विचार / लेख

बिहार में कैसे मिला महिलाओं को पीरियड्स लीव का अधिकार
25-Sep-2020 9:28 AM
बिहार में कैसे मिला महिलाओं को पीरियड्स लीव का अधिकार

- सुशीला सिंह

साल 1991, नवंबर महीने में बिहार राज्य में एक अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हुई. हड़ताल कर रहे सरकारी कर्मचारियों की माँग थी कि केंद्र सरकार की तर्ज़ पर ही राज्य में जो वेतनमान लागू किया गया है उसमें हुई विसंगतियों को दूर किया जाए.

इस हड़ताल में एक चार्टर ऑफ़ डिमांड भी बनाया गया था जिसमें सबसे प्रमुख माँग समान वेतनमान लागू करने में विसंगतियों को दूर करना था. इस हड़ताल में स्कूल, यूनिवर्सिटी टीचर्स, बोर्ड कॉर्पोरेशन और बिहार राज्य कर्मचारी महासंघ भी शामिल था.

अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन(ऐपवा) की राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी कहती हैं कि उस दौर में महिलाएं आंदोलन में बहुत सक्रिय हो रही थीं और 1985 में ही किसान और मज़दूर अपने अधिकारों और सामंतवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे और इसमें ग्रामीण और निम्नवर्गीय महिलाएं भी शामिल होने लगी थीं.

मीना तिवारी कहती हैं कि इन आंदोलन में महिलाओं के मुद्दों पर भी चर्चा होने लगी और उनके अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठने लगी थी. इसमें संविधान में मिले अधिकार के बावजूद महिलाओं को वोट से दूर रखना, बराबर मज़दूरी की माँग जैसे मुद्दे गांव, देहात में महिलाएं उठा रही थीं. वहीं, शहरों में युवा महिलाओं पर भी इन मुद्दों का असर हो रहा था. राज्य में बुद्दिजीवी महिलाएं और कामकाजी महिलाएं, उनके लिए हॉस्टल और क्रेच की सुविधा देने की माँग उठाने लगीं. वहीं, इस बीच सरकारी कर्मचारियों का ये आंदोलन भी ज़ोर पकड़ रहा था.

जब ये हड़ताल चल रही थी उस दौरान सरोज चौबे ऐपवा में सचिव के पद पर थीं.

वे बताती हैं कि सरकारी महिला कर्मचारियों की संख्या बहुत कम थी और महिला संगठनों ने जब उन्हें हड़ताल में शामिल होने को कहा था तो उनमें हिचकिचाहट भी थी क्योंकि उनका मानना था कि जब इसमें पुरुष शामिल हो रहे हैं तो उनका बैठकों या आंदोलन में भाग लेने का क्या काम.

लेकिन अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ द्वारा संचालित इस हड़ताल में धीरे-धीरे महिला कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स और टाइपिस्ट जुड़ती चली गईं. जब समस्याओं पर चर्चा हुई और सारी माँगों को सूचीबद्ध किया जा रहा था तभी हड़ताल में शामिल महिलाओं की तरफ़ से ये माँग उठी थी कि पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए.

कैसे माने लालू प्रसाद

उस समय राज्य के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव. ये वो ज़माना था जब नीतिश कुमार जनता दल में ही थे.

अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष रामबलि प्रसाद कहते हैं कि केंद्रीय और राज्य स्तर पर समान वेतनमान के बीच विसंगतियां दूर करने और तमाम माँग मनवाने के लिए कोशिशें हो रही थीं और सरकार को ज्ञापन दिए भी गए लेकिन समाधान की ओर चीज़ें बढ़ती नज़र नहीं आ रही थीं.

फिर हमने हड़ताल करने की ठानी. वे बताते हैं कि इस दौरान मुख्यमंत्री और उनके प्रतिनिधियों के साथ कई बैठकों का दौर चलता था. जब पीरियड्स लीव वाला फ़ैसला लिया गया तो उस बैठक में रामबलि प्रसाद मौजूद थे.

रामबलि प्रसाद बताते हैं, ''मुख्यमंत्री और प्रतिनिधियों के साथ बैठक कई घंटे चलती थी. कई बैठक तो रात के आठ-नौ बजे शुरु होती और रात के दो बजे तक चलती रहती. जब हमारी माँगों पर चर्चा हो रही थी उसी समय महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान तीन दिन की छुट्टी का मुद्दा भी उठा. लालू प्रसाद ने उसे सुना और क़रीब पाँच मिनट के लिए चुप रहे और फिर इस पर सहमति जताते हुए कहा कि दो दिन छुट्टी दी जा सकती है और अपने अधिकारी को उसे नोट करने को कहा.''

बिहार सरकार की तरफ़ से राज्य की सभी नियमित महिला सरकारी कर्मचारियों को हर महीने दो दिनों के विशेष आकस्मिक अवकाश की सुविधा देने का फ़ैसला लिया गया.

बिहार में महिलाओं को पीरियड्स के दौरान मिली ये दो दिन की छुट्टी एक बड़ा और आंदोलनकारी क़दम था और शायद बिहार उस समय पहला ऐसा राज्य था जिसने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए इस तरह का ऐलान किया था.

महिलाओं को सुविधा देने वाले इस फ़ैसले ने उनके लिए रास्ते तो खोल दिए थे लेकिन शर्म और झिझक का दरवाज़ा खुलना अभी बाक़ी था.

किसने खोला ये दरवाज़ा

प्रोफ़ेसर भारती एस कुमार पहली महिला मानी जाती हैं जिन्होंने यूनिवर्सिटी के स्तर पर ये लीव या छुट्टी लेने की शुरुआत की थी. वे उस समय पटना यूनिवर्सिटी में इतिहास के पीजी विभाग में प्रोफ़ेसर थीं.

उनका कहना है कि सरकार की तरफ़ से आदेश तो जारी हो गया था लेकिन यूनिवर्सिटी में इस अधिसूचना को नहीं लगाया गया था और वो कहीं फ़ाइल में बस पड़ा हुआ था.

जो हड़ताल हुई थी उसमें पटना यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (PUTA) और फ़ेडेरेशन ऑफ़ यूनिवर्सिटी (सर्विस) टीचर्स एसोसिएशन ऑफ़ बिहार(FUSTAB) भी शामिल हुआ था.

हम लोगों ने एसोसिएशन से भी पूछा कि इस बात पर सहमति बनी है न कि छुट्टी दी जाएगी, तो उन्होंने भी कहा कि ये फ़ैसला लिया जा चुका है और आदेश भी जारी किया जा चुका है. लेकिन वो बात यूनिवर्सिटी में सर्कुलेट होकर हम तक नहीं पहुँच रही थी. हम इस लीव को लेकर चर्चा करते थे लेकिन महिला शिक्षिकाएं इसे लेने में झिझक रही थीं.

वे बताती हैं, ''मैंने ये ठान लिया था कि मैं अपने पीरियड्स के लिए छुट्टी लूंगी. मैंने कहा कि मैं इसकी शुरुआत करुंगी. जब मेरे पीरियड्स का समय आया तो मैंने इस बारे में चिट्ठी लिखी और मेरे विभाग के हेड को दी. उन्होंने पहले मेरी चिट्ठी को देखा और फिर मुझे. मैंने चिट्ठी तो दे दी थी लेकिन मेरे पांव कांप रहे थे और मुझे बहुत झिझक भी हो रही थी. क्योंकि हमने तो बचपन से कभी पीरियड्स के बारे में खुलकर किसी से बात ही नहीं की थी और न कोई करता था. जब उन्होंने उस चिट्ठी को साइन करके क्लर्क को बढ़ाया. उनके चेहरे पर तंज़ वाली मुस्कराहट आई जैसे ये कहना चाहते हों कि अच्छा अब तुम लोगों को इसके लिए भी छुट्टी चाहिए''.

इसके बाद मैंने टीचर्स लेडीज़ क्लब में जाकर बताया कि हम जीत गए तो उन्होंने पूछा कि क्या मतलब? तो मैंने कहा कि मुझे छुट्टी मिल गई तो उन्होंने कहा कि अरे आपको मिल गई है तो हम भी अप्लाई कर सकेंगे.

वे बताती हैं कि छुट्टी तो मिल गई थी और ये हमारा हक़ भी था लेकिन इस छुट्टी के लिए आवेदन देने में महिलाओं को झिझक थी और उस टैबू को तोड़कर निकलने में वक़्त लगा लेकिन महिलाएं धीरे-धीरे आगे आईं और छुट्टी लेने लगीं.

क्या राज्यों में हो सकता है ये प्रावधान

नीति आयोग में लोकनीति विशेषज्ञ उर्वशी प्रसाद का भी कहना है कि बिहार में महिलाओं का अनुभव अच्छा रहा है. ये अब वहां एक समान्य चीज़ बन गई है और आपको पीरियड्स के वक़्त छुट्टी लेने के लिए कोई बहाने या कारण देने की ज़रुरत नहीं पड़ती.

अरुणाचल प्रदेश से आने वाली सांसद, निनांग एरिंग ने एक प्राइवेट मेंबर बिल, मेन्सटूरेशन बेनीफ़िट 2017 में लोकसभा में पेश किया था. इस बिल में सरकारी और नीजि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान दो दिन की छुट्टी देने का प्रस्ताव दिया गया. साथ ही ये पूछा गया था कि सरकार क्या ऐसी किसी योजना पर विचार कर रही है. इस पर महिला और विकास मंत्रालय ने कहा था कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है.

यहां ये सवाल उठता है कि क्या अपने स्तर पर राज्य सरकारें इस तरह का क़दम नहीं उठा सकती हैं?

उर्वशी प्रसाद कहती हैं कि इस मुद्दे पर महिलाओं को आगे आना होगा और सरकार को हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से पूछना चाहिए कि क्या इसकी ज़रुरत है? क्या इससे लाभ होगा?

क्योंकि जब मैटरनीटी लीव में छह महीने का प्रावधान किया गया तो कई संस्थानों की तरफ़ से ये भी कहा गया कि महिला को क्यों लें, उन्हें छह महीने की छुट्टी देनी पड़ेगी. ऐसे में कई चीज़ें महिलाओं की भलाई के लिए की जाती हैं और वो उनके लिए ही उल्टी साबित हो जाती हैं.

वहीं, कई बार समानता का भी सवाल उठता है कि महिला और पुरुष बराबर हैं तो ये छुट्टी क्यों? लेकिन इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता कि महिला और पुरुष का शरीर अलग है, उसे पीरियड्स होते हैं और वो मां बन सकती है जो पुरुष का शरीर नहीं कर सकता. ऐसे में ये तर्क ही बेमानी हो जाता है.

उर्वशी प्रसाद भी कहती हैं कि कई महिलाओं को पीरियड्स के दौरान ज़्यादा तकलीफ़ होती है, किसी को कम और किसी को बिल्कुल नहीं होती है. ऐसे में छुट्टी, घर से काम करने की आज़ादी जैसी सुविधा दी जानी चाहिए. जहां अब कोविड ने साबित कर दिया है कि घर से भी काम हो सकता है और सरकारी कर्मचारी तक कर रहे है. हां जो फ़ैक्टरी में काम करती हैं उनके लिए ये नहीं चल पाएगा इसलिए लचीला होने की ज़रुरत है. साथ ही जब समानता की बात होती है तो सरकारी नौकरियों में तो महिलाओं को बराबर वेतन मिलता है लेकिन निजी संस्थानों या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले कम वेतन मिलता है तो समानता की बात तो वहीं झूठी साबित हो जाती है.

उनके मुताबिक़ ये बात भी बेमानी है कि इस तरह की लीव का महिलाएं फ़ायदा उठाती हैं. वे कहती हैं कि कुछ मामलों में ऐसा हो सकता है लेकिन पुरुष भी ऐसे मामलों में फ़ायदा उठाते हैं. लेकिन राज्य सरकारों के स्तर पर ऐसी लीव का प्रावधान आएगा तो उसे लागू करना भी आसान हो सकता है.(bbc)

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