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अरुण शौरी: लक्ष्मी विलास पैलेस होटल के निजीकरण मामले में कैसे फंसे मोदी सरकार के आलोचक
20-Sep-2020 11:30 AM
अरुण शौरी: लक्ष्मी विलास पैलेस होटल के निजीकरण मामले में कैसे फंसे मोदी सरकार के आलोचक

- मानसी दाश

जोधपुर की विशेष सीबीआई कोर्ट ने बुधवार को पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और चार अन्य लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया है.

ये मामला राजस्थान के उदयपुर में मौजूद होटल 'लक्ष्मी विलास पैलेस' के निजीकरण से जुड़ा है.

आरोप है कि साल 1999-2002 के बीच विनिवेश मंत्री रहे अरुण शौरी और विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल ने अपने पद का दुरुपयोग कर इस सौदे में सरकारी ख़ज़ाने को नुकसान पहुंचाया है.

साल 2002 में इंडियन टूरीज़्म डेवेलपमेन्ट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) के 29 एकड़ इलाके में फैले इस होटल को सरकार ने 7.52 करोड़ रुपये में भारत होटल्स लिमिटेड को बेचा था. आईटीडीसी के सबसे अधिक नुक़सान झेलने वाले 20-25 होटलों में इसका भी नाम शुमार था.

इससे पहले सीबीआई ने इस मामले में ये कहते हुए अपनी क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दी थी कि अभियुक्त के ख़िलाफ़ अभियोग लगाने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं.

उदयपुर के फतेह सागर झील के किनारे एक पहाड़ की चोटी पर बना लक्ष्मी विलास होटल इस विवाद के केंद्र में है (फ़ाइल फ़ोटो)

सीबीआई कोर्ट ने जिला प्रशासन को सौंपा होटल

सीबीआई की इस रिपोर्ट को कोर्ट ने ये कहते हुए खारिज कर दिया है कि "प्राथमिक तौर पर लगता है कि अरुण शौरी और प्रदीप बैजल के द्वारा की गई इस डील में केंद्र सरकार को 244 करोड़ रुपयों का नुक़सान उठाना पड़ा है."

सीबीआई जज पूरन कुमार शर्मा ने इस मामले की दोबारा जांच करने के आदेश दिए हैं और कहा है, "सीबीआई देश की एक सम्मानित संस्था है. प्रारंभिक जांच में धांधली होने संकेत मिलने के बावजूद क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल करना चिंता का विषय है."

कोर्ट ने आदेश दिया है कि होटल को तुरंत राज्य सरकार को सौंप दिया जाए और जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता ये राज्य सरकार की कस्टडी में ही रहे.

जज ने भ्रष्ट्राचार रोधी क़ानून और भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक साजिश) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत दोषियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराने का आदेश भी दिया है.

इस मामले में अरुण शौरी, प्रदीप बैजल, लज़ार्ड इंडिया लिमिटेड के प्रबंध निदेशक आशीष गुहा, कांति करमसे एंड कंपनी के कांतिलाल करमसे विक्रमसे और भारत होटल्स लिमिटेड की चेयरपर्सन ज्योत्सना सुरी पर आरोप लगाए गए हैं.

क्या है पूरा मामला?

13 अगस्त 2014 को सीबीआई ने इस आधार पर पहली एफ़आईआर दर्ज की थी कि विनिवेश विभाग के कुछ अफसर और एक निजी होटल व्यवसायी ने साजिश कर 1999-2002 में लक्ष्मी विलास पैलेस की पहले मरम्मत की और फिर सस्ते दाम में उसे बेच दिया.

प्रारंभिक जांच के बाद सीबीआई ने इस मामले में कोर्ट को क्लोज़र रिपोर्ट सौंप दी. इस रिपोर्ट को जोधपुर सीबीआई कोर्ट ने खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि रिपोर्ट के अनुसार, ज़मीन की कीमत 151 करोड़ रुपये है, ऐसे में होटल के सौदे में ग़लत तरीके से सरकार को 143.48 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है.

कोर्ट ने कहा कि फाइल दोबारा खोली जाए और आरोपों की जांच हो. एक बार फिर इस मामले में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की गई जिसे खारिज कर दिया गया. लेकिन इस मामले में 13 अगस्त 2019 को सीबीआई ने तीसरी बार क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल की. इस बार फिर कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया है और फिर से मामले की जांच करने को कहा है.

तीसरी बार भी सीबीआई ने क्लोज़र रिपोर्ट फाइल की और कहा कि जांच आगे बढ़ाने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं है.

इस मामले में 15 सितंबर 2020 को हुई सुनवाई में जज ने कहा कि सीबीआई को इस मामले में भ्रष्ट्राचार से जुड़े कुछ संकेत मिले हैं और उसकी रिपोर्ट के अनुसार होटल की संपत्ति असल में 252 करोड़ रुपये की है लेकिन इसे कम कीमत पर बेचा गया है.

सीबीआई के क्लोज़र रिपोर्ट फाइल करने को कोर्ट ने चिंता का विषय बताया और एक बार फिर सीबीआई को इसकी जांच के आदेश दिए है.

अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे (तस्वीर में: नरेंद्र मोदी, भैरो सिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवाणी और अरुण शौरी)

एफ़आईआर में नहीं था नाम

2014 अगस्त में सीबीआई ने जो एफ़आईआर दर्ज की थी उसमें अरुण शौरी का नाम नहीं था. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार को अरुण शौरी ने बताया, "सीबीआई इस मामले को पहले ही बंद कर चुकी है क्योंकि उन्हें कोई सबूत नहीं मिले. जो एफ़आईआर थी उसमें मेरा नाम भी नहीं था, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं कि मेरा नाम अब इसमें कैसे जोड़ा गया है."

साल 2014 में एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा था कि होटल की कीमत का हिसाब करने वालों को चयन सरकार द्वारा अप्रूव्ड लिस्ट से किया गया था. उनका कहना था, "इसके मूल्य को लेकर राजस्थान हाई कोर्ट में भी चुनौती दी गई थी लेकिन कोर्ट ने आरोपों को बेबुनियाद पाया था."

साल 2014 में इस मुद्दे पर अरुण शौरी ने लिखा, "होटल के विनिवेश के फ़ैसले के बारह साल बाद एक अनाम व्यक्ति की मौखिक शिकायत के आधार पर सीबीआई ने ये जांच करने का फ़ैसला किया है."

उन्होंने लिखा, "2002 में हिंदुस्तान जिंक का निजीकरण हुआ जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया. लेकिन लक्ष्मी विलास होटल के संदर्भ में भी वही पैटर्न था. ये होटल 2002 में बेचा गया था."

"जब अधिकारी मेरे पाए आए तो मैंने उनसे पूछा कि किस आधार पर जांच शुरू की गई है. उन्होंने बताया कि उनके पास कुछ भी लिखित रूप में नहीं है, ये मौखिक शिकायत के आधार पर था."

2014 में इकोनॉमिक टाइम्स में इसी सौदे से जुड़ी एक ख़बर प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था कि अरुण शौरी के अनुसार उस समय विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति में अरुण जेटली शामिल थे, जो उस वक्त क़ानून मंत्री थे और उनके मंत्रालय ने तीन बार फाइल क्लीयर की थी.

जेटली ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया था, “मंत्री के तौर पर मैं पूरी प्रक्रिया का गवाह रहा था. मुझे इस बात पर कोई शक नहीं कि विनिवेश के दौरान जो लेनदेन हुआ वो पूरी तरह प्रक्रिया के तहत हुआ था."

क्या कहते हैं प्रदीप बैजल?

इसके कुछ दिन बाद प्रदीप बैजल ने एक अख़बार को बताया कि विनिवेश से जुड़े हर फ़ैसले अरुण शौरी और उस दौरान विनिवेश पर बनी कैबिनेट समिति के अध्यक्ष के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लेते थे.

विनिवेश के दिनों के अपने अनुभवों पर प्रदीप बैजल ने 'द कंम्प्लीट स्टोरी ऑफ़ इंडियन रीफॉर्म्स: टूजी, पावर एंड प्राइवेट एंटरप्राइज़' शीर्षक से एक किताब लिखी थी.

इस किताब में उन्होंने दावा किया कि सीबीआई चाहती थी कि वो अरुण शौरी और रतन टाटा के ख़िलाफ़ बयान दें. साल 2004 से 2007 के बीच यूपीए सरकार के दौर में प्रदीप बैजल भारतीय टेलिकॉम नियामक, ट्राई के चेयरमैन थे.

शौरी- पत्रकार से विनिवेश चैंपियन बनने तक

पेशे से पत्रकार और लेखक अरुण शौरी को आपातकाल के दौरान अख़बारों में उनके लेखों के लिए जाना जाता है. इन्हीं लेखों को देखते हुए अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने उन्हें एग्ज़ीक्यूटिव एडिटर के रूप में काम करने का न्योता दिया.

बात साल 1981 की है, उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अन्तुले थे. शौरी ने सरकारी पैसों के हेरफेर में उनकी भूमिका के बारे में जमकर लिखा जिसके बाद मामला इतना बिगड़ गया कि अन्तुले को पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.

शौरी को 1982 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार और 1990 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण से नवाज़ा गया था.

साल 1998 के आते-आते वो बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद वो राज्यसभा सदस्य मनोनीत हुए और वाजपेयी सरकार के दौर में विनिवेश, संचार और आईटी मंत्री के पद पर रहे.

विनिवेश मंत्री के तौर पर उन्होंने मारुति, वीएसएनएल और हिंदुस्तान ज़िन्क में निजी भागीदारी को बढ़ाया. इस दौर में सचिव के तौर पर उनके साथ प्रदीप बैजल रहे.

कहा जाता है कि दोनों की जोड़ी ने तीस से अधिक कंपनियों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपा जिससे सरकार को 5 हज़ार करोड़ से अधिक रुपये मिले.

2002 में अरुण शौरी ने संसद में बताया था कि सरकार 31 उद्योगों का विनिवेश कर रही है और 7 पीएसयू के निजीकरण कर रही है जिससे सरकारी ख़जाने को 5114 करोड़ रुपये मिले हैं.

वाजपेयी के साथ, लेकिन मोदी के विरोधी

अरुण शौरी बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी और भरोसमंद लोगों में से एक माने जाते थे. लेकिन बीजेपी की मोदी सरकार के विरोध में बोलने के लिए भी उन्हें पहचाना जाता है.

2014 अगस्त में एफ़आईआर दायर होने से पहले इसी साल मई में उन्होंने कहा था कि मोदी काम करने और जल्दी फ़ैसला लेने वाले नेताओं में हैं. लेकिन सरकार को लेकर उनका नज़रिया बदलने लगा. 2015 के मई में उन्होंने कहा कि लगता है है, "मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली ने अपने सहयोगियों के साथ-साथ अपने लोगों को भी डरा दिया है."

उन्होंने कहा कि मोदी के कार्यकाल के दौरान जो सामाजिक हालात हैं उसमें अल्पसंख्यक तनाव में हैं. नवंबर 2016 को अचानक घोषित हुई नोटबंदी को उन्होंने सरकार द्वारा की गई '‘पैसों की सबसे बड़ी धांधली’' करार दिया और कहा कि इससे काला धन सफेद करने वालों को मौक़ा मिला है.

रफ़ाल विमान डील मुद्दे पर साल 2018 में उन्होंने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और कोर्ट की निगरानी में मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की.

ये मामला दिलचस्प था. चार अक्तूबर को शौरी, प्रशांत भूषण और यशवंत सिन्हा ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा से मुलाक़ात की और जांच की ज़रूरत पर उनसे चर्चा की. इसके बाद आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया जिसके बाद इन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया.

बताया जाता है कि सीबीआई प्रमुख से इनकी मुलाक़ात से केंद्र सरकार नाराज़ थी. इसके बाद एक दौर वो भी आया जब अरुण शौरी ने कहा कि 2019 में एक बार फिर बीजेपी को चुनना देश के लिए सही नहीं होगा. उन्होंने इस साल होने वाले चुनावों को गणतंत्र के लिए आख़िरी मौक़ा कहा.

मुंबई में एक सभा में उन्होंने कहा कि, "जब देश संकट में हो तो राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को किसी के हाथ बढ़ाने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए."

अक्तूबर 2017 में खुशवंत सिंह साहित्य समारोह में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के पद के लिए नरेंद्र मोदी को समर्थन देना उनकी दूसरी ग़लती थी और वीपी सिंह की जनता सरकार को समर्थन करना उनकी पहली बड़ी ग़लती थी क्योंकि वीपी सिंह को पीछे से बीजेपी और वामपंथी पार्टियों का समर्थन हासिल था.

उन्होंने कहा, "ये मत सोचिए कि नेता सत्ता में आते ही बदल जाएंगे. उनके चरित्र को इस बात पर आंकिए कि वो सच का कितना साथ देते हैं."(bbc)

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