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जब पीएम के खाते में इतने पैसे नहीं थे कि 2064 रु. भुगतान कर सकें...
19-Sep-2020 9:48 AM
जब पीएम के खाते में इतने पैसे नहीं थे कि 2064 रु. भुगतान कर सकें...

डॉ. परिवेश मिश्रा ने बांटी यादें.. एक पांच पैसे के पोस्ट-कार्ड ने याद दिलाया। 


एक पोस्ट-कार्ड का फोटो, इसमें क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह कहानी तो 1960 में पोस्ट-कार्ड लिखने और पढ़े जाने के बाद खत्म हो गयी थी। 

किन्तु यह पांच पैसे का पोस्ट-कार्ड उस ज़माने में लोकप्रिय जीवनशैली और जीवनमूल्यों की याद दिलाने के लिए पीछे छूट गया। 

किस परिवार में आपका जन्म होता है यह फैसला आपका नहीं होता। किन्तु जीवन में किन मूल्यों को अपनाना है उसका फैसला अवश्य आपकी पसन्द का होता है.

जवाहर लाल नेहरू जी और उनकी छोटी बहन विजयलक्ष्मी पण्डित जी के पिता मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट और देश के प्रसिद्ध और सफलतम् वकीलों में से एक थे। पिता की अकूत धन दौलत और जीवनशैली को लेकर अनेक सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित होती रही हैं - वाट्सऐप के आने के बाद तो ढेर सारी। 
जैसे : उनके कपड़े लाॅन्ड्री के लिये पेरिस भेजे जाते थे (असत्य), उनका घर आनन्द भवन इलाहाबाद का पहला घर था जिसमें बिजली आयी और पानी के लिए नल लगे थे (सच), पहला घर था जिसमें अपना एक स्विमिंग पूल था (सच), आदि आदि। 

कुछ सच और भी हैं। जैसे,1904 में इलाहाबाद में पहली कार खरीदने/लाने वाले मोतीलाल नेहरू ही थे।1905 और 1909 में भी खरीदीं और उसके बाद घर में गाड़ियों की लाईन लगती रही.

1962 की गर्मियों में मेरी उम्र दस वर्ष थी। उस उम्र और उस ज़माने के अन्य बच्चों की तरह डाक टिकिटों, सिक्कों और क्रिकेट खिलाड़ियों के अलावा कारों के बारे में अपनी जानकारी पर गर्व करता था। 

मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे जवाहर लाल नेहरू जी को जब मैंने दिल्ली में स्टैन्डर्ड-8 कार से उतरते देखा तो वह दृश्य मेरे बाल-मन के लिये किसी ऐन्टी क्लाइमेक्स से कम नहीं था। मैं पर्यटकों के एक छोटे से झुंड का हिस्सा था जो साउथ ब्लाॅक के दरवाजे के पास उनकी एक झलक पाने के लिए खड़ा था।

आम धारणा है कि 1983 में मारूती 800 के आने से पहले भारत में केवल फिएट (पद्मिनी) और एम्बेसडर कार ही चला करती थीं। एक कम-ख्यात कार कम्पनी और थी - मद्रास की स्टैन्डर्ड मोटर कम्पनी। इसकी बनायी स्टैन्डर्ड-8 बाद मे आयी मारूती 800 जैसी ही थी और उन दिनों भारत में बिकने वाली सबसे सस्ती और छोटी कार थी। और हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने उपयोग के लिये इसे चुना था। 

1947 में जब आज़ादी मिली भारत की GDP शून्य थी। विदेशी मुद्रा भंडार मायनस में था क्योंकि सारी उधारी ब्रिटेन पर थी और विश्व युद्ध के बाद कंगाल ब्रिटेन ने पैसों के मामले में हाथ ऊपर उठा दिये थे। तब विदेशी मुद्रा कमाने और बचाने की आवश्यकता थी। नेहरू जी ने आत्मनिर्भरता  का नारा दिया था। लोगों को अपनी बात समझाने का उनका तरीका आसान था - भाषण के स्थान पर स्वयं का आचरण सामने रखते थे। नेहरू जी ने स्वयं कभी महंगी, विदेशी, ब्रैन्डेड घड़ियों, जूतों, चश्मों और कारों का उपयोग नहीं किया। कपड़े चूंकि दिन में बार बार बदलते नहीं थे, और आमतौर पर सिर्फ सफेद खादी पहनते थे, सो उसके खर्च भी कम थे। देश की अर्थव्यवस्था सुधारना तब सबसे पहली आवश्यकता थी। आम जनता ने भी मोह संवरण करना सीख लिया था।  

ये भारत के उस काल की बात है जब किफ़ायत या मितव्ययता (कम या केवल आवश्यक खर्च करने की आदत) को कंजूसी का समानार्थी शब्द नहीं माना जाता था। धन सम्पत्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन या फिज़ूलखर्ची को फूहड़ माना जाता था। 

पं. जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी जी के द्वारा राजा नरेशचन्द्र सिंह जी को लिखे अनेक ख़त गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ में रखे हैं। इनमें से कुछ अंतर्देशीय पत्रों पर लिखे गये थे तो कुछ लिफाफों में आये थे। कुछ पत्र पोस्ट-कार्ड पर भी लिखे गये थे। 

ऐसे ही एक पोस्ट-कार्ड का फोटो इस पोस्ट में है। सितम्बर 1960 में नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी जी अपनी विदेश पोस्टिंग से भारत आयी हुई थीं और नई दिल्ली में थीं। यह पोस्ट-कार्ड उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास तीनमूर्ति भवन में रहते हुए लिखा था।

मेरे जो फेसबुक मित्र स्पीड पोस्ट और कुरियर के दौर में पले बढ़े हैं उन्हें बताता चलूँ कि उन दिनों पत्र लिखने के लिए तीन सामान्य साधन मौजूद हुआ करते थे - पोस्ट-कार्ड, अंतर्देशीय (या इन-लैन्ड) और लिफाफा। तीनों प्री-पेड होते थे। पोस्ट-कार्ड का इस्तेमाल वे करते थे जिनके पास पैसों की कमी हो या वे जिनके पास लिखने के लिए मैटर कम हो।

विजयलक्ष्मी जी ने पांच पैसे वाले पोस्ट-कार्ड पर पत्र लिखा। वे उन दिनों ब्रिटेन में भारत की राजदूत (हाई कमिश्नर) थीं। वे विश्व की पहली महिला थीं जो संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा की अध्यक्ष रह चुकी थीं। वे मोतीलाल नेहरू की बेटी थीं। मैं नहीं मान सकता कि दस पैसे का अंतर्देशीय या पंद्रह पैसे का लिफाफा खरीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। पर चूंकि उनके पास लिखने के लिए जितना मैटर था उसके लिये पोस्ट-कार्ड काफी था और पोस्ट-कार्ड लिखने में उन्हे कोई संकोच या शर्म नहीं थी, सो उन्होंने पोस्ट-कार्ड ही लिखा। 

ये वो ज़माना था जब सादगी शब्द लिखने बोलने में जितना प्रयुक्त होता था उससे अधिक इसका उपयोग जीवन जीने के ढंग में होता था। सादगी जैसा ही दूसरा महत्वपूर्ण शब्द था 'सदाचरण'। उच्च पदों पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे निजि और शासकीय खर्चों में विभेद करने की समझ रखें। आमतौर पर वे निराश नहीं करते थे (अपवाद हर काल में होते हैं)।

उन दिनों डाक टिकिट दो प्रकार के होते थे। एक तो वो जो आम जनता के लिये थे और दूसरे थे रेवेन्यू डाक टिकिट। ये दूसरे प्रकार के टिकिट सरकारी डाक में इस्तेमाल होते थे और ज़ाहिर है इनका भुगतान सरकारी कोष से होता था।  सभी सरकारी विभागों और मंत्रियों के कार्यालयों से बाहर जाने वाली डाक में यही टिकिट चिपकाये जाते थे। 

विजयलक्ष्मी जी ने पोस्ट-कार्ड  पारिवारिक मित्र को लिखा और यह उनकी निजी डाक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, उन दिनों वे प्रधानमंत्री निवास में रह रही थीं। यदि वे चाहतीं तो इसे कार्यालय के डिस्पैच सेक्शन में भेज सकती थीं। राजस्व डाक टिकिट लगे लिफाफे में यह पत्र सफर कर लेता। किन्तु उनसे ऐसी चूक संभव नहीं थी। पांच पैसे के लिये भी नहीं।

इससे कुछ साल पहले विजयलक्ष्मी जी के हाथों हुई एक अनजानी चूक के परिणाम स्वरूप भाई जवाहर लाल नेहरू के बैंक बैलेन्स की जानकारी सार्वजनिक हो गयी थी। उस घटना ने विजयलक्ष्मी जी को आर्थिक सदाचरण के प्रति अवश्य ही और भी अधिक सतर्क बनाया होगा। 

यह घटना 1954 की है जब पंजाब के गवर्नर ने विजयलक्ष्मी जी को मेहमान के रूप में शिमला आमंत्रित किया। आज़ादी के बाद पंजाब का विभाजन हुआ तो भारत के हिस्से आये पूर्वी पंजाब की राजधानी शिमला बनी थी। राज्यपाल का न्योता मिला तो विजयलक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया और कुछ दिन शिमला में बिता कर वापस दिल्ली आ गयीं। शिमला के सरकारी गेस्ट हाउस में वे राज्यपाल के मेहमान के रूप में रही थीं। मेहमान के बिल का भुगतान राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा ऐसा मान कर अधिकारियों ने विजयलक्ष्मी जी के सामने बिल पेश नहीं किया था। बाद में दफ्तर के किसी तकनीकी कारण के चलते राज्यपाल की ओर से भी भुगतान नहीं आया। इस बीच श्रीमती पंडित को राजदूत नियुक्त किया गया और वे दिल्ली से लंदन चली गयीं। 

लगभग साल भर बीतने पर परेशान चीफ इंजीनियर 2064 रुपये के बिल के साथ पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर जी के पास पहुँचे। सच्चर जी का जब दिल्ली जाना हुआ तो ये बिल साथ लेते गये और उसे नेहरू जी के सामने रख दिया। भीमसेन जी के पुत्र राजेन्द्र सच्चर (सच्चर कमेटी वाले) आगे चल कर दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने थे। उन्होंने पिता से सुनकर अपने संस्मरण में लिखा तो दुनिया को पता चला कि बिल देखते ही नेहरू जी ने तत्काल चेक बुक निकाल ली थी। पर जब पाया कि अकाऊंट में बैलेन्स कम है तो सिर्फ एक हज़ार रुपये का चेक काटा और भीमसेन जी से विनम्रता पूर्वक कहा : अभी मैं योरोप यात्रा पर जा रहा हूं। एक साथ इतनी राशि देने की स्थिति में नही हूँ। लौट कर बाकी भी चुका दूंगा। और दो किश्तों में प्रधानमंत्री ने परिवार के निजी खर्च का भुगतान कर दिया था। विजयलक्ष्मी जी से न पूछा न उन्हें बताया।

1943 में युवराज और राज्य के शिक्षा मंत्री नरेशचन्द्र सिंह जी विवाह के बाद पत्नी के साथ कलकत्ता में छुट्टियां व्यतीत कर सारंगढ़ लौटे थे। पीछे पीछे डाक से ग्रेट ईस्टर्न होटल का जब बिल पंहुचा तो पिता राजा जवाहिर सिंह जी ने भुगतान पर यह लिख कर रोक लगा दी थी कि यह युवराज का निजी खर्च है, इसलिए इसका भुगतान वे अपने अलाऊंस में से करें, स्टेट भुगतान नहीं करेगा। नियम कानून के पक्के पिता राजा जवाहिर सिंह जी से जो सीख मिली वह नरेशचन्द्र सिंह जी की जीवनशैली का हिस्सा बन गयी। 

कुछ समय में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंह जी राजा बने और आज़ादी के बाद सत्रह वर्षों तक मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे। इस हैसियत से समय समय पर राज्य में दौरे करते रहे। किन्तु सर्किट हाऊस के खाने पीने के बिल ताउम्र उन्होंने अपने निजी खाते से ही अदा किये। 

-डॉ. परिवेश मिश्रा

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