संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दाखिला-परीक्षाओं के तनाव में आत्महत्याएं, और दूसरी संभावनाएं..
13-Sep-2020 5:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दाखिला-परीक्षाओं के  तनाव में आत्महत्याएं, और दूसरी संभावनाएं..

तस्वीर / इंडियन एक्सप्रेस

हिन्दुस्तान में मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा एनईईटी (नीट) के ठीक एक दिन पहले तमिलनाडू में तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इनका इम्तिहान अभी होना ही था, उसके पहले आत्महत्या से कुछ अलग-अलग सवाल उठते हैं। एक तो राष्ट्रीय स्तर का यह मुकाबला इतना बड़ा और इतना कड़ा है कि यह अच्छी खासी तैयारी करने वाले लोगों के मन में भी दहशत पैदा करता है। सिर्फ यही इम्तिहान नहीं, ऐसे बहुत से दाखिला इम्तिहान हैं जिनकी तैयारी करते हुए हर बरस कई छात्र-छात्राएं राजस्थान के कोटा में आत्महत्या करते हैं, और देश भर में शायद पढ़ाई के मुकाबलों में आत्महत्या करने वाले सैकड़ों में हो जाते हैं। आत्महत्या करने वाले तो पुलिस के रिकॉर्ड में आने की वजह से एक ठोस खबर बनते हैं, और दिखते हैं, लेकिन आत्महत्या की कगार पर पहुंचे हुए लोग जिस तरह के मानसिक अवसाद के शिकार होते हैं, उनकी कोई गिनती कभी सामने आती नहीं हैं। इस बरस कोरोना और लॉकडाऊन की वजह से, पढ़ाई न हो पाने की वजह से निराश छात्र-छात्राओं की संख्या काफी अधिक है, और सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षाएं आगे बढ़ाने से इंकार करके एक बड़ा गलत फैसला दिया है जिससे संपन्न परिवारों के बच्चे तो तैयारी कर पाएंगे, लेकिन गरीब परिवारों के बच्चों की तैयारी पिछड़ जाना तय है। 

अब देश कई अलग-अलग किस्म के दाखिला-इम्तिहानों से खिसकते हुए अब राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कुछ परीक्षाओं पर पहुंच गया है जिनमें कई राज्यों के बच्चों का पिछड़ जाना तय है क्योंकि वहां विकसित राज्यों के मुकाबले पढ़ाई का स्तर नीचा है। लेकिन क्या हर राज्य के बच्चों का अलग-अलग अधिकार नहीं होना चाहिए? यह एक बुनियादी सवाल धरा रह जाता है जब दाखिला-इम्तिहान की सोच ही गड़बड़ लगती है। आज पूरे देश में बचपन से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई के नंबर धरे रह जाते हैं, और दाखिला-इम्तिहान ही मायने रखते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चे स्कूल-कॉलेज की नियमित पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते, और सिर्फ मुकाबलों की तैयारी करने में लगे रहते हैं। मानो जिंदगी में मकसद पढ़ाई नहीं, मुकाबला है। इससे देश भर में पढ़ाई की ओर लोगों का रूझान घटते जा रहा है क्योंकि पढ़ाई के नंबर आगे के ऐसे किसी बड़े मुकाबले में काम नहीं आते, वहां पहुंचने पर कोटा जैसे दाखिला-उद्योग की सेवाएं खरीदना ही काम आता है। चूंकि यह पूरी व्यवस्था समाज की आर्थिक असमानता पर पूरी तरह टिकी हुई है, इसलिए भी बहुत से बच्चे आत्महत्या की कगार पर पहुंचते हैं, क्योंकि वे गरीब तबकों से आते हैं। 

अब कुछ देर के लिए दाखिला-इम्तिहानों, और उन पर आधारित पढ़ाई को छोड़ दें, और यह चर्चा करें कि बरसों की तैयारी के बाद जो बच्चे इन इम्तिहानों में सीटों की गिनती तक नहीं पहुंच पाते, उनके लिए क्या बच जाता है? उनमें से बहुत से दूसरे छोटे इम्तिहानों से गुजरते हुए कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले कॉलेजों तक पहुंचते हैं, कोई दूसरी पढ़ाई करते हैं, और बेरोजगार के कॉलम में किसी दूसरी केटेगरी में दर्ज हो जाते हैं। 

क्या हिन्दुस्तान में सोच में एक बुनियादी फेरबदल की जरूरत नहीं है कि गिनी-चुनी सीटों के लिए देश की इतनी बड़ी आबादी को, नौजवान पीढ़ी के एक बड़े हिस्से को एक अंतहीन मुकाबले में न झोंका जाए, और उन्हें कोई दूसरी राह भी सुझाई जाए? क्या गिने-चुने अधिक लोकप्रिय कोर्स छोडक़र जिंदगी में स्वरोजगार की कोई ऐसी तैयारी करवाई जा सकती है जिससे लोग बिना किसी मुकाबले अपने-अपने दायरे में अपने-अपने हुनर, और अपनी-अपनी काबिलीयत का काम कर सकें, और गुजारा चला सकें? यह बात सोचना इसलिए भी जरूरी है कि कुछ चुनिंदा कॉलेज नौजवान बच्चों की महत्वाकांक्षा का केन्द्र बन जाते हैं, और वे उनसे परे कुछ नहीं देख पाते। होना तो यह चाहिए कि ग्रामीण उद्योग, कुटीर उद्योग, खेती पर आधारित कई दूसरे किस्म के काम, शहरों में सर्विस देने के कई तरह के मरम्मत के काम, इन सबके लिए हुनर सिखाने के आगे का इंतजाम भी करना चाहिए ताकि लोगों को हुनर सीखने के बाद काम मिल सके। आज हिन्दुस्तान में कौशल विकास की योजना की बड़ी चर्चा होती है, लेकिन कोई कौशल सीख लेने के बाद उससे रोजी-रोटी तक पहुंच पाना कम ही लोगों के लिए हो पा रहा है। दूसरी तरफ शहरी जिंदगी में ऐसे हुनरमंद लोगों की जरूरत हमेशा ही बनी रहती है जो कि संपन्न तबके या उच्च-मध्यम वर्ग के लिए तरह-तरह के काम कर सकें। 

सरकारों को अलग-अलग अकेले हुनर की ट्रेनिंग से परे भी कई और बातें सोचनी चाहिए जिससे देश की गिनी-चुनी परीक्षाओं में लगने वाली अंतहीन भीड़ को घटाया जा सके। आज जिस डेंटल पढ़ाई के लिए देश भर में दसियों लाख बच्चे मुकाबला करते हैं, वे डेंटिस्ट महीने में 10-15 हजार रूपए भी नहीं कमा पाते जबकि एक मामूली बिजली मिस्त्री उनसे ज्यादा कमा लेता है। हिन्दुस्तान में हुनर की ट्रेनिंग, और हुनर की जरूरत के बीच एक रिश्ता बनाने की जरूरत है जो कि कुछेक मोबाइल एप्प कर भी रहे हैं। इस काम को और बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि लोग कमा सकें, और तरह-तरह के हुनर सीखने की तरफ जा सकें। आज औसत पढ़ाई वाले छात्र-छात्राओं को जब देश के सबसे कड़े मुकाबलों का सपना दिखाया जाता है, मां-बाप भी बच्चों से अपनी उम्मीदें ऐसी ही बड़ी पाल लेते हैं, तो फिर कुछ बच्चे आत्महत्या करते हैं, उनसे हजारों गुना बच्चे मानसिक अवसाद में जीते हैं, और वे अपनी काबिलीयत और समझ के किसी मुकाम तक पहुंच नहीं पाते। 

इसलिए देश की सोच में इस फेरबदल की जरूरत है कि देश को इस पढ़ाई, ट्रेनिंग, और हुनर के कितने लोग चाहिए, और उस हिसाब से ही पढ़ाई, प्रशिक्षण, और मुकाबला होना चाहिए। इस मामले में केरल की मिसाल दी जानी चाहिए जो कि न केवल देश में बल्कि खाड़ी के देश और दूसरे देशों तक की जरूरतों के मुताबिक अपनी नौजवान पीढ़ी को तैयार करता है, और जहां के लोग सात समंदर पार जाकर भी आसानी से रोजगार पाते हैं, और कमाई भेजकर अपने प्रदेश को संपन्न भी करते हैं। हमारी बात समझने के लिए किसी अंतरिक्ष विज्ञान की जरूरत नहीं है, बाकी राज्य केरल को ही देख लें, तो वे अपने लोगों में बेरोजगारी खत्म कर सकते हैं, और लोग दाखिला-मुकाबलों के बजाय कुछ दूसरे रास्ते भी समझ सकते हैं। फिलहाल हमारी बात दाखिला-इम्तिहान से शुरू होकर स्वरोजगार की ट्रेनिंग की केरल मॉडल तक पहुंची है, लोग अपनी पसंद और जरूरत के पहलू यहां से उठाकर उन पर चर्चा कर सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news