क़दम है.

पत्र में कहा गया था, "यौन कर्म (वेश्या व्यवसाय) में लगी और इसे छोड़ चुकी महिलाओं की कमाई के विकल्प ख़त्म हो गए हैं. लॉकडाउन की वजह से उन्हें काम भी नहीं मिल रहा है, जिससे उनके और उनके परिवार वालों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है. उनके लिए ज़िंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है".

इस पत्र से ज़ाहिर हुआ कि पहली बार भारत में किसी राज्य की सरकार ने यौनकर्मियों (सेक्स वर्कर्स) के 'काम' या सेक्स वर्कर्स के 'वर्क' को मान्यता दी है. वे सेक्स वर्कर्स, जिन्हें हमेशा नैतिकता का बोझ ढोना पड़ता है और जो हमारी बातचीत का हिस्सा तभी बनती हैं जब मामला एचआईवी/एड्स का हो सेक्स ट्रैफिकिंग का.

हाशिये के लोगों के लिए काम करने वाले रजिस्टर्ड नॉन-प्राफ़िट संगठन संपदा ग्रामीण महिला संस्था ( SANGRAM) की संस्थापक मीना सेशु के लिए यह पत्र स्वागतयोग्य है. इस पत्र में पहली बार यौनकर्मी महिलाओं को देह बेचने वाली महिला (मराठी में देह बिक्री) कहने से बचा गया. इसमें उनके पेशे पर फोकस किया गया है.

वेश्या व्यवसाय

सेशु कहती हैं, "पत्र में संस्कृत के शब्द वेश्या का इस्तेमाल किया गया है, जो इन महिलाओं को गरिमा देता है. यौनकर्मी महिलाएं भी इस शब्द का इस्तेमाल करती आई हैं. यह पत्र उनके 'काम' के बारे में बात करता है. इसके सबजेक्ट लाइन में लिखा है- वे महिलाएं जो 'वेश्या व्यवसाय' पर निर्भर हैं. व्यवसाय का हिंदी में मतलब पेशा है. अंग्रेजी में इसे प्रोफे़शन कहते हैं. पत्र के सबजेक्ट लाइन कुछ इस तरह है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में".

यौनकर्मी चाहती हैं लाइसेंस

सेशु सांगली में रहती हैं, जहां लगभग 250 यौनकर्मी महिलाएं रहती हैं. इससे पहले तक इन यौनकर्मी महिलाओं को सिर्फ़ एचआईवी रोकथाम स्कीमों के तहत ही पहचान मिली थी.

कोरोना के दौरान जारी सरकारी स्कीमों से यौनकर्मी बाहर क्यों?

यौनकर्मी महिलाएं इससे पहले एक और बार इस तरह हालात से गुज़र चुकी हैं. नब्बे के दशक में मुंबई का रेड लाइट इलाक़ा कमाठीपुरा एचआईवी/एड्स महामारी का केंद्र बन गया था. उन दिनों इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ( ICMR) ने रेड लाइट इलाकों में एड्स नियंत्रण के लिए एक योजना बनाई थी लेकिन जल्दी ही इसकी मौत हो गई.

इस महामारी का असर कम होते-होते बरसों लग गए. और अब कोरोना वायरस ने भी महिला यौनकर्मियों के सामने पहले जैसे ही हालात पैदा कर दिए हैं. निधि कहती हैं, उन्हें और उनकी सहकर्मियों का पता है कि ये काफ़ी मुश्किल भरे दिन साबित होने वाले हैं.

मुश्किल भरे दिन

फ़ोन से बातचीत के दौरान वह कहती हैं. "आप एचआईवी/ एड्स की प्रवृति के बारे में जानते हैं. आपको पता है इससे कैसे लड़ना है. लेकिन कोरोना वायरस को तो किसी भी तरह से

मुंबई में कमाठीपुरा का रेड लाइट एरिया कंटेनमेंट जोन की लिस्ट में नहीं आया है. इस इलाक़े की यौनकर्मियों का कहना है कि अभी तक यहां किसी वेश्यालय से कोविड-19 का कोई केस सामने नहीं आया है.

कोई कोरोना केस नहीं

इसके बावजूद उन्हें हमेशा की तरह इस बार भी बहिष्कृत कर दिया गया है. राज्य की ओर से उन्हें असहाय छोड़ दिया गया है. ग़रीबों के लिए चल रही उसकी तमाम स्कीमों में 'यौनकर्मियों' के लिए कोई जगह नहीं है. कोविड-19 से लड़ने के लिए भारत सरकार ने 11 अधिकार प्राप्त समूह बनाए हैं.

सेशु का कहना है कि अधिकार प्राप्त समूह 6 ने SANGRAM के साथ संपर्क किया और देश में यौनकर्मियों की समस्याओं के बारे में विस्तार से बातचीत की. इसके बाद इस समूह ने मंत्रालय को लिखा, "हमारा अनुरोध है कि मंत्रालय राज्यों में खाद्य वितरण से जुड़े विभागों को पीडीएस के तहत यौनकर्मियों को अनाज देने का निर्देश दें. अगर ये महिलाएं पीडीएस के दायरे में नहीं आतीं तो उन्हें किसी दूसरी कल्याणकारी योजनाओं के तहत अनाज दिया जाए''.

कोई राहत योजना नहीं

सेशु कहती हैं ''इस पत्र के बावजूद अब तक यौनकर्मियों के लिए किसी राहत योजना का ऐलान नहीं किया गया है. उनकी पूरी तरह अनदेखी की गई है''.

हाल में दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की गई एक जनहित याचिका में मांग की गई कि केंद्र और दिल्ली सरकार राजधानी में रह रहे यौनकर्मियों और एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के सदस्यों को वित्तीय मदद के साथ सोशल सिक्योरिटी भी मुहैया कराए.

यौनकर्मी का पेशासर्विस क्यों नहीं?

अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Prevention of Immoral Trafficking Act ) के तहत जिन वेश्यालयों में यौनकर्मी रहती हैं और काम करती हैं, वे गैरक़ानूनी हैं. लेकिन शहरों और महानगरों में ये वर्षों से चल रहे हैं. अक्सर लड़कियों को यहां से निकाल कर शेल्टर होम्स में भेज दिया जाता है या फिर पुलिस इन्हें चेतावनी देकर छोड़ देती है.

लेकिन इनमें से कइयों ने यह कहा है वे इस काम को अपनी मर्ज़ी से कर रही हैं. नेशनल सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन से जुड़ी आयशा का ही मामला ले लीजिये.

सांगली में रहने वाली आयशा अपनी मर्ज़ी से यह काम करती हैं. ग़रीबी की वजह से पश्चिम बंगाल के अपने गांव में यह काम करने लगी थीं. पति गुज़र गए थे. उनका बच्चा छोटा था. बाद में वह एक दोस्त के साथ सुरक्षित जगह की तलाश में आसनसोल चली आईं. इसके कुछ महीनों के बाद वह सांगली आ गईं. आयशा यहां के कुछ वेश्यालयों में काम करने लगीं. तब से उन्हें यहां काम करते हुए आठ साल हो गए हैं.

मौलिक अधिकार

अब उनके लिए सेक्स एक सर्विस की तरह है. एक लेन-देन की तरह. वैसा ही लेन-देन जैसे स्पा में किया जाने वाला मसाज. वर्षों से यौनकर्मियों की एक छवि गढ़ी जाती रही है. उन्हें मानसिक चोट, प्रताड़ना और शोषण का शिकार बताया जाता है या फिर 'बुरी औरत' को तौर पर पेश किया जाता है. एक कामगार के तौर पर उन्हें जो मौलिक अधिकार मिलने चाहिए, उसकी राह में यह गढ़ी हुई छवि अड़चन बन गई है.

सोनागाछीः रेड लाइट के बाद भी एक ज़िंदगी है...

लेकिन आयशा बहादुर हैं. आयशा और उनकी तरह दूसरी महिलाएं इस तरह के संकट झेलती रही हैं. वे कोरोना जैसे संकट को भी झेल लेंगी. सांगली में जहां वह रहती हैं वहीं अपने ग्राहकों को सर्विस देती हैं. लेकिन आयशा और उनकी सहकर्मियों के काम को कोरोनावायरस ने बुरी तरह प्रभावित किया है.

आयशा कहती हैं, "हमारे ज़्यादातर ग्राहक प्रवासी कामगार हैं. वे कर्नाटक जैसे राज्यों के रहने वाले हैं. हमें एक दिन में एक-दो ग्राहक ही मिलते हैं. और हम सेक्स के दौरान सावधानी भी बरतते हैं. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है."

जब लॉकडाउन लगा तो आयशा को यह समझ नहीं आया कि आगे क्या होगा. उन्होंने कोरोना वायरस संक्रमण के बारे में सुन रखा था. आयशा और उनकी साथी यौनकर्मी सावधानी भी बरत रही थीं.

आयशा कहती हैं, "हालात ने हमें सदमे में डाल दिया था. लेकिन हमने एक दूसरे की मदद की. हमने तय किया था कि हम भूख से नहीं मरेंगे. हमने मदद की गुहार लगाई".

वह कहती हैं, "लेकिन अब ब्यूटी पार्लर और स्पा खुल गए हैं. लोगों ने काम करना शुरू कर दिया है. हम कोविड-19 से मुक़ाबले के लिए तैयार हैं. इससे भी हम वैसे ही लड़ेंगे जैसे कोविड/एचआईवी के ख़िलाफ़ लड़े थे."

यौनकर्मियों की उम्मीद

इस बीच, महिला और बाल विकास कमिश्नर यशोध की ओर से महाराष्ट्र के सारे कलेक्टरों को पत्र भेजने के बाद आयेशा के संगठन ने दूसरे राज्यों के अधिकारियों से संपर्क करना शुरू कर दिया है. संगठन को उम्मीद है कि वहां भी यौनकर्मियों की मदद के लिए निर्देश जारी किए जाएंगे.

आयशा कहती हैं, "हम चाहते हैं कि हमें सर्विस प्रोवाइडर की मान्यता मिले".

पूरी दुनिया में यौनकर्मियों से जुड़े क़ानून स्पष्ट नहीं हैं. सरकार ने प्रवासी कामगारों और रेहड़ी-पटरी पर सामान बेचने वालों के लिए राहत योजनाओं का ऐलान किया है लेकिन यौनकर्मियों के लिए कोई पैकेज नहीं दिया गया है.

यौनकर्मी भी प्रवासी कामगार की तरह ही हैं लेकिन ज़रूरी सेवाओं और सूचनाओं तक उनकी पहुंच के रास्ते में कई अड़चनें हैं. उनकी राह में सामाजिक, सांस्कृतिक, क़ानूनी और भाषाई दिक्कतें रोड़ा बन जाती हैं.

भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं

भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं हैं. लेकिन वेश्यालय चलाना, सेक्स के लिए खुलेआम लुभाना या यौनकर्म से पैसा कमाने वाली महिला की आय पर अपनी जीविका के लिए निर्भर रहना गैरक़ानूनी है.

हाशिये के समुदायों के लिए काम करने वाली वकील आरती पई कहती हैं कि यौनकर्मियों के लिए महिला और बाल विकास कमिश्नर की ओर से लिखी गई चिट्ठी एडवाइजरी ही है लेकिन यह लीक से हट कर है. यह दो कैटेगरी में साफ़ अंतर करती है- एक कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है, जिनके इस पेशे में इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरी कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है जो अपनी मर्ज़ी में इस पेशे में आए हैं.

वह कहती हैं, "इस तरह की पहलक़दमियों से थोड़ा बदलाव तो आता ही है. यह बेहद अहम है क्योंकि यह पहल सरकार की ओर से हुई है. इसका मतलब यह है कि सामाजिक अधिकारों से जुड़ी सरकारी योजनाओं में यौनकर्मियों लिए निश्चित तौर पर जगह तय है."

परिवार का सहारा

इन यौनकर्मियों में ज़्यादातर महिलाएं अपने घर की मुखिया हैं और परिवार के लोग उनकी ही कमाई पर आश्रित हैं. कई यौनकर्मी महिलाएं कमाठीपुरा में कमरों का किराया देने में असमर्थ हैं. वहां एक बेड का किराया 250 रुपये है. अब वे यह जगह छोड़ने को विवश हैं.

कमाठीपुरा में इस वक्त साढ़े तीन हज़ार यौनकर्मी हैं. पूरे मुंबई के अलग-अलग हिस्सों में हज़ारों यौनकर्मी रहते हैं. इन यौनकर्मियों को राशन के साथ दवाइयों की भी ज़रूरत है. नाको (NACO) के निर्देश में कहा गया है कि नोडल एजेंसियों को उन तक दवाइयां और एंटी-रेट्रोवायरल (ART) दवाइयां पहुंचानी होगी.

कोरोना वायरस फैलने से पहले ही कमाठीपुरा छोड़ कर दूसरी जगह बस चुकी महिलाओं को ग्राहकों का इंतज़ार करते देखा गया था. वे अपने ग्राहकों को सर्विस देने के लिए यहां 50 रुपये या इससे ज़्यादा पर किराये पर कमरे लेती हैं. ग्राहकों को सर्विस देने के बाद आख़िरी लोकल से वे महानगर के दूसरे इलाक़ों में अपने घरों को लौट जाती हैं.

पिछले कई सालों से यहां से यौनकर्मियों का जाना जारी है. ट्रांसजेंडर (हिजड़े यौनकर्मी) यहां से जाने वाले शायद आख़िरी पेशेवर होंगे. लेकिन फ़िलहाल वे यहां लकड़ी से बनी ट्रेन के बर्थ जैसी कोठरियों में टिके हुए हैं.

लंबी राह

उनकी राह काफ़ी लंबी है. महिला और बाल विकास कमिश्नर ने कलेक्टरों को जो चिट्ठी लिखी है वह उनके अधिकारों की दिशा में एक क़दम भर है.लेकिन वे इस लड़ाई में टिके हुए हैं. जंग ने उन्हें मज़बूत कर दिया है.

निधि कहती हैं, "हमें किसी से डर नहीं लगता है. हम अपना परिवार चलाने के लिए यह काम करते हैं. अपना वजूद बचाए रखने के लिए हम यह काम कर रहे हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है."

"मैं याद करती हूं कि किस तरह वह अपने धर्म की पाबंद हैं. मैंने अक्सर उन्हें शुक्रवार की नमाज़ के लिए मस्जिद जाते देखा है. उनके छोटे देवी-देवता हैं. "

शबनम (बदला हुआ नाम) शाम को अपना काम शुरू करने से पहले अगरबत्ती जलाती हैं. वैसे ही जैसे कोई दुकानदार शाम को अपनी दुकान पर अगरबत्ती जलाता है.

इस काम की नैतिकता-अनैतिकता, इसके कलंक और ग़रीबी की बात छोड़ दीजिए. इसमें लगी महिलाओं का दावा है कि यह ईमानदारी का पेशा है. उन्होंने कभी अपना शरीर नहीं बेचा. सिर्फ़ उन ग्राहकों को अपनी सर्विस दी, जिन्होंने इसकी कीमत चुकाई.

वे इस काम में अपनी मर्ज़ी से हैं. निधि कहती हैं, "हम भी आपकी तरह एक कामगार हैं(bbc)

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