विचार / लेख

ऋषि परंपरा के प्रतीक प्रोफेसर खेरा
23-Sep-2020 5:52 PM
ऋषि परंपरा के प्रतीक प्रोफेसर खेरा

-कनक तिवारी
दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी प्रोफेसर पीडी खेरा से हम लोगों का बरसों का परिचयरहा है। कभी पता चला था कि ग्राम लमनी में बैगा आदिवासियों के बीच कोई एक व्यक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकी से सेवानिवृत्त होने के बाद उनमें रच बस गया है। उनसे बार बार मिलना हुआ। लंबी बातें भी हुईं। 

एक बार अपने सात्विक अहंकार में हम कुछ मित्रों ने कुछ पुराने कपड़े इक_े किए अन्य सामानों के अतिरिक्त। उन्हें जा कर बैगा बच्चों और पुरुषों महिलाओं आदि के लिए देने की पेशकश की। दवाइयां खाद्य सामग्री आदि उन्होंने स्वीकार कर लीं। लेकिन अपनी अत्यंत संजीदगी और विनम्रता में बोले पुराने कपड़े इन्हें नहीं देना चाहिए। उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचती है। उन्हें लगता है कि वे समाज की अतिरिक्ताए हैं। हम शर्मसार हो गए और तत्काल हमने बिलासपुर लौट कर अपने आप को संशोधित किया और बच्चों के लिए नए कपड़े और खाद्य सामग्री वगैरह फिर से उन्हें भिजवाई। 

रायपुर में समाजशास्त्रियों के एक सम्मेलन में व्याख्यान देने बुलाया था। तब बहुत कम लोगों को समझ में आया था इस व्यक्ति को यहां बुलाए जाने का क्या अर्थ हो सकता है। उनकी कोई कुटिया जाकर देखे या उसे पोस्ट कर दे वह तस्वीर यदि किसी के पास है। तो मैं कह सकता हूं जिम्मेदारी के साथ कि गांधी की कुटिया भी इतनी अकिंचन नहीं थी नहीं थी। एक बार ही अपना भोजन पकाते और वही भोजन करते। इतनी सादगी बल्कि गरीबी ऐसा लगता था कि झोपड़ी में गांधी के अनुसार समाज का अंतिम व्यक्ति रहता है। आज हमारे समाज के हमारे छत्तीसगढ़ के मनुष्यता के सिरमौर हैं।

प्रोफेसर खेरा चले गए। आखिरी कुछ वर्षों में भी बहुत बीमार रहे हैं। उनके इलाज का प्रबंध तो हो सा गया था छत्तीसगढ़ में बिलासपुर में किया गया। लेकिन उम्र और स्वास्थ्य कभी किसी का साथ बहुत दिन तक नहीं देते। उन्होंने अपना पूरा जीवन छत्तीसगढ़ के बैगा आदिवासियों की सेवा में लगा दिया। सरकार ने बहुत देर से उनकी प्रतिभा को उनके महत्व को उनकी सेवा को पहचाना और कुछ उनके लिए करने की कोशिश की। तब तक देर हो चुकी थी। लेकिन केवल श्रद्धांजलि देने से काम नहीं बनेगा। जो काम उन्होंने अपने हाथ में लिया था। वह काम सरकार को अपनी कल्याणकारी योजनाओं में शामिल करना चाहिए। 

अभी तो बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। एक एकाकी जीवन जीने वाला महारथी हमारे बीच में से चला गया। उनकी झोपड़ी तो गांधीजी की झोपड़ी से ज्यादा मामूली थी। एक बार अपने हाथ से भोजन बनाना दिन भर उसी को खाना एक ही झोपड़ी में सब कुछ करना वही निवास वहीं सोना वहीं अध्ययन वही सेवा करने का जतन करना। ऐसे ऐसे लोग तो पैदा ही नहीं होंगे लगता है। वे प्राचीन भारतीय ऋषि परंपरा के प्रतीक थे।

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