संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक महत्वपूर्ण मामला सुना गया, और अदालत ने उस पर कड़ा रूख दिखाते हुए एक हुक्म भी दिया। देश के सबसे साम्प्रदायिक-भडक़ाऊ चैनल, सुदर्शन टीवी को मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए जाना जाता है। इसके तेवर किसी समाचार माध्यम से अलग, तलवार लेकर खड़ी हुई किसी फौज सरीखे दिखते हैं। जब इसने साम्प्रदायिकता उफनाते हुए एक कार्यक्रम प्रसारित करने की घोषणा की, तो वह घोषणा ही लोकतंत्र की बुनियादी समझ को हिला देने वाली थी। कुछ लोग इसके खिलाफ अदालत तक गए, और अदालत ने केन्द्र सरकार से भी जवाब-तलब किया। आज यहां लिखने का मुद्दा इसी जवाब को लेकर खड़ा हो रहा है जो कि केन्द्र ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी नाम के इस हमलावर चैनल के इस कार्यक्रम पर रोक लगाते हुए इस पूरे मामले पर सरकार से जब जवाब मांगा तो सरकार ने इस मुद्दे को लात मार-मारकर किनारे नाली में गिरा दिया, और अपना पूरा जवाब डिजिटल मीडिया पर काबू करने के बारे में दिया। डिजिटल मीडिया सुप्रीम कोर्ट में मुद्दा ही नहीं था, मुद्दा था टीवी चैनल। सरकार ने कहा कि प्रिंट और इलेक्ट्र्रॉनिक मीडिया को नियंत्रित करने के लिए तो देश में बहुत से नियम पहले से हैं, आज उनसे अधिक जरूरत डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने की है। यह कुछ उसी किस्म का हुआ कि अदालत ने वेलेंटाइन डे पर बाग-बगीचों में दोस्त या प्रेमीजोड़ों पर होने वाले हमलों के बारे में पूछा, और सरकार ने बगीचे के पेड़ों पर लगे कीड़ों के बारे में जवाब दिया। केन्द्र सरकार की इस खास टीवी चैनल के लिए हमदर्दी कोई सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर ही नहीं दिखती, जहां पर इसका नाम लिए बिना भी केन्द्र सरकार ने इसे बचाने के लिए कमर कस रखी दिखती थी। केन्द्र ने पूरी बहस को पटरी से उतारने की पूरी कोशिश की, और पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की इस नीयत और हरकत पर कोई कड़ी टिप्पणी की है या नहीं। ऐसी कोई बात हमारे पढऩे में नहीं आई है, लेकिन हम अपने पढ़े हुए को ही सब कुछ मानकर इस बारे में कोई टिप्पणी करना नहीं चाहते।
देश के कई मीडियाकर्मियों ने केन्द्र सरकार की इस चतुराई को समझते हुए सवाल किया है कि जब मुद्दा एक टीवी चैनल को लेकर था, और केन्द्र सरकार टीवी चैनलों के लाइसेंस देने के लिए हजार किस्म के नियम लगाती है, बहुत कड़ी शर्तें रखती है, तब फिर किसी चैनल के ऐसे लगातार भडक़ाऊ और साम्प्रदायिक प्रसारण पर उसने उन नियमों के तहत क्या किया जिनका वह हवाला अपने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट में दे रही थी? और मानो इस चैनल को कटघरे में अकेले छोडऩे के बजाय उसमें तमाम डिजिटल मीडिया को और ठेल दिया।
अब सवाल यह है कि जिस देश में एक टीवी चैनल शुरू करने के लिए लाइसेंस पाने को लोगों को बरसों लग रहे हैं, और सरकार खुफिया रिपोर्ट से लेकर पुलिस रिपोर्ट तक तमाम चीजें जुटाती हैं कि कोई गलत व्यक्ति टीवी चैनल का मालिक न हो जाए, उस देश में एक चैनल इस तरह लगातार हिंसक और साम्प्रदायिक, और शाब्दिक अर्थों में तस्वीरों और वीडियो के साथ तलवार और कटार लिए हुए चैनल संपादक को दिखाते हुए हमलावर बना हुआ है, और उस पर कोई कार्रवाई करने के बजाय केन्द्र सरकार उसके इर्द-गिर्द दूसरे लोगों को संदिग्ध बताते हुए भीड़ लगा दे रही है, यह बात पूरी तरह हैरान करने वाली है, या सच कहें तो हैरान नहीं भी करती है।
हिन्दुस्तान में मीडिया पर निगरानी रखने वाली तमाम संवैधानिक और निजी संस्थाएं पूरी तरह कागजी और बोगस साबित हो रही हैं। देश में पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत तय करने और लागू करने का काम आखिरी बार श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन के वक्त हुआ था, जहां वह आंदोलन खत्म हुआ, वहां नीति-सिद्धांत भी उसके साथ ही दफन हो गए। उस वक्त देश के शहरों में वही कर्मचारी-संघ काम करता था, आज वह गायब हो गया, और अब प्रेस क्लब नाम की एक संस्था देश भर के शहरों में हर जगह काबिज हो गई जिसका पेशेवर नीति-सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है, और जो पत्रकारों के अपने हित की बात करने वाली, उनके मनोरंजन का ख्याल रखने वाली संस्था रह गई है। हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इसी केस में जब टीवी समाचार चैनलों के खुद के संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन में हलफनामा दिया, तो उसने कहा कि वह सिर्फ अपने सदस्यों के कामकाज के लिए जवाबदेह संगठन हैं, और यह चैनल एसोसिएशन का सदस्य नहीं है, इसलिए इस संगठन के कोई नियम-कायदे उस पर लागू नहीं होते।
अब यहां पर दूसरा सवाल यह उठता है कि इस एक समाचार चैनल को निशाना बनाने के बजाय देश के बाकी समाचार चैनलों की बात की जाए, तो उनमें से बहुतायत निहायत गैरजिम्मेदार साबित हो रहे हैं, और अपने आपको एक-दूसरे से और अधिक गैरजिम्मेदार बनाने पर आमादा हैं। पिछले दिनों एक चैनल के जीवंत समाचार-बहस प्रसारण में एक रिटायर्ड फौजी जनरल ने दूसरे पैनलिस्ट को खुलकर मां की गाली दी, और उस पर आज तक कोई कार्रवाई सुनाई नहीं पड़ी है। अब केन्द्र सरकार जिन नियमों के तहत देश भर के इक्का-दुक्का चैनलों को साल भर में एक-दो दिन प्रसारण रोकने, या माफीनामा दिखाने का हुक्म दे दी है, हमें तो याद नहीं पड़ता कि इस फौजी जनरल की सबसे मोटी गाली के बाद भी उस चैनल का लाइसेंस सस्पेंड हुआ हो, या उसे माफीनामा दिखाना पड़ा हो। सरकार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के लिए जिस किसी नियम-कायदे की बात अपने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट में कह चुकी है, वे भी नामौजूद और बेअसर से हैं।
देश में आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेकर लोगों के मन में बड़ा रंज है। इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक हिस्सा बाकी हिस्से के खिलाफ लगातार कह भी रहा है, और सोशल मीडिया तो उबला पड़ा है। इस खेल में, दर्शक संख्या वाली टीआरपी के इस खेल में प्रिंट मीडिया के करने का कुछ है नहीं। ऐसे में हम हाल के बरसों में कई बार लिखी गई अपनी बात दुहराना चाहते हैं कि आज के हिन्दुस्तानी समाचार टीवी चैनलों को देखते हुए यहां के प्रिंट मीडिया को अपने आपको मीडिया नाम के दायरे से बाहर ले आना चाहिए, और पहले की तरह अपने आपको प्रेस ही कहना चाहिए। बाकी रह गए मीडिया, और मीडिया नाम का शब्द अपना क्या करना चाहते हैं, वे देखते रहें। प्रेस नाम का शब्द अखबारों के लिए अधिक इज्जत का था, और आज भी मीडिया नाम के शब्द के मुकाबले प्रेस नाम का शब्द अधिक ईमानदार, अधिक साख वाला, और अधिक इज्जतदार बना हुआ है। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह अप्रासंगिक बात कहते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुनवाई में सबको भागीदार बना दिया है, उसका विरोध कोई तभी कर सकेंगे जब वे मीडिया शब्द से बाहर आकर अपने पुराने नाम, प्रेस का इस्तेमाल शुरू करेंगे।