संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह सुशांत की मौत से उठे मुद्दों को लेकर है, उस मौत पर नहीं...
30-Aug-2020 9:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह सुशांत की मौत से  उठे मुद्दों को लेकर है,  उस मौत पर नहीं...

यूं तो सुशांत राजपूत की मौत के मामले में लोगों का पढऩे का बर्दाश्त खत्म हो चुका होगा, और हम इस मौत के बारे में लिख भी नहीं रहे, लेकिन इस मौत से जुड़े हुए जो इंसानी मिजाज सामने आ रहे हैं, हम उनके बारे में लिखना चाहते हैं जो कि किसी और केस में भी सामने आ सकते हैं। एक कामयाब सितारे की भूतपूर्व दोस्त या प्रेमिका, उसकी ताजा प्रेमिका, आसपास के लोग, और नाहक ही बदनाम किए जाने वाले गिद्धों की तरह मंडराने वाला मीडिया। इन सबको देखें तो लगता है कि लोगों को किसी प्रेमसंबंध में पडऩे के पहले, या किसी से दोस्ती करने के पहले बहुत सी बातों के बारे में सोचना चाहिए। वक्त निकल जाता है लेकिन बीते वक्त में दर्ज बातें टेलीफोन और कम्प्यूटर के तरह-तरह के रिकॉर्ड से कहीं नहीं निकल पातीं, और आगे चलकर वे सुबूत भी बन जाती हैं, और बदनामी की जड़ भी। 

सुशांत राजपूत के मामले को देखें, या इस किस्म के और बहुत से दूसरे चर्चित मामलों को देखें, तो यह समझ पड़ता है कि लोग अच्छे वक्त अपने करीबी लोगों पर भरोसा करके उनके साथ जिन बातों को बांटते हैं, वे बातें उन लोगों के चाहे-अनचाहे किसी भी दिन जांच एजेंसियों के हाथ लग सकती हैं, मीडिया के हाथ लग सकती हैं, और वे खुद भी दूसरे लोगों को इन्हें बांट सकते हैं। इसलिए अंतरंगता के दौर में अपनी नाजुक और कमजोर बातों को दूसरों के साथ बांटने के पहले सुशांत की मौत के मामले में जांच एजेंसी से निकलकर फैलने वाली बातों को भी देख लेना चाहिए, और टीवी पर इंटरव्यू देने के लिए बेताब करीबी लोगों को भी सुन लेना चाहिए। 

यह मौत बताती है कि किस तरह महीनों और सालों पहले के गड़े मुर्दों को उखाड़ा जा रहा है, और उखाड़ा जा सकता है। मीडिया आज उत्तरप्रदेश में इस कहानी की किरदार एक युवती के स्कूल तक पहुंच रहा है, और सुशांत की स्कूल तक भी जा रहा है। पिछले साल-छह महीने की घटनाओं से उपजी यह मौत आज जिंदगी की उतनी पुरानी कब्रों को भी खोद रही है। लोगों के फोन को जांच एजेंसियां परख रही हैं, और देश के कड़े कानून के मुताबिक महज सुबूत जुटाने के लिए, सुराग पाने के लिए कॉल रिकॉर्ड और मैसेज देखे जा सकते हैं, लेकिन आज तो जांच किसी किनारे पहुंची नहीं है, और इस मौत से जुड़े तमाम लोगों के एक-एक संदेश मीडिया में छप रहे हैं। एक बार कोई चर्चित हो जाए तो उसकी जिंदगी की निजता तो खत्म कर ही दी जाती है, उसके आसपास के लोगों के साथ भी यह सुलूक होता है। इसलिए चर्चित, या गैरचर्चित, आप जैसे भी हों, आपके आसपास के लोग जैसे भी हों, उनसे कुछ भी बांटते हुए यह कल्पना कर देखें कि वे बातें अगर पोस्टर बनकर सडक़ किनारे की दीवारों पर चिपक जाएंगी, तो आपका सुकून कितना बचेगा, कितना बर्बाद होगा। 

आज अगर कोई सभ्य या विकसित देश होता जहां देश के कानून की इज्जत होती, तो वहां यह सवाल भी उठता कि सुशांत के करीबी लोगों के दूसरे परिचित लोगों की जिंदगी की निजता को खत्म करने का हक जांच एजेंसियों को किसने दिया है, और मीडिया को किसने दिया है। आज ही एक दूसरी खबर यह कहती है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एनआईए के एक भूतपूर्व अफसर के खिलाफ जुर्म दर्ज हुआ है क्योंकि उसने अपने कामकाज के दौरान किसी भी केस से संबंध न रखने वाले किसी फोन नंबर के कॉल डिटेल्स निकलवाए थे जो कि कानून के तहत जुर्म है। आज जब यह खबर छप रही है उसी वक्त सुशांत राजपूत की मौत की जांच करती सीबीआई के अफसरों के नाम से मीडिया में ऐसे सवालों की लिस्ट छप रही है कि सीबीआई ने सुशांत की करीबी रही एक अभिनेत्री से क्या-क्या सवाल किए। एक बहुत बड़े मीडिया संस्थान के टीवी की आज की ही सुर्खी उसकी वेबसाईट पर टंगी है कि सीबीआई के किस सवाल से इस अभिनेत्री के माथे पर पसीना छलक आया! अब क्या सीबीआई चौराहे या फुटपाथ पर टीवी कैमरों के सामने पूछताछ कर रही है जिसमें सवाल से माथे पर आने वाले पसीने के दर्शन हो रहे हैं? यह पूरा सिलसिला बहुत ही घातक है। सार्वजनिक जीवन के चर्चित लोग कुछ सीमा तक तो अपनी निजता खो बैठते हैं, लेकिन उनके आसपास के लोग, और इन लोगों के पास-दूर के लोग, जितने लोगों की निजता खत्म हो रही है, वह पूरी तरह से गैरकानूनी काम है, जुर्म है, और हमारी समझ से अदालत उस पर सजा भी दे सकती है। 

इस मामले से जुड़े हुए जो कई पहलू आज फिर इस पर लिखने को बेबस कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा तो निजी संबंधों में राज बांटने का है। लोगों को इस मामले का हाल देखकर यह समझ लेना चाहिए कि उनका क्या हाल हो सकता है, उनके आसपास के लोगों का क्या हाल सकता है, अगर वे किसी जांच के घेरे के आसपास कुछ मील की दूरी तक भी दिखेंगे। यह सिलसिला खुद जांच एजेंसियों के सोचने का है कि उनके हवाले से किस तरह के राज छप रहे हैं, अगर वे सच हैं तो भी फिक्र की बात है क्योंकि किसी की निजी जिंदगी का भांडाफोड़ करने का हक कानून भी सीबीआई को नहीं देता। आज एनआईए के रिटायर्ड अफसर के खिलाफ जिस तरह का जुर्म दर्ज हुआ है, उसे भी जांच अफसरों को याद रखना चाहिए। मीडिया को भी यह सोचने की जरूरत है कि देश की प्रेस कौंसिल ने कल एक लंबा बयान जारी करके मौत के इस चर्चित मामले के कवरेज को लेकर मीडिया को उसकी जिम्मेदारी, और उसकी सीमाएं याद दिलाई हैं। 

हम इस मौत पर कुछ भी लिखना नहीं चाहते, लेकिन इस मौत से जो सवाल उठ रहे हैं, उन सवालों की चर्चा इसलिए जरूरी है कि इनमें से एक या कई सवाल बहुत से दूसरे मामलों को लेकर भी उठने की नौबत आ सकती है, और वह न आए तो बेहतर होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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