संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने परिवार के बाकी लोगों को जिंदा रहने दें
11-Sep-2020 8:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अपने परिवार के बाकी  लोगों को जिंदा रहने दें

लॉकडाऊन का दौर खत्म होने के बाद अब करीब पूरे ही देश में जिंदगी को वापिस शुरू करने की हड़बड़ी शुरू हो गई है ताकि जिंदा रहा जा सके। देश-प्रदेश की सरकारें ऐसी हों जो लोगों की तकरीबन तमाम जरूरतों को पूरा कर सके, तब तो आम जनता बाराती बनकर मुफ्त में जीने को बुरा नहीं मानेगी, लेकिन सरकार भूख से मरने से बचाने के लिए मुफ्त राशन तक दे रही है, बाकी कुछ भी मुफ्त नहीं है। बैंक से कर्ज लेकर कारोबार करने वाले लोगों के सिर पर ब्याज पर ब्याज का खतरा टंगा हुआ है, और किसी कारोबार का तजुर्बा न होने पर भी सुप्रीम कोर्ट इसे नाजायज मान रहा है, सरकार पर दबाव डाल रहा है कि लोगों को लॉकडाऊन के दौर के ब्याज से भी छूट दी जानी चाहिए, ब्याज पर ब्याज को तो सुप्रीम कोर्ट नाजायज मान ही रहा है। लेकिन सरकारें एक सीमा से अधिक कोई मदद किसी की कर नहीं रही हैं। अब तो कोरोना के चलते हालत यह है कि सरकार लोगों को अपनी अस्पतालों और अपने बनाए हुए दूसरे डेरों में भी नहीं टिका रही, लोगों को उनके घर पर ही रहने दे रही है। 

हिन्दुस्तान में आज शायद एक दिन में बढऩे वाले पॉजिटिव की गिनती एक लाख पार कर जाए। और सरकार इसी बात को एक बड़ी राहत मान रही है कि देश में संक्रमित लोगों के बढऩे की संख्या के मुकाबले ठीक होने वाले लोगों की संख्या अधिक तेजी से बढ़ रही है। हालांकि हमें इन आंकड़ों पर धेले भर का भी भरोसा नहीं है क्योंकि जब कोरोना शुरू हुआ उस वक्त तो कोरोना पॉजिटिव लोगों को 15 दिन अस्पताल में रखने का नियम था, और तीन दिनों के फासले में दो बार निगेटिव आ जाने के बाद ही उन्हें अस्पताल से छोड़ा जा रहा था। अब तो हालत यह है कि तीन दिन-चार दिन में लोगों को अस्पतालों से छोड़ दिया जा रहा है। कोरोना को लेकर ऐसी तस्वीर बनाई गई है कि जब तक कोई बड़ी तकलीफ न हो, अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत नहीं है, और लोग घर पर ही रह सकते हैं, इसलिए बहुत से लोग तो मामूली लक्षण होने पर भी जांच से कतरा रहे हैं जिसकी कतारें बहुत लंबी हैं, और जिसके नतीजे दस-दस दिन तक नहीं आ रहे हैं। इसलिए आंकड़ों के हुनर की बाजीगरी जानने वाली सरकारें किस तरह आंकड़ों से एक झूठी तस्वीर भी पेश कर सकती हैं, यह सब लोग जानते हैं। पश्चिम के एक बड़े नेता ने एक वक्त कहा था कि दुनिया में झूठ तीन किस्म के होते हैं, झूठ, सफेद झूठ, और आंकड़े। इसलिए हिन्दुस्तान में जीडीपी के आंकड़े, नोटबंदी के आंकड़े, जीएसटी के आंकड़े, नेशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़े, कुछ भी भरोसेमंद नहीं है, और इनमें से जो कुछ भरोसेमंद हैं, सरकारें उन्हें अपने काबू से बाहर नहीं निकलने देती हैं। इसलिए हमारा यह मानना है कि कोरोना के संक्रमण से ठीक होने के आंकड़े बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं क्योंकि कोरोना से ठीक होने का पैमाना ही बदल दिया गया है। ऐसे में लोगों को कोरोना के खतरे को सरकारी दावों से परे खुद भी समझना चाहिए। और कोरोना काबू में होने के सरकारी दावे करने वाले नेताओं को देखें, उन्हें बिना मास्क लगाए हुए भीड़ के बीच घिरे हुए देखें, तो समझ पड़ता है कि उनके मन में सावधानी के लिए कितना सम्मान है। 

आज हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में हालत बहुत खराब सुनाई पड़ रही है। जिस तरह दो नंबर के कारोबार  के अकाऊंटेंट आंकड़ों को तोड़-मरोडक़र टैक्स चोरी का इंतजाम करते हैं, कमाई को छुपा लेते हैं, कुछ उसी किस्म का काम सरकारें भी कर रही हैं। अभी-अभी अमरीका में एक किताब में यह दावा किया गया कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने सोच-समझकर कोरोना के खतरे को हकीकत के मुकाबले घटाकर पेश किया था। किसी भी देश-प्रदेश की सरकार ऐसा ही करती है, और जो सरकारें अपनी इस हरकत को मानती भी हैं, वे भी उसे जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए जनहित में की गई कोशिश करार देती हैं। ऐसे में जनता को अपनी सेहत खुद ही बचाकर रखना चाहिए, लेकिन वह बात दूर-दूर तक देखने नहीं मिल रही है। 

आज जिस तरह से देश भर में जिंदगी को वापिस जिंदा करने के नाम पर स्कूल-कॉलेज शुरू किए जा रहे हैं, वह एक निहायत ही बेवकूफी का दुस्साहस है जिसकी बहुत बड़ी कीमत पूरे देश को देनी पड़ सकती है। आज जब इन बच्चों के मां-बाप बाजार में बिना मास्क घूमते हैं, शराब दुकानों पर घंटे-घंटे भर धक्का-मुक्की करते हैं, तब इन बच्चों के सामने सावधान रहने की कौन सी मिसाल रहेगी? कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकते हैं कि महीनों बाद मिलने वाले बच्चे एक-दूसरे से दो मीटर की दूरी पर रहेंगे, एक-दूसरे को नहीं छुएंगे, खाते वक्त एक-दूसरे से दूर रहेंगे। ये बच्चे किसी फौज की जिंदगी में ढले हुए नहीं हैं कि वे विपरीत परिस्थितियों में भी नियमों को मानें। ये बच्चे अपने लापरवाह मां-बाप, लापरवाह बुजुर्ग, लापरवाह नेता देखते आ रहे हैं, और वही मिसाल उनके सामने है। सरकारें कोरोना के बढ़ते हुए कर्व के बीच स्कूल-कॉलेज शुरू करके एक बहुत बड़ा खतरा मोल ले रही हैं। आज किसी भी आम डॉक्टर से भी पूछा जाए, तो वे स्कूल-कॉलेज के फैसले से बहुत ही गैरजिम्मेदारी का बताएंगे। 

लेकिन लोग इस हद तक लापरवाह हैं, बाजारों में रात 8 बजे अगर चाट ठेले बंद करवाए जा रहे हैं, तो उसके ठीक पहले लोग उन पर टूट पड़ रहे हैं कि मानो वह सुबह अस्पताल जाने के पहले की आखिरी चाट होने जा रही है। यह समाज परले दर्जे का गैरजिम्मेदार है, और हिन्दुस्तान में नियमों की कोई इज्जत नहीं है। और सरकारों का हाल यह है कि वे कोरोना से कम डरी हैं, वे वोटरों की नाराजगी से ज्यादा डरी हुई हैं, और इसलिए वे एक लुभावनी-अनदेखी,  और सोची-समझी लापरवाही पर आमादा हैं। हम अब मास्क न लगाने पर होने वाले जुर्माने की बात भी नहीं पढ़ पा रहे हैं, जबकि यह एक आसान काम हो सकता था, बिना मास्क लोगों की गाडिय़ों की भी जब्ती हो सकती थी, लेकिन सरकारें वोटरों को खुश रखना चाहती हैं, फिर चाहे उसमें कोरोना की खुशी भी शामिल क्यों न हो जाए। 

सभी लोगों के लिए आज हम यही सलाह दे सकते हैं कि अधिक से अधिक सावधान रहें, कम से कम बाहर निकलें, बाहर का बिल्कुल भी न खाएं-पिएं, लोगों से दूर रहें, और अपने परिवार के बाकी लोगों को जिंदा रहने दें।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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