संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सेक्स वर्करों को मदद करने का सुप्रीम कोर्ट, का साहसिक आदेश
21-Sep-2020 6:30 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सेक्स वर्करों को मदद करने का सुप्रीम कोर्ट, का साहसिक आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने देश में देह बेचने वाले लोगों की मदद करने का एक हौसला दिखाया है। देश में लॉकडाऊन के लंबे महीनों के दौरान सेक्स का कारोबार बंद सरीखा रहा है। ऐसे में उनके बुनियादी नागरिक हकों के लिए एक याचिका दायर की गई थी जिस पर अदालत ने केन्द्र और तमाम राज्यों को सेक्स वर्करों को सभी बुनियादी सुविधाएं देने का निर्देश दिया है। अदालत ने कहा है कि सेक्स वर्करों को राशन कार्ड के बिना राशन दिया जाए, और बुनियादी जरूरतें मुहैया कराई जाएं। जस्टिस एल.नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि अधिकारी सेक्स वर्करों को राहत देने के लिए ऐसे कदम उठाने पर विचार कर सकते हैं जो ट्रांसजेंडर समुदाय की मदद के लिए उठाए गए हैं। देश भर में हजारों ट्रांसजेंडरों को केन्द्र सरकार की ओर से 15 सौ रूपए महीना गुजारा भत्ता दिया जा रहा है। 

हम सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को इस मायने में बहुत क्रांतिकारी मान रहे हैं कि उन्होंने एक ऐसे तबके के मदद करने के लिए कहा है जिसको आज भी हिन्दुस्तान में मुजरिम माना जाता है। हम अपने आसपास आए दिन देखते हैं कि वेश्यावृत्ति में लगी हुई महिलाओं को किस तरह कभी उनके दलाल के साथ, तो कभी ग्राहकों के साथ गिरफ्तार किया जाता है। इसलिए आज अदालत अगर उनके मुजरिम होने का जिक्र किए बिना उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों का जिक्र करते हुए उनकी मदद करना सरकार की जिम्मेदारी करार दे रही है तो यह एक हौसले का, और कल्याणकारी आदेश है। यह मुकदमे में आखिरी फैसला नहीं है, यह अगली सुनवाई तक का आदेश है। हमारा ख्याल है कि यह वेश्याओं को इंसान मानने का एक रूख है जिसे आगे बढ़ाना चाहिए। 

इस देश में वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की बात एक राजनीतिक फैसला होगी, और राजनीतिक दल देश की इस जमीनी हकीकत को अनदेखा करते हुए अपना सिर रेत में घुसाए रहेंगे कि मानो वेश्यावृत्ति इस देश में होती ही नहीं है। आज हालत यह है कि दसियों लाख महिलाएं इस देश में अपनी देह बेचकर ही जिंदा हैं। वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा न मिलने से यह एक जुर्म है, और जुर्म होने से इस पर पलने के लिए दलालों से लेकर  सरकारी अमले तक बहुत से लोग मैदान में रहते हैं। इलाकों के मवाली, कई किस्म के नेता, पुलिस, और सरकार के दूसरे लोग अपने इलाकों में चलने वाले चकलों को एक दुधारू गाय की तरह दुहते रहते हैं। शायद यह भी एक वजह है कि कोई भी वयस्क वेश्यावृत्ति को जुर्म के दायरे से बाहर निकालना नहीं चाहते, क्योंकि जैसे ही लोगों को अपनी देह बेचने का कानूनी हक मिल जाएगा, उनसे अवैध उगाही बंद हो जाएगी। 

हम आज जिंदा रहने के लिए जरूरी मदद वाले इस अदालती आदेश का ऐसा कोई क्रांतिकारी विस्तार नहीं देखते कि इससे वेश्यावृत्ति के कानूनी दर्जे तक बात जा पाएगी। अभी तो एक खतरा यह है कि जैसे ही कोई महिला या पुरूष अपने आपको सेक्स वर्कर बताते हुए सरकारी अनाज के लिए जाएंगे, वैसे ही सरकार के पास एक रजिस्टर बनते जाएगा कि अनाज देने के बाद आगे किन पर कार्रवाई करनी है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा आदेश से स्थानीय अधिकारियों के हाथ आगे उगाही का एक रजिस्टर लग जाएगा। आज का अदालती आदेश ऐसे किसी खतरे को देखते हुए नहीं दिया गया है, और अपने आपको सेक्स वर्कर घोषित किए बिना अनाज या कोई दूसरी मदद मिल भी नहीं सकती। 

आज अदालत ने इस सिलसिले में आदेश देते हुए एक चूक भी की है कि किसी मदद के संदर्भ में उसने ट्रांसजेंडरों की मिसाल दी है। देश में ट्रांसजेंडरों से लोगों को जो परहेज है, उनमें से एक यह भी है कि उनमें से कुछ या कई लोग सेक्स वर्करों की तरह काम भी करते हैं। यह बात ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग भी मानते हैं कि उनके कुछ लोग देह सेवा बेचते हैं। अब आज अदालत ने सेक्स वर्करों के संदर्भ में ट्रांसजेंडरों की मिसाल देकर एक सामाजिक चूक की है और लोग इन दोनों तबकों को एक ही किस्म का मान बैठेंगे। 

खैर, इन तमाम बातों से परे यह लिखने की जरूरत है कि जब सेक्स वर्कर को सेक्स वर्कर मानते हुए मदद का हकदार माना जा रहा है, तो फिर उस सेक्स-वर्क को जुर्म कैसे माना जाए? लोगों को याद है कि अंग्रेजों के वक्त से समलैंगिकता को जुर्म बनाने का सिलसिला अभी पिछले बरसों तक जारी था, और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को जुर्म के दायरे से बाहर किया है। वेश्यावृत्ति के मामले में अगर देश की इन दसियों लाख महिलाओं और शायद हजारों पुरूषों को इंसानों की तरह रहने देना है, तो इसे कानूनी बनाना चाहिए ताकि इन्हें हिफाजत मिल सके, इनकी सेहत की जांच हो सके, और इनके ग्राहकों की सेहत भी बची रह सके। यह एक बड़ा मुद्दा है, और महिलाओं के कुछ हिमायती भी हमारी इस सोच के खिलाफ हैं, बहुत से महिला आंदोलनकारियों को यह कानूनी दर्जा महिलाओं को नुकसान पहुंचाने वाला लगता है, और इस पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की बड़ी छोटी सीमाओं के भीतर ही हमें ऐसी विस्तृत और विशाल बहस की संभावना दिखती है। सुप्रीम कोर्ट ने आज महज जिंदा रखने के लिए इनके पक्ष में यह आदेश दिया है, लेकिन यह सेक्स वर्करों को अपराधी के दर्जे से अलग करने की सोच दिखाता है। उसी को आगे बढ़ाने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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