संपादकीय
एक अमरीकी प्राध्यापक और विज्ञान कथा लेखक इसाक एसिमोव के लिखे या कहे हुए वाक्य अक्सर इधर-उधर उनके नाम के साथ दिखते हैं, और चोरी के शौकीन लोग उनकी कही बातों को अपने नाम के साथ भी खपाते रहते हैं। उन्होंने करीब पांच सौ किताबें लिखी हैं, या संपादित की हैं, और उनकी लिखी हुई करीब 90 हजार चिट्ठियां प्रकाशित हैं। अमरीका में पढ़ाने वाले इस रूसी मूल के विज्ञान-शिक्षक का लिखा हुआ एक वाक्य आज फिर हमारी नजरों के सामने आया है। उन्होंने लिखा था- जिंदगी का सबसे दुखद पहलू यह है कि विज्ञान इतनी रफ्तार से ज्ञान जुटा लेता है, जिस रफ्तार से समाज समझ नहीं जुटा पाता।
हम इस अखबार में और इसके अलग-अलग कॉलम में पहले भी कई बार ज्ञान और समझ को लेकर लिख चुके हैं। बहुत से लोग बहुत पढ़े-लिखे लोगों को ज्ञानी मान लेते हैं, और फिर ज्ञानियों को समझदार मान लेते हैं। इन दोनों का जाहिर तौर पर कोई रिश्ता नहीं होता है। दुनिया के अलग-अलग लाखों आदिवासी इलाकों में बसे हुए लोगों में बहुत सी जातियां ऐसी हैं जिन्होंने पढ़ा कुछ भी नहीं क्योंकि वे अशिक्षित हैं, और शहरी जुबान में कहें तो वे ज्ञान से दूर हैं। लेकिन उनकी समझ किसी भी शहरी की समझ के मुकाबले अधिक तगड़ी या अधिक इंसाफपसंद हो सकती है, आमतौर पर होती है। वे कुदरत और दूसरे प्राणियों के लिए रहमदिल होते हैं, और प्राकृतिक न्याय पर अपार भरोसा भी करते हैं, अमल भी करते हैं। अपनी जरूरत से अधिक इकट्ठा नहीं करते हैं, और दूसरा को देखकर किसी हीनभावना या भड़ास में भी नहीं जीते हैं। अपनी महिलाओं को शहरियों के मुकाबले अधिक बराबरी का दर्जा देते हैं। वे शहरी ज्ञान से दूर हैं, लेकिन गहरी समझ से लैस हैं।
इस बुनियादी समझ के साथ इस मुद्दे से थोड़ा हटकर सोचें तो आज की शहरी और आधुनिक दुनिया में ऐसी बहुत सी चीजें हो रही हैं जो कि अपनी जरूरत से खासी अधिक रफ्तार से घट रही हैं। एक वक्त लोगों के पास, खासकर संपन्न लोगों के पास एक रिकॉर्ड प्लेयर होता था, और गिने-चुने रिकॉर्ड होते थे। घर के लोग इक_े होकर, या मेहमान के आने तक कोई रिकॉर्ड बजाते थे, और तीन मिनट तक सारे लोग ध्यान से उस संगीत को सुनते थे। जाहिर है कि जब सब एक साथ सुनते थे, तो उसके बाद उस पर चर्चा भी करते थे। अब एक माइक्रोचिप में कई घंटों का संगीत आ जाता है, या कई दिनों तक लगातार अलग-अलग बजने वाला संगीत आ जाता है, लेकिन लोगों का सुनना कम हो गया है। पहले लोगों के पास गिनी-चुनी किताबें रहती थीं, और एक-दूसरे से लेन-देन करके भी पढ़ते थे, आज इंटरनेट पर लाखों-करोड़ों किताबें मुफ्त में हासिल हैं, लोग छोटे से किंडल पर हजारों किताबें लेकर उसे जेब में डालकर चलते हैं, लेकिन पढऩा कम हो गया है। ठीक उसी तरह ज्ञान बढ़ते चल रहा है, विज्ञान बढ़ते चल रहा है, लेकिन उसके साथ उस अनुपात में समझ नहीं बढ़ रही है। आज लोग बिना समझे हजारों तस्वीरें, सैकड़ों वीडियो, और लाखों पन्ने कम्प्यूटर पर सेव कर लेते हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल घट गया है।
आज ही एक बहुत पुरानी तस्वीर सैकड़ों बार नजरों के सामने से आने के बाद एक बार फिर सामने आई। एक जापानी बच्चा खड़ा हुआ है, और उसकी पीठ पर उसके छोटे भाई की लाश टंगी हुई है। वह जापान के नागासाकी का बच्चा है, और अमरीका द्वारा वहां पर गिराए गए हाइड्रोजन बम से मारे गए लोगों में से एक यह छोटा बच्चा भी था। अपने छोटे भाई की लाश को लिए हुए वह अंतिम संस्कार के लिए एक लंबा सफर कर रहा है। इस उम्र में अगर यह जापानी बच्चा पढ़ा भी होगा, तो भी बहुत अधिक नहीं पढ़ा होगा। और अमरीका के बड़े-बड़े वैज्ञानिक जिन्होंने हाइड्रोजन बम बनाया, जिन्होंने हवाई जहाज से लेकर उस बम को जापान पर गिराया, और अमरीकी सरकार में बैठे हुए लोग जिन्होंने इस हमले का फैसला लिया, वे तमाम लोग तो इस जापानी बच्चे के मुकाबले हजार-लाख गुना अधिक पढ़े हुए होंगे, लेकिन उन अमरीकियों की समझ महज इतनी थी कि उन्होंने बम बनाया, गिराने का फैसला लिया, जाकर गिराया, और लाखों को मार डाला। दूसरी तरफ यह बच्चा अपने बचपन में ही अपने छोटे भाई के अंतिम संस्कार के लिए उसकी लाश पीठ पर बांधे हुए एक लंबे पैदल सफर पर निकला हुआ है। इस बच्चे की हालत को देखें, उसकी दिमागी हालत को देखें तो दिल हिल जाता है। उसकी समझ इतनी गजब की है कि वह छोटे भाई के एक उचित अंतिम संस्कार का जिम्मा भी इतनी जिम्मेदारी के साथ उठा रहा है। तो पश्चिम का वह ज्ञान कहां काम आया, और जापान के इस बच्चे की बिना ज्ञान की समझ किस हद तक काम आ रही है, कितनी बड़ी मिसाल का इतिहास दर्ज कर रही है, यह सोचने लायक है।
ज्ञान एक अहंकारी शब्द हो गया है, अहंकार हो गया है, बददिमाग हो गया है, और हमलावर हो गया है, वह बेइंसाफ भी हो गया है, बेरहम तो है ही। दूसरी तरफ इस ज्ञान की किसी भी जरूरत के बिना समझ एक ऐसा छोटा सा आसान शब्द है जो कि ऊपर लिखे गए ज्ञान के तमाम विशेषणों से दूर है। लोग आम बोलचाल की जुबान में कहते हैं- पढ़े-लिखे समझदार हो, फिर भी ऐसी बात कहते हो। जबकि ये दो बातें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, पढ़ा-लिखा होना और समझदार होना इनका कोई रिश्ता नहीं है। आज जब लोग अपने बच्चों को यह दुआ देते दिखते हैं कि खूब पढ़ो-लिखो, खूब कामयाब बनो, तो थोड़ी सी हैरानी भी होती है कि क्या समझदारी की बात यह नहीं हुई होती कि खूब समझदार बनो, खूब अच्छे इंसान बनो?
ज्ञान को नापना-तौलना कुछ आसान है। लोग किसी के बारे में उसका ज्ञान बताते हुए आसानी से गिना सकते हैं कि उसने कौन-कौन सी डिग्रियां हासिल की हैं। हिन्दुस्तान के एक नेता श्रीकांत जिचकर के बारे में कहा जाता है कि वे देश में सबसे अधिक डिग्रियां पाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने विश्वविद्यालयों की 42 परीक्षाओं में शामिल होकर 20 डिग्रियां हासिल की थी, और देश में सबसे कमउम्र, 26 बरस में विधायक बनने वाले व्यक्ति थे। उनकी डिग्रियों की लंबी लिस्ट देखने लायक है। ज्ञान का ऐसा मूर्त रूप होता है कि उसे गिना, नापा, तौला जा सकता है। दूसरी तरफ समझ एक अमूर्त चीज होती है। लोगों को यह आसानी से पता ही नहीं चलता कि दूसरे कौन लोग कितने समझदार हैं, या खुद कितने नासमझ हैं। इसलिए यूनिवर्सिटी की डिग्री का महत्व अधिक मान लिया जाता है क्योंकि वह आंखों से दिखती है, लेकिन लोगों की समझदारी का महत्व नहीं माना जाता क्योंकि वह आंखों से परे की बात रहती है।
आज ज्ञान-विज्ञान छलांग लगा-लगाकर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन लोगों की समझ, लोगों के सरोकार, अंग्रेजी में कहें तो लोगों की विज्डम की रफ्तार बड़ी धीमी है, इससे होता यह है कि जिस तरह किसी नौसिखिए मोटरसाइकिल-चालक के हाथ अंधाधुंध रफ्तार की मोटरसाइकिल लग जाए और उसे अंधाधुंध ट्रैफिक के बीच चलाना पड़े, उसी तरह ज्ञान-विज्ञान के औजार-हथियार इतनी तेजी से आ रहे हैं कि उन्हें इस्तेमाल करना सीखने का भी मौका लोगों के पास नहीं है। नतीजा यह है कि समझ ज्ञान से 20 स्टेशन पीछे चल रही है। एक और अजीब सी दिक्कत यह भी है कि अंग्रेजी की कई डिक्शनरियों में विज्डम की परिभाषा में ज्ञान को भी जोड़ लिया गया है, और कई लोग इन दोनों को एक-दूसरे का विकल्प इसलिए भी मान बैठते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)