विचार / लेख
- नीरज प्रियदर्शी
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि अनुसूचित जाति या फिर अनुसूचित जनजाति समुदाय में अगर किसी की हत्या हो जाती है तो उनके परिवार में से किसी एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी.
लेकिन विपक्ष का कहना है कि नीतीश सरकार की घोषणाएं दलितों की हत्या को बढ़ावा देने वाली हैं.
इसी घोषणा के आधार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मुज़फ़्फ़रपुर के सिविल कोर्ट में मुक़दमा भी दर्ज कराया गया है. जिसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री ने ऐसा कहकर प्रदेश में जातीय उन्माद फ़ैलाने की कोशिश की है. उन्होंने दलितों का अपमान भी किया है.
राज्य में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, दलितों के ख़िलाफ़ अपराधों के मामले में बिहार देशभर में दूसरे नंबर पर है.
नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, साल 2018 में बिहार में अनुसूचित जातियों के ख़िलाफ़ अत्याचार के 7061 मामले दर्ज हुए. ये सारे देश में हुए ऐसे मामलों का 16.5 फ़ीसदी है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया के मुताबिक़, "बिहार में दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामले देश के औसत से काफ़ी अधिक हैं. देश में इनका औसत 21 प्रतिशत है जबकि बिहार में ये आंकड़ा 42 प्रतिशत पर है. यहां ऐसे मामलों में सिर्फ़ चार प्रतिशत लोगों को ही सज़ा हुई है, जो राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम है."
महादलितों की राजनीति
वैसे तो बिहार में अब कोई दलित नहीं है क्योंकि नीतीश कुमार की सरकार ने अपने शासन काल में अनुसूचित जाति के सभी 23 वर्गों को महादलित की श्रेणी में रखकर उनकी 16 फ़ीसदी आबादी को साधने की भरसक कोशिश की है.
जहां तक बात बिहार विधानसभा में दलितों के प्रतिनिधित्व की है तो फ़िलहाल उनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या 38 है. इस वक़्त बिहार के दलित नेताओं में रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी का नाम प्रमुख है.
रामविलास पासवान की मजबूती पांच फ़ीसदी दुसाध मतदाता हैं. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देखें तो दुसाध समुदाय के क़रीब 80 फ़ीसदी वोट रामविलास की पार्टी को ही मिले हैं.
जीतन राम मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं जिनकी संख्या दलितों में तीसरे नंबर पर हैं. चुनाव से पहले जीतन राम मांझी को अपने साथ लाने का नीतीश कुमार का फ़ैसला इसकी गवाही देता है. लोजपा से लड़ाई में भी वे दलितों की बड़ी आबादी को साधे रखना चाहते हैं.
दूसरे अन्य समुदायों के भी नेता हैं, जो अभी राजनीति कर रहे हैं. इनमें रविदास समाज के रमई राम, रजक यानी धोबी समुदाय के श्याम रजक, पासी समाज उदय नारायण चौधरी हैं और निषाद अथवा मल्लाह समाज के मुकेश सहनी हैं.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर बिहार में इस समय के सबसे बड़े दलित चेहरे को लेकर कहते हैं, "इनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है. सबका सिर्फ़ अपने समुदाय पर दावा है. हो सकता है कि वे अपने समुदाय के नेता हों, मगर सबका नेता वही है जो इन नेताओं में से अधिक से अधिक को अपने साथ ले ले. यही हो भी रहा है."
राज्य के सबसे पिछड़े समुदाय का हाल
बिहार के सामाजिक ताने बाने में सबसे पिछड़ी माने जाने वाली जाति है मुसहर या मांझी.
पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी और राज्य के मुख्यमंत्री बनने वाले जीतनराम मांझी इस समुदाय की सबसे मशहूर हस्तियां हैं.
लेकिन बाक़ी समुदाय सदियों से संघर्ष की ज़िंदगी बसर कर रहा है.
शशिकांत मांझी कोई साल भर पहले जयपुर की एक चूड़ी बनाने की फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करने गए थे.
उनकी काम करने की उम्र नहीं थी.
लॉकडाउन में फ़ैक्ट्री बंद हुई तो मालिक ने घर के कामकाज के लिए रख लिया. 12 जुलाई की सुबह काम करते-करते अचानक गिर गए, वहीं उनकी मौत हो गई.
पुलिस ने लावारिस हाल में शव का दाह-संस्कार कर दिया. सूचना मिलने के बावजूद, पिता को बहुत पहले खो चुके शशिकांत की मां उनके शव को आख़िरी बार देखने भी नहीं जा सकीं.
कुछ लोगों ने दान में पैसे दिए तो मां ने प्रतीक के तौर पर पुतला बनाकर जलाया.
मुसहर और बाल श्रम
बिहार में बाल श्रम उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रही संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "पूरे बिहार में जितने बाल श्रमिकों को रेस्क्यू करवाकर लाया जाता है उसमें 30 फ़ीसदी के क़रीब मामले गया के होते हैं. इनमें भी 95 फ़ीसदी बच्चे मुसहर समाज के हैं."
गया के बेलागंज प्रखंड के मेन गांव के 13 साल राकेश कुमार को जयपुर की एक चूड़ी फैक्ट्री से इसी लॉकडाउन के दौरान मई में रेस्क्यू करवा कर लाया गया था.
राकेश ने बाल श्रमिक बनकर क़रीब एक साल तक काम किया.
राकेश के पिता बताते हैं, "पिछले साल आई बाढ़ में हमारा घर ढह गया था. हम अपनी पत्नी के साथ हरियाणा में एक ईंट भट्ठे में काम करने चले गए थे. राकेश अपने मामा के घर था. वहीं का एक आदमी कुछ पैसे का लालच देकर उसे बहलाकर ले गया."
ऐसे बच्चों के बीच काम करने वाले विजय केवट कहते हैं कि पड़ोसी ही दो-ढाई हज़ार रुपये एडवांस और हर महीने पैसे भेजने का वादा कर, बच्चों को साथ ले जाते हैं.
तो क्या ऐसे परिवार को प्रधानमंत्री आवास, फ़्री राशन, नल का जल, शौचालय इत्यादि सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता?
राकेश के पिता कहते हैं, "फ़्री राशन के अलावा कुछ नहीं मिला. राशन भी इसलिए मिल गया क्योंकि कोरोना था. उससे पहले कभी नहीं मिला. हम लोग पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिए कुछ कर भी नहीं सकते कि मिल जाए और कहने से हमारी बात सुनता कौन है, लोग फटकार कर भगा देते हैं."
उन्हें नहीं मालूम कि सरकार दलित की हत्या होने पर उसके एक परिजन को नौकरी की योजना बना रही है.
इस बारे में बताने पर वो कहते हैं, "सरकार हमको घर और रोज़गार दे दे. मेरे बेटे को पढ़ा-लिखा दे. नौकरी तो मिल ही जाएगी. क्या नौकरी के लिए यह साबित करना पड़ेगा कि मेरे परिवार के आदमी की हत्या हुई है?"
घोषणा पर विपक्ष ने उठाए सवाल
ऐसा नहीं है कि दलित की हत्या होने पर परिवार के सदस्य को नौकरी देने की नीतीश कुमार की घोषणा पर किसी को एतराज़ है.
विपक्ष इस क़दम को समस्या का हल नहीं मान रहा और इसे सीधा आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ रहा है.
बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सवाल करते हैं, "हत्या होने पर परिजन को नौकरी देने की घोषणा सिर्फ़ एक वर्ग को क्यों? सवर्णों, पिछड़ों और अति पिछड़ों की हत्या पर उनके परिजन को नौकरी क्यों नहीं दी जा सकती है?"
कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल इसे राजनीतिक जुमलेबाज़ी क़रार देते हैं. वो कहते हैं कि ये फ़ैसला कल्याणकारी कम और उकसाने वाला ज़्यादा लगता है.
नीतीश कुमार की सहयोगी लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को एक पत्र लिखकर राज्य में एससी-एसटी के कल्याण से संबंधित योजनाओं पर शीघ्र अमल करने की मांग की.
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने भी ट्वीट के ज़रिए इस फ़ैसले की आलोचना की है.
अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा है, "अपने पूरे शासन काल में इस वर्ग की उपेक्षा की गई और अब चुनाव के ठीक पहले एससी-एसटी वर्ग के लोगों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. अगर इतनी ही चिंता थी तो अब तक सरकार क्यों सोती रही."
क्या नौकरी का वादा काफ़ी?
विपक्ष की इस आलोचना के बारे में दलितों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ता क्या सोचते हैं?
गैर सरकारी संस्था सेंटर डायरेक्ट के सुरेश कुमार कहते हैं, "इसे हत्या के लिए उकसाना कहना ठीक नहीं. अपनी नौकरी के लिए, किसी अपने की हत्या कर देना अपवाद होता है. इस नियम का मक़सद तो पॉजिटिव है मगर इतना बहुत कम है."
सुरेश कुमार कहते हैं, "ग़रीबी का उल्टा धन नहीं हो सकता. यह समुदाय मानव विकास के सभी सूचकांकों में सबसे पीछे है. सबसे प्रमुख है इस समुदाय की 75 से 80 फ़ीसदी आबादी का निरक्षर होना. सबसे पहले इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए."
शिक्षा की अहमियत को दलित परिवार भी समझ रहे हैं.
कोरोनाकाल में भारत में बढ़ते बाल विवाह
जयपुर की चूड़ी फैक्ट्री से मुक्त करवा कर लाए गए राकेश मांझी जाने से पहले गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे. राकेश ने वापस आकर फिर से पढ़ाई शुरू कर दी है.
हालांकि कोरोना की वजह से स्कूल इन दिनों बंद पड़ा है.
राकेश को विज्ञान में गहरी रूचि है. वे कॉपी निकालकर अपने नोट्स दिखाते हैं, परावर्तन और अपवर्तन के नियम सुनाते हुए कहते हैं, "इसमें जितना लिखा है सब जानता हूं, लेकिन इससे ज़्यादा नहीं क्योंकि मेरे पास किताब नहीं है."
इन सबको शिक्षा के बराबर अवसर मिलें तो नौकरी मिलने की उम्मीद बढ़ ही जाएगी.(bbc)