विचार / लेख

रघुवंश बाबू का जाना...
13-Sep-2020 7:29 PM
रघुवंश बाबू का जाना...

-समरेन्द्र सिंह
दो दिन पहले रघुवंश बाबू के एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। उनके पत्रकार मित्र मेरे भी मित्र हैं। मैंने ऐसे ही कहा कि राजद ने उनके साथ भी बुरा किया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। उन्होंने कहा ये फालतू की बात है। वो चिट्ठी  उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी है। वह चिट्ठी  लिखवाई गई है। मैंने पूछा कि क्या वो नाराज नहीं थे? उन्होंने कहा कि थोड़ा नाराज तो थे। उनकी उपेक्षा तो हो ही रही थी। पार्टी के फैसलों में उनकी कोई पूछ नहीं थी। राज्यसभा भी किसी और को भेज दिया। लेकिन फिर भी वो चिट्ठी लिखने के पक्ष में नहीं थे। दरअसल, वो गंभीर रूप से बीमार हैं और उनके बचने की उम्मीद बहुत थोड़ी है। मृत्यु के करीब खड़े एक व्यक्ति को भावनात्मक तरीके से ब्लैकमेल करके चिट्ठी  लिखवाई गई है। राजनीति के ऐसे अनेक चेहरे हमने देखे हैं। यहां सिर्फ जिंदगी की ही नहीं, मौत का भी सौदा होता है। रघुवंश बाबू ने अपनी जिंदगी लालू यादव के नाम की थी, समाजवादी सिद्धांतों के नाम की थी और अपनी मृत्यु परिवार के नाम कर गए।

रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू प्रसाद यादव दोस्त थे। दोस्ती का सीधा संबंध ईमान से होता है। जिस रिश्ते में ईमान नहीं हो, निश्छलता नहीं हो वह और कुछ भी हो सकता है मगर दोस्ती नहीं हो सकती। दोस्त से झगड़ा भी हो जाए तो भी अहित करने का ख्याल नहीं आता है। इसलिए रघुवंश बाबू ने वह चिट्ठी लिखी होगी तब वह कितने बेबस होंगे, कितने मजबूर होंगे, यह सोचा और समझा जा सकता है।

आप उस खत की भाषा देखिए। वह कितनी मर्यादित है। न कोई लांछन है। ना ही कोई शिकायत। बस इतना कि अब साथ नहीं चल सकते और उन लोगों से माफी है जो उनकी दोस्ती और सफर के साक्षी थे।

वो संबंध कितना खूबसूरत होगा कि उसे तोड़ते वक्त भी मर्यादाओं की सीमा याद रह जाए और दोनों तरफ से कोई... वो सीमा पार न कर सके। प्रेम, बंधुत्व और वैचारिक आधार पर बने संबंध ऐसे ही होते हैं। उनमें आह और आंसू के साथ एक मुस्कान भी छिपी होती है। बीते हुए लम्हों की खुशनुमां यादें गुदगुदाती रहती हैं। टूटते वक्त भी बहुत कुछ जोड़े रखती हैं।

ऐसे मर्यादित व्यक्ति की मजबूरी का लाभ उठाने वाले कितने लोभी और मौकापरस्त इंसान होंगे ये अंदाजा भी लगाया जा सकता है। वैसे सियासत में लोभी और मौकापरस्त लोगों की भरमार है। नैतिक और सामाजिक मूल्य कोई अहमियत नहीं रखते। इन मूल्यों को कचरे की पेटी में डाल दिया गया है।

आजाद हिंदुस्तान में गरीबों के लिए दो योजनाएं सबसे चर्चित रही हैं। मनरेगा और मिड डे मील। यह बहस हो सकती है और होनी भी चाहिए कि अतीत में हमने ऐसी क्या तरक्की की, जब हमें मनरेगा जैसी स्कीम लागू करनी पड़े। 2.5-3 रुपये वाली वाली मिड डे मील जैसी योजना चलानी पड़े। लेकिन यह बहस नहीं हो सकती है कि इन योजनाओं से लाभ हुआ है या नहीं हुआ है। यकीनन लाभ हुआ है। करोड़ों परिवारों और करोड़ों बच्चों की सेहत में सुधार भी हुआ है। इनमें से मनरेगा को लागू करने का श्रेय रघुवंश बाबू को जाता है। ऐसी सोच उनके जैसे ही किसी शख्स की हो सकती है, जिसका दिल करुणा और ममत्व से भरा हुआ हो। रघुवंश बाबू अपने दौर के सबसे ईमानदार और प्रतिबद्ध नेताओं में शामिल रहे। नेताओं की यह नस्ल अब समाप्त होने को है।

लालू यादव जी ने अपने दोस्त को अलविदा कहते हुए कहा है कि वो बहुत याद आएंगे। दोस्तों को तो याद रहेंगे इसमें कोई शक नहीं। लेकिन यह जमाना उन्हें बहुत दिन याद रखेगा, इसमें संदेह है। जहां महात्मा गांधी जैसे लोगों को खलनायक बनाकर पेश किया जाता हो, वहां रघुवंश बाबू को भला कौन और कितने दिन याद रखेगा!

लेकिन जिसने जिंदगी अपनी शर्तों पर जी हो, जो सियासत में रहते हुए भद्दे, ओछे और क्रूर सियासी रीति-रिवाजों से बेपरवाह रहा हो ... कोई याद रखे या नहीं रखे उसे इससे फर्क ही कहां पड़ेगा! वो मस्त हवा का एक झोंका था, जो करोड़ों लोगों की जिंदगी में बहार बन कर आया, कुछ पल ठहरा, मुस्कान बिखेरी और चला गया।
अलविदा रघुवंश बाबू! अलविदा! आपको मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!!

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