विचार / लेख
वीडी सावरकर
...जिसे खुद भी सामान्य अर्थों में धर्म नहीं कहा जा सकता
- अशोक वाजपेयी
साधन और सच्चाई
इसमें कोई सन्देह नहीं कि सच्चाई को जानने, दर्ज़ करने और समझने के साधन बहुत बढ़ गये हैं. गतिशीलता भी बहुत बढ़ गयी है. हम चाहें तो बहुत तेज़ी से जान सकते हैं. लेकिन इसके साथ-साथ हमें सच्चाई से विरत करने वाले, हमें भटकाने वाले, हमें सच्चाई के बजाय झूठ बताने वाले साधन भी बहुत बढ़ गये हैं. जो साधन सच्चाई तेज़ी से बताते हैं वही साधन हमें उतनी ही तेजी से झूठ भी दिखा-समझा सकते हैं, रहे हैं. सच और झूठ के बीच जो पारम्परिक स्पर्धा रही है वह हमारे समय में बहुत तीख़ी, तेज़ और कई बार निर्णायक हो गयी है. कई बार तो सच्चाई हम तक पहुंच ही नहीं पाती क्योंकि उसी साधन से अधिक तेज़ी और आक्रान्ति से झूठ पहले आकर बैठ और पैठ जाता है.
यह अद्भुत समय है जब ज़्यादातर झूठ सच्चाई की शक्ल में पेश हो रहा है और उसे मान लेने वाले किसी बेचारगी से नहीं, बहुत उत्साह से ऐसा कर रहे हैं. कई बार लगता है कि सच्चाई जानने-फैलाने के सभी साधन झूठ और फ़रेब ने हथिया लिये हैं और उनसे सच्चाई लगातार अपदस्थ हो रही है. अगर संयोग से एकाध सच्चाई सामने आ भी जाये तो फ़ौरन ही उस पर इतनी तेज़ी से, पूरी अभद्रता और अश्लीलता से, हमले होते हैं कि एक सुनियोजित और बेहद फैला दिया झूठ सच्चाई को ओझल कर देता है. यह नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि अब जितनी तेज़ी से भक्ति फैलती है उतनी तेज़ी से घृणा भी. हम इस समय भक्ति और घृणा के अनोखे गणतन्त्र बन रहे हैं.
सच्चाई से ध्यान हटाने का एक और बेहद कारगर उपाय इन दिनों इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपना रहा है. वह असली मुद्दों को दरकिनार करने के लिए हास्यास्पद ढंग से ग़ैरज़रूरी मुद्दों पर इस क़दर बहस करता, चीखता-चिल्लाता है कि करोड़ों दर्शकों को यह याद भी नही रहता कि हमारे जीवन, समाज और देश के असली विचारणीय और परेशान करने वाले मुद्दे क्या हैं? हमारी आर्थिक व्यवस्था लगभग पूरी तरह से बर्बाद हो गयी है. हमारी शिक्षा व्यवस्था गम्भीर संकट में हैं. हमारी सीमाओं पर चौकसी में कुछ कमी रही है कि चीन ने इतनी घुसपैठ कर दी है और वहां से हटने को तैयार नहीं हो रहा है. कोरोना महामारी के चलते भारत में, दुनिया में सबसे ज़्यादा दैनिक नये मामले सामने आ रहे हैं और उनकी संख्या 45 लाख के करीब पहुंच रही है. निजी अस्पताल इस दौरान पूरी निर्ममता से अनाप-शनाप वसूली कर रहे हैं. हवाई अड्डे और रेलवे के कुछ हिस्से निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. मंहगाई आसमान छू रही है. पुलिस, संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक दुरुपयोग चरम पर है. पर इनमें से एक भी मुद्दा हमारे सार्वजनिक माध्यमों पर ज़ेरे-बहस नहीं है. यह आकस्मिक नहीं हो सकता. निश्चय ही इसके पीछे बहुत चतुर-सक्षम दुर्विनियोजन है. यह सवाल उठता है कि क्या सच्चाई इस समय निरुपाय है या कि अन्तःसलिल?
धर्म नहीं विचारधारा
हिन्दुत्व ने भले हिन्दू धर्म के कुछ प्रतीकों, अनुष्ठानों, देवताओं आदि को हथिया लिया है, उसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है. वह एक विचारधारा है. लगभग हर विचारधारा की तरह उसे लड़ने के लिए, घृणा करने के लिए, हिंसा करने और नष्ट करने के लिए ‘अन्य’ चाहिये जबकि हिन्दू धर्म के समूचे इतिहास में ऐसे ‘अन्य’ की कोई ज़रूरत या अनिवार्यता नहीं रही है. इस धर्म ने जो वर्णव्यवस्था विकसित की उसमें ऊंच-नीच, अपने-पराये के भाव तो बद्धमूल थे पर अन्ततः शूद्र भी हिन्दू रहे हैं. उनके साथ सामाजिक हिंसा का बेहद बेशर्म इतिहास तो रहा फिर भी वे अगर ‘अन्य’ थे तो धर्म के अन्तर्गत ही थे. इससे बिलकुल उलट हिन्दुत्व को ‘अन्य’ बाहर चाहिये और मुसलमान, ईसाई उसका ‘अन्य’ हैं. हिन्दू धर्म ने, व्यवहार और चिन्तन दोनों में, सदियों अन्य धर्मों के साथ, इस्लाम और ईसाइयत के साथ, गहरा संवाद किया है और उसका लक्ष्य समरसता रहा है, हिन्दुत्व की तरह सत्ता नहीं. फिर हिन्दू धर्मचिन्तन एकतान नहीं रहा है - उसमें लगभग स्वाभाविक रूप से बहुलता रही है, इसका सहज स्वीकार भी. हिन्दुत्व इस बहुलता के अस्वीकार, उसे ध्वस्त करने को अपना धर्म मानता है.
हिन्दुत्व में, विचारधारा होने के कारण और धर्म से कोई गहरा संबंध न होने के कारण, उन तीन धर्मों - बौद्ध, जैन और सिख - की कोई पहचान नहीं है जो हिन्दू धर्म से असहमत होकर स्वतंत्र धर्मों के रूप में पैदा और विकसित हुए. इस तरह से, ऐतिहासिक रूप से, कई सदियों तक ये धर्म हिन्दू धर्म का ‘अन्य’ थे. हिन्दू धर्म की संवादप्रियता के कारण ही भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाइयत काफ़ी बदले, उन्होंने हिन्दू धर्म को प्रभावित किया और स्वयं उससे प्रभावित हुए. भारत में इस्लाम और ईसाइयत अपने मौलिक, अरबी और पश्चिमी संस्करणों से ख़ासे अलग हैं. वे उन धर्मों के भारतीय संस्करण हैं जो इस बहुधार्मिक संवाद का प्रतिफल है. ऐसी कोई समझ हिन्दुत्व में नहीं है. उसकी जो भी समझ है, वह हिन्दू धर्म के इतिहास के विरोध या नकार की समझ है. इसका एक आशय यह भी है कि हिन्दुत्व धर्म नहीं, हिन्दू धर्म का एक कट्टर हिंसक संस्करण नहीं बल्कि उसके नाम का दुरुपयोग कर विकसित हुई विचारधारा है.
इस विचारधारा का भारतीय संस्कृति और परम्परा से भी कोई सम्बन्ध नहीं है, भले वह उनकी दुहाई देती है. भारतीय संस्कृति के कुछ मूल आधार हैं जिनमें बहुलता, परस्पर आदान-प्रदान, संवाद आदि हैं. जिन धर्मों को हिन्दुत्व अपना अन्य मानता है उनके सर्जनात्मक और बौद्धिक अवदान की कोई स्मृति और समझ उसमें नहीं है. भारत में साहित्य, संगीत, ललित कलाएं, भाषा, नृत्य, रंगमंच, स्थापत्य आदि अनेक क्षेत्रों में बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाइयत आदि धर्मों का बहुत मूल्यवान और कई अर्थों में रूपान्तरकारी योगदान रहा है.
फिर हिन्दू धर्म पर लौटें जो सामान्य अर्थ में धर्म है ही नहीं. वह एक पैगन व्यवस्था रही है जिसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद, निराकार ब्रह्म, अनीश्वरवाद आदि सब समाये हुए हैं. हिन्दुत्व इस पैगन संरचना को एक मन्दिर, एक देवता आदि में घटाकर इस धर्म की दरअसल अवमानना कर रहा है. एक और पक्ष विचारणीय है. हिन्दू धर्म में प्रकृति के साथ तादात्म्य और उसे दिव्यता का एक रूप मानने का आग्रह रहा है. इसके लिए ठीक उलट हिन्दुत्व जिस आर्थिक नीति का समर्थक है वह प्रकृति के शोषण और पर्यावरण की क्षति को विकास के लिए ज़रूरी मानती है. प्रकृति की पवित्रता को लगातार क्षत-विक्षत करने वाली इस वृत्ति को हिन्दू धर्म से बेमेल बल्कि उससे गम्भीर विचलन ही कहा जा सकता है.
सभ्यता-बोध
एक ग़ैर सिविल सेवक बन्धु ने मुझसे यह जिज्ञासा की कि भारतीय सिविल सेवाओं में किस तरह का सभ्यता-बोध सक्रिय है. उन्होंने यह जोड़ा कि आधुनिक प्रशासन-व्यवस्था का मूल चीनी राज्य व्यवस्था में विकसित मैंडेरिन रहे हैं जिनके लिए कलाओं में केलिग्राफ़ी, कविता आदि में दक्ष होना तक अनिवार्य माना जाता था. मैं थोड़ा सोच में पड़ गया. 35 वर्ष स्वयं सिविल सेवा में रहने और उसके बाद भी उसके कई सदस्यों से सम्पर्क रहने के कारण मेरा यह अनुभव है कि अधिकांश सिविल सेवकों में कोई अच्छा-बुरा, गहरा-सतही सभ्यता-बोध होता ही नहीं है. उन्हें यह लगता ही नहीं है कि वे जिस सभ्यता के हैं उसके प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी भी है. यह आकस्मिक नहीं है कि उनमें से अधिकांश पश्चिमी सभ्यता के कुछ बेहद सतही अभिप्रायों से प्रेरित रहते हैं और उसी के अनुसार अपनी सफलता का लक्ष्य निर्धारित करते हैं.
भारत जैसे निहायत बहुलतामूलक समाज में, उसके हज़ारों सम्प्रदायों, सैकड़ों भाषाओं और बोलियों, स्थानीय प्रथाओं और स्मृतियों में न तो सिविल सेवकों की दिलचस्पी होती है, न कोई समझ या संवाद. एक कामचलाऊ संस्कृति के लोकप्रिय तत्व जैसे बम्बइया फिल्में, फिल्म संगीत, पॉप संगीत, कैलेण्डर कला, ग़ज़ल गायकी, चालू टेलीविजन आदि से मिलकर उनका सभ्यता बोध बनता है. सिविल सेवा के प्रशिक्षण में इतिहास आदि पढ़ाया तो जाता है पर वह कोई बोध नहीं उपजाता या उकसाता. अलबत्ता जब-तब ऐसे सिविल सेवक मिलते हैं जिनमें, अपवाद स्वरूप, ऐसा बोध होता है. पर उनकी संख्या ख़ासी कम रही है और लगातार कम हो रही है.
इसका एक और पक्ष है. बहुत सारे सिविल सेवक किसी सभ्यता-बोध के अभाव में हिन्दुत्व जैसी घातक विचारधारा को बहुत आसानी से अपना लेते हैं. चूंकि इस विचारधारा ने कुछ पारंपरिक अभिप्राय-अनुष्ठान-प्रतीक आदि हथिया लिये हैं, इस अबोध सिविल सेवा को वह आसानी से आकर्षित कर लेती है. चीनियों से आजकल बड़ी स्पर्धा का माहौल है. उनसे हमने यह सीखा होता कि कैसे सभ्यता-बोध सिविल सेवा के लिए एक अनिवार्य तत्व है तो हम यह स्पर्धा बेहतर ढंग से कर सकते थे.
सिविल सेवा में प्रवेश कड़ी स्पर्धा से मिलता है और उसे कुशाग्रता की सर्वोच्च उपलब्धि माना जाता है. यह विचित्र है कि भारत जैसी संसार की गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक के सबसे कुशाग्र लोग सार्वजनिक सेवा में बिना सभ्यता-बोध के सक्रिय रहते हैं और इसके लिए उनके मन में कोई जिज्ञासा तक नहीं होती.(satyagrah)