विचार / लेख

सुप्रीम कोर्ट से गुहार : चैनलों ने मचा रखा है आतंक
26-Sep-2020 4:27 PM
सुप्रीम कोर्ट से गुहार : चैनलों ने मचा रखा है आतंक

कार्टूनिस्ट अलंकार गोस्वामी

हुजूर जागिए! कुछ रहम कीजिए!

-समरेन्द्र सिंह

आज दो वीडियो वायरल हुए हैं। अर्णब गोस्वामी के चैनल रिपब्लिक भारत की महिला रिपोर्टर दीपिका पादुकोण की गाड़ी का पीछा कर रही है। बीच सडक़ में रिपोर्टर का ड्राइवर अपनी कार को दीपिका की कार से बगल में ले आता है। रिपोर्टर शीशा खोल कर चीखते हुए चलती गाड़ी से दीपिका से सवाल पूछने लगती है। 

दूसरा वीडियो अशोक सिंघल का है। ये अरुण पुरी के चैनल आज तक (कभी ये सर्वश्रेष्ठ चैनल हुआ करता था) के बड़े रिपोर्टर हैं। राजनीतिक संपादक भी रह चुके हैं। ये भी दीपिका की गाड़ी का पीछा कर रहे थे। मैं दोनों दृश्य देख कर घबरा गया। लगा कि जैसे पापारात्सी ने मिलकर प्रिसेंस डायना की जान ले ली थी, वैसे ही किसी दिन हमारे देश के ये महान पत्रकार किसी मासूम की हत्या कर देंगे। और अपनी खोह में छिपे हम लोग बुजदिलों की तरह तमाशा देखते रह जाएंगे। 

कुछ दिन पहले मैंने डेमोक्रेसी कैसे मरते हैं नाम की किताब का जिक्र किया था। उस किताब में बहुत अच्छे से बताया गया है कि किसी मुल्क में रैफरी जब सरकार से गठजोड़ कर लेता है तो उस मुल्क में लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। वह देश हार जाता है। फिर वहां के लोग त्रासद जिंदगी जीते हैं। किताब में वेनेजुएला, पेरू समेत कई देशों के उदाहरण दिए गए हैं। 

इसलिए रैफरी का निष्पक्ष रहना बहुत जरूरी है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रैफरी की भूमिका अदालत की होती है। संविधान सही से लागू हो रहा है या नहीं-यह देखने की जिम्मेदारी कोर्ट की है।

यहां मैं आपको छोटा सा किस्सा सुनाता हूं। करीब 11 साल पहले मुझे अपनी वेबसाइट जनतंत्र पर छापने के लिए कुछ गोपनीय दस्तावेज मिले थे। वो दस्तावेज ऐसे मामले से जुड़े थे, जिसकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही थी। मैं कानूनी सलाह के लिए अपने वकील मित्र के पास पहुंचा। उन्होंने ऐसी बात बताई, जो मुझे अब भी याद है। शायद ताउम्र याद रहे।

उन्होंने कहा कि किसी ताकतवर व्यक्ति या संगठन से लड़ लो, देख लिया जाएगा। चाहो तो सरकार से लड़ लो-उसे भी देख लेंगे। लेकिन अदालत से मत लड़ो। बाकी सबसे लड़ोगे तो अदालत है बचाने के लिए। लेकिन जब अदालत से ही लड़ लोगे तो कौन बचाएगा? अदालत का कोई फैसला गलत है तो सम्मानजनक तरीके से उसकी आलोचना करो। लेकिन उसके किसी काम में दखल मत दो। अगर कोर्ट और उसमें भी सुप्रीम कोर्ट खिलाफ गया तो फिर कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी।

बात सही है। अदालत नाराज हो जाए तो फिर भुगतना ही होता है। अतीत में अनेक ताकतवर लोगों ने भुगता है। लेकिन भुगतना तब भी होता है जब अदालत सहयोग करने लगे। न्याय में नहीं बल्कि सरकार के अन्याय में। मीडिया के अन्याय में। नुकसान तब भी होता है जब अदालत सिस्टम के ताकतवर धड़े के अपराधों को रोकने की जगह, संविधान की रक्षा करने की जगह-मौन हो जाए। सलेक्टिव हो जाए। तब देश और समाज भुगतान करता है।

यही नहीं तमाम जांच एजेंसियों से भी तटस्थता की उम्मीद की जाती है। सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, एनसीबी और पुलिस-ये सब कानून व्यवस्था का हिस्सा हैं। जांच की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है। इन्हें निष्पक्ष रहना चाहिए। लेकिन अभी लग रहा है कि ये सब मिल कर हुकूमत कर रहे हैं। जब जांच एजेंसियां सियासी औजार बन जाएं और लोकतांत्रिक आवाजों को खामोश करने में जुट जाएं तो फिर लोकतंत्र बचाने की महती जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर ही रहती है। और अगर वो भी मौन हो जाए तो फिर लोकतंत्र बचेगा कैसे?

अब लौटते हैं मीडिया की उस अराजक भूमिका पर जिससे मैंने ये पोस्ट शुरू किया था। हमारे कानूनों में फ्री स्पीच और हेट स्पीच का अंतर अच्छी तरह दर्ज है। हमारे यहां हेट स्पीच पर सजा का प्रावधान भी है। हमारे संविधान में निजता का अधिकार भी दिया गया है। लेकिन हेट स्पीच और निजता हनन के मामलों में सुप्रीम कोर्ट खामोश है। वह सत्ता के विरुद्ध तन कर खड़े व्यक्तियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ सुनियोजित प्रोपगैंडा को चुपचाप देख रहा है। यह एक किस्म का मूक समर्थन है।

मैं और मेरे जैसे तमाम लोग यह सोच नहीं पा रहे हैं कि अदालतें ऐसे मामलों में मौन कैसे रह सकती हैं? माननीय न्यायाधीशों की न्यायिक चेतना कहां चली गई है? क्या उन्हें संविधान और मानवता के विरुद्ध चल रही ये साजिशें नजर नहीं आ रही हैं? अगर नजर नहीं आ रही है तो फिर ऐसा क्यों नहीं समझा जाए कि ये सभी न्यायाधीश बनने के काबिल नहीं है? और अगर नजर आ रही है और फिर भी खामोश हैं तो फिर यह क्यों नहीं समझा जाए कि मीडिया और सरकार के अपराधों में ये सब सम्मिलित हैं?

मैं जानता हूं कि मैं जो बोल रहा हूं उससे न्यायाधीशों को बुरा लग सकता है। इसलिए मैं अग्रिम माफी मांगता हूं। लेकिन जो हो रहा है वह और भी खतरनाक है। किसी चैनल का कोई संपादक लोगों को खुलेआम अपराधी बता रहा है। और अदालत चुप है। क्या न्यायाधीशों को यह नहीं पता कि कोर्ट द्वारा गुनहगार ठहराए जाने से पहले किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता है? अगर कोई कहता है तो यह न्याय की अवहेलना है? 

कोई संपादक अपने रिपोर्टरों को किसी की गाड़ी का पीछा करने को कहता है। उसके रिपोर्टर पीछा करते हैं और चलती गाड़ी से चीख-चीख कर सवाल पूछते हैं। 
आसपास सभी लोगों की जान संकट में डालते हैं। क्या यह लोगों की जान से खिलवाड़ नहीं है? क्या ये किसी की निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? क्या यह न्याय व्यवस्था को धत्ता बताने की कोशिश नहीं है? 

कोई चैनल मुसलमानों के खिलाफ निरंतर साजिश करता है, उनके खिलाफ जहर उगलता है, लोगों को हिंसा के लिए उकसाता है-क्या यह भारत की धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाना नहीं है, उसे संकट में डालना नहीं है? लोगों की जान और माल को संकट में डालना नहीं है?

इसलिए मैं दोनों हाथ जोडक़र सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश कर रहा हूं कि वो इन मामलों का संज्ञान लें और कोई ठोस कदम उठाएं। वरना आने वाली पीढिय़ों की नजर में हम सब गुनहगार साबित होंगे। हमारा भविष्य जब हमारे वर्तमान को इंसाफ और इंसानियत के तराजू पर तौलेगा तो न्याय की तुलना में अन्याय का पलड़ा भारी होगा। और इस अन्याय की सबसे बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही कोर्ट की होगी। माननीय न्यायाधीशों की होगी। इसलिए कि न्याय का अधिकार और दायित्व उन्हीं का है। हमारे संविधान ने ये अधिकार और दायित्व ना तो किसी नरेंद्र मोदी को दिया है और ना ही किसी अर्णब गोस्वामी को।

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