विचार / लेख

लोकतंत्र में भरोसा नीयत की ही तरह खोखला
15-Sep-2020 1:57 PM
लोकतंत्र में भरोसा नीयत की ही तरह खोखला

-कनुप्रिया
संसद में प्रश्नकाल को खत्म करने के कारण हमें समझ आते हैं, कि यह सरकार विपक्ष को कमजोर किए रखना चाहती है, कि इस सरकार को सवालों से डर लगता है और यह उनका सामना करने में पूरी तरह असमर्थ है, कि सरकार देश के जरूरी मसलों को नजरंदाज करके अपनी कॉरपोरेट नत मस्तक पॉलिसी और जनता को लगातार विभाजित करते हुए फूट डालो और शासन करो पॉलिसी पर फोकस बनाए रखना चाहती है और नहीं चाहती कि इससे इतर सवाल इससे पूछे जाएँ या देश के असल मुद्दों पर ध्यान देने के लिये इस पर दबाव बनाया जाए।

प्रधानमंत्री ख़ुद अपने मामले में इस एजेंडे में बहुत अधिक सफल भी हुए हैं, उनका प्रेस से बात न करने, एकतरफा मन की बात करने, किसी भी सवाल का जवाब न देने यहाँ तक प्रधानमंत्री केयर फंड को आरटीआई से अलग रखने और उस बाबत भी कोई जवाब न देने जैसे प्रयोग सफल रहे हैं। उनके विरोधी भले ही बतौर प्रधानमंत्री उनके हद दर्जे से ज्यादा गैर लोकतांत्रिक तरीके पर सवाल उठाते रहें मगर अबतक कोई भी ऐसा संवैधानिक तरीका नजर नहीं आया है जिससे उनके इस तरीके को गैर संवैधानिक ठहराकर उन्हें प्रेस, विपक्ष और जनता के सवालों का जवाब देने के लिए मजबूर किया जा सके। 

उनका यह सफल प्रयोग अब संसद में भी लागू किया जा रहा है, जहाँ विपक्ष उनसे प्रश्नकाल में कोई सवाल नहीं पूछ सकता, और इसका कारण महज कोरोना नहीं है, बड़ी हास्यास्पद दलील यह दी गई है कि पिछले सत्रों में पाया गया है कि संसद में प्रश्नकाल का 50 फीसदी समय व्यर्थ गया है, यानि उसकी कोई उपयोगिता नही रही है, संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद जोशी का कहना है कि 60 फीसदी राज्यसभा और 40 फीसदी राज्यसभा के समय व्यर्थ गया है। 

आप इस दलील पर महज हैरान हो सकते हैं कि लोकतंत्र के एक जरूरी स्तंभ को इसलिए ढहाया जा रहा है कि वह 100 फीसदी उपयोगी नहीं रहा? बजाय उसे और उपयोगी बनाए जाने की कोशिश किए जाने के उसे खत्म करना ही सरकार को ठीक लग रहा है?

तब तो गृहमंत्री के पद की भी कोई उपयोगिता हमे नजर नहीं आती, देश के सबसे महत्वपूर्ण और आपात स्थिति में वो हर तरह से असमर्थ होकर लगातार अस्पतालों में बने हुए हैं और देश उनके बिना भी चल रहा है, कहीं कुछ रूक नहीं रहा। 

जरूरत और उपयोगिता तो सरकार की भी कम नजर आती है जिसे देश में कितने प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हुई इस आँकड़े का पता ही नहीं है, जो अर्थव्यवस्था के गिरने को महज भगवान का कार्य कहती है, जिसके पास कोरोना से निबटने के लिए कोई योजनबद्ध कदमों की जगह ताली, थाली, घण्टे जैसे झाड़-फूंक तरीके थे, और जो लगभग सभी सरकारी निकायों को संभालने में पूरी तरह विफल रही, इसलिए उन्हें लगातार बेच रही है। 

उपगोगिता तो चौथे खम्बे कहलाए जाने वाले न्यूज मीडिया की भी न के बराबर है जो देश के सभी जरूरी मुद्दों को नजरंदाज करके एक बड़े महत्वपूर्ण काल में महज सिने कलाकारों पर फोकस रखती है। 

प्रधानमंत्री ने फिर से सीमा पर सैनिक का वास्ता देकर संसद से एकजुटता का संदेश जाना चाहिए ऐसी गुहार लगाई है, साफ है कि वो बचना चाहते हैं हर उस सवाल से जो उनके लिये असुविधाजनक है, जिन सैनिकों की शहादत के सम्मान में वो सीमा पार के दुश्मन का नाम तक न ले सके आज फिर उनकी दुहाई दे रहे हैं। 

यूँ भी अब दुनिया मे हमला करने के तरीके बदल गए हैं, अब हमले बमों से नहीं, सर्वरों से किये जाते हैं, निजता और गोपनीयता को खत्म करने से किए जाते हैं, आपको प्रोफाइल प्रोटेक्शन देने वाला फेसबुक आपके मोबाइल की एक एक गतिविधि का सुराग रखता है, और बेहद राष्ट्रवादी तौर तरीकों के बावजूद ट्रम्प शांति के नोबल के लिये नामित हो जाते हैं। इसलिए आज के युग में इंदिरा गाँधी के ढाई साल के आपातकाल की लगातार दुहाई देने वाली सरकार को अब उन तरीकों की जरूरत नहीं रही, लोकतंत्र पर साफ हमले की जगह घुन ही काफी है, इससे स्पष्ट जिम्मेदारी भी नहीं आती।
 
जिस तरह लोकतांत्रिक स्तंभों को लगातार कमजोर किया जा रहा है, साफ है इस सरकार का लोकतंत्र में भरोसा इनकी नीयत की ही तरह खोखला है।

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