विचार / लेख
रायगढ़ के एक रंगकर्मी अजय अठाले का कोरोना से निधन हो गया। उनके बारे में बहुत से रंगकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर बहुत तकलीफ के साथ श्रद्धांजलि देती है।
अजय अठाले के फेसबुक पेज को देखें तो उन्होंने इसी महीने 8 सितंबर को लिखा था- आज ही के दिन पिताजी ने अंतिम सांसें ली थीं, उनकी स्मृति में करीब 25 बरस पहले एक लेख लिखा था। आज उसे धारावाहिक किस्तों में दे रहा हूं। यह लिखकर उन्होंने 8 सितंबर और 10 सितंबर को दो किस्तें पोस्ट की थीं, और 13 सितंबर के बाद से कुछ और पोस्ट किया ही नहीं। ये दोनों किस्तें मिलाकर भी अधूरी हैं, लेकिन हम इस कभी पूरे न होने वाले क्रमश: के साथ इसे यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। -संपादक
-अजय अठाले
आज के ही दिन पिताजी ने अंतिम सांसे ली थी उनकी स्मृति में एक लेख लिखा था करीब 25 बरस पहले आज उसे धारावाहिक किश्तों में दे रहा हूं
घर के आंगन में लगा आम का पेड़ जब पहली बार बौराया था तब दादा बेतरह याद आये। जाने किसने किस घड़ी में आम खाया और पिछवाड़े आंगन में गुठली फेंक दी, अंकुर फूटा, धीरे-धीरे पौधे ने पेड़ का आकार ग्रहण किया, आई (माँ) हमेशा झल्लाती, ये पेड़ बेकार में ही जगह घेर रहा है, इसे कटवा दो, फल भी तो नहीं लगते हैं। दादा हमेशा की तरह कहते, रहने दो, एक दिन फलेगा और इस तरह वो पेड़ जीवनदान पाता रहा।
दादा की मृत्यु के बाद आए पहले बसंत में ही जब वह पेड़ पहली बार बौराया था , उसे देखकर दादा बहुत याद आये थे, और घूम गया था आंखो के सामने अस्पताल का वह वार्ड , जहाँ अच्छे-खासे,भले-चंगे दादा अचानक ब्रेन हैमरेज हो जाने से भर्ती कर दिए गएथे। सब कुछ छोटे से पल में घटित हो गया था, 15 मिनट के भीतर दादा अस्पताल में थे। ड्रिप लगाई जा चुकी थी, भाभी खुद उसी अस्पताल में डॉक्टर थी, लिहाजा सारा अस्पताल ही मुस्तैदी से लगा हुआ था। नींद का इंजेक्शन भी बेअसर हो रहा था और तकलीफ में दादा झल्ला उठते थे। लेकिन झल्लाहट में भी वाणी पर गजब का संयम था, वही शिष्ट भाषा। सुबह बिल्कुल ठीक लग रहे थे, लगा कल की रात मानो दुस्वपन थी, सुबह चाय पी, मिलने वालों की भीड़ देखकर गुस्सा भी हुए, यह कहते हुए कि तुम लोगों ने मेरा तमाशा बना दिया है, मुझे क्या हुआ है? हम सभी तनावमुक्त महसूस कर रहे थे। लेकिन एक दिन बाद ही जिसे दुस्वपन समझा वही हकीकत निकली, दादा कोमा में चले गये।
डॉक्टर मिश्रा ने रुंधे गले से जब कहा ‘दादा दगा दे गये’ तो लगा मानो पैरों के नीचे से जमीं ही खींच ली गई हो। मैं गिरता चला जा रहा हूं अनंत गहराई की ओर।
किसी तरह संभला, कमरे में आया, देखा लाइफ सेविंग्स ड्रग लगाई जा चुकी है। सभी परिचित आसपास खड़े हैं, बीच-बीच में दादा होश में आते तब अनचीन्ही नजऱों से कुछ ताकते, सब मुझे कह रहे थे कि उनकी अंतिम इच्छा पूछ लो। हिम्मत नहीं होती थी, जानता था मु_ी से बालू की तरह फिसलकर छूट रहे हैं, पर मन नहीं मान रहा था, उनका वो अनचीन्ही नजरों से कुछ खोजना। जानता था आई को खोज रहे हैं मगर संस्कार गत संकोच अंतिम क्षणों में भी बना हुआ है। आखिर दिल कड़ाकर मैने धीरे से पूछा था ‘आई से कुछ कहना है?’ उनकी आंखों में एक चमक आई, कहा, उनका ख्याल रखना, मुझे आराम करने दो। आंखे मूंद लीं, यही आखिरी संवाद था ‘उनका ख्याल रखना’।
दादा आई को हमेशा बहुवचन में ही संबोधित करते थे। बड़े होने पर हम लोगों के बीच की दूरियाँ कम हो चली थीं और हम लोग दादा से कभी-कभार मजाक भी कर लिया करते थे। एक दिन हम सारे बैठे थे आई कहीं बाहर गई थी, दादा कमरे में आये, नजरें घुमाई, धीरे से पूछा ‘सब लोग कहां हैं?‘ मै मजाक के मूड मे था, कहा ‘यहीं तो बैठे हैं सब लोग’ उन्होंने हल्की संकोचभरी मुस्कान से पूछा ‘बाकी लोग कहां हैं?’ हंसी दबाते हुए हमें बताना ही पड़ा आई काम से बाहर गई है।
सचमुच आई दादा के लिए ‘सब लोग’ ही थी। तमाम जिंदगी सारी जिम्मेदारियों को ओढक़र दादा को दुनियाबी बखेड़ो से दूर रखने वाली! हमारा बचपन आई के सामीप्य में ही गुजरा, दादा को हमने दूर से ही देखा और व्यस्त पाया। ऑफिस में अपने मुवक्किलों के साथ, या फिर फुर्सत के क्षणों में किसी मोटी सी किताब के पन्नों के बीच खोए हुए।
क्रमश:
दादा : एक आदमकद पिता
हमारे जमाने में पिता से बच्चों की एक स्वाभाविक दूरी ही होती थी और माँ हमेशा पुल का काम करती थीं। बच्चों के लिए दूरी के बावजूद पिता हीरो की तरह होते थे। मानो हर बच्चे का पिता उनके लिए नेहरू की तरह होता था जो उन्हें इतिहास की झलक दिखलाता था।
दादा को अध्ययन का बहुत चस्का था और यह शायद उन्हें उनके पिता लक्ष्मण गोविंद आठले से मिला था जो उस जमाने में अच्छे लेखक भी थे और हंस और सरस्वती में छपा करते थे। उनका एक लेख पुरी का गरजता समुद्र लेखक पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले, पाठ्य पुस्तक मे भी था उनका देहांत बहुत जल्द हो गया था। बुआ ने यह किस्सा सुनाया था रि जब पहली बार उसने यह लेख पढ़ा और लेखक का नाम पढ़ा तो घर आकर उसने दादी से पूछा कि ये पंडित लक्ष्मण गोविंद आठले कौन हैं? तो दादी ने कहा था हां तेरे पिताजी लिखा करते थे कुछ-कुछ। मेरे सामने डॉक्टर सी वी रमन की घटना याद आ गई, उन्होंने जिक्र किया है कि जब माँ को पता चला कि उन्हें रमन इफेक्ट के लिए नोबल मिला तो उसने पूछा कि क्यों मिला है? जब डॉक्टर रमन ने उन्हें सरल शब्दों में रमन इफेक्ट समझाया तो उनकी माँ ने कहा इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा ईनाम?
बुआ की हालत भी डॉक्टर रमन की तरह हुई होगी।
लक्ष्मण गोविंद आठले जी की भी बहुत बड़ी लायब्रेरी थी और दादा को भी अध्ययन का चस्का यहीं से लगा होगा, अच्छा साहित्य खरीदकर पढऩा उनकी आदत में शुमार था, फटा कोट सिलकर पहनो मगर किताबें नई खरीदकर पहनो, ये मानो मंत्र था उनके जीवन का, किसी भी नई किताब के बारे में पता चलते ही उसे खरीदने को आतुर रहते थे, घर की सारी अल्मारियां किताबों से अटी पड़ी होतीं, पढऩा और मित्रों को पढ़वाना यही शौक था, इस चक्कर में कई किताबें गुम हो जातीं मगर उन्हे फर्क नहीं पड़ता था।
अच्छी किताबें पढऩा यही वो बिन्दु था, जहाँ मेरे दादा से तार जुड़ते थे, आग भी उन्हीं की लगाई हुए थी। बचपन में गर्मियों की दुपहरी हमारे लिए कष्टप्रद होती थी तब दादा के कोर्ट की भी छुट्टियां होती थीं और दादा दोपहर भर घर मे ही रहा करते थे। घर पर दादा की उपस्थिति मात्र का आतंक हमे मनचाही बदमाशियों से रोकता था। दादा कभी कभी अपने कमरे मे बुला लिया करते, लेंडस एण्ड द पीपुल या बुक ऑफ नोलेज के वॉल्यूम में से कुछ पढऩे के लिए दे देते और मुझे लगता कि स्कूल की छुट्टियों का सारा मज़ा ही खत्म हो गया, पढ़ते वक्त अगर समझ ना आए तो समझाया भी करते थे, मगर बाल सुलभ मन तो रेत के घरौंदे बनाने, कच्चे आम तोडऩे की योजना बनाने और पतंग उड़ाने को आतुर रहता था। ऐसी ही दुपहरी में दादा ने एक कहानी सुनाई थी तब बाल सुलभ मन को उसके गहरे अर्थ पता नहीं चले थे। बड़े होकर यह कहानी ज्यादा समझ में आई और आज भी मंै बच्चों के थिएटर वर्कशाप में जरूर सुनाता हूं। कहानी कुछ ऐसी है- एक बार एक टीचर ने स्कूल में बच्चों को सबक दिया कि कल सब लोग एक कहानी लिखकर लाना जो सबसे अच्छी कहानी लिखेगा उसे ईनाम दिया जाएगा। सब खुशी-खुशी चले गए, एक बच्चा उदास बैठा था टीचर ने उससे पूछा तो बच्चे ने कहा कहानी कैसे लिखें? टीचर ने कहा कि तुम एक जगह चुपचाप बैठकर देखते रहो क्या हो रहा है उसे नोट कर लेना और लिख देना कहानी बन जायेगी। बच्चा खुश होकर चला गया, दूसरे दिन टीचर ने सभी बच्चों से कहानी सुनी सभी ने किसी ना किसी किताब से पढ़ी कहानी सुनाई। इस बच्चे से जब पूछा तो इसने डरते-डरते कहा कि एक लाईन की लिखी है टीचर ने कहा सुनाओ, लडक़े ने हिचकते हुए सुनाई सूं!!!!!!! सर्र!!!!!!!! खट्ट!! बें!!!!!!पट्ट!! गुड गुड गुड गुड डब्ब
सारे बच्चे हॅंसने लगे, टीचर ने बच्चों को शांत कराया फिर बच्चे से पूछा ये तुमने क्या लिखा है? बच्चे ने कहा टीचरजी जैसा आपने कहा वैसे ही मंै कॉपी लेकर खेत में चला गया देखा कि एक खेत के किनारे एक बेल का झाड़ है पास ही कुआं है और वहीं एक बकरी चर रही है अचानक जोरों की हवा चलने लगी सूं!!!!!! सर्र!!!!!! तभी झाड़ से एक बेल टूटा खट्ट!!!! वो सीधे बकरी के सिर पर गिरा बकरी चिल्लाई बें!!!!!!! फिऱ बेल जमीन पर गिर पट्ट!!!!! और लुढक़ते-लुढक़ते कुएं में गिरा तो आवाज हुई गुड़ गुड़ गुड़ गुड़ डब्ब मैंने वही लिख दिया है। टीचर ने कहा शाब्बास बेटा तुमने अपने अनुभव से मौलिक रचना की है इसलिए पहला ईनाम तुम्हें ही मिलता है। तब यह कहानी दूसरे कारणों से अच्छी लगी थी अब अर्थ समझ आया। ऐसे ही एक बार पढऩे की कोशिश कर रहा था तो एक चैप्टर डू इट यौर सेल्फ में बूमरैन्ग के विषय में बताया गया था कि कैसे गत्ते के टुकड़े को काटकर बूमरैन्ग बनाया जा सकता है! प्रयोग करके देखा, सफल हुआ, फिर तो धीरे-धीरे उसके सभी वॉल्यूम पढऩे की कोशिश की और कैलिडास्कोप, प्रोजैक्टर आदि घर पर ही बनाए और पुस्तकों के प्रति मोह जागा वो फिर छूटा ही नहीं। बड़े होने पर उन्हीं के सुझाव पर प्रिजन एण्ड द चॉकलेट केक, गुड अर्थ, वार एंड पीस, आई एम नाट एन आइलेंड, ग्लिम्प्सेस ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री आदी पढ़ी।
किन्ही खास मौकों पर भी उन्हें वस्तु के बदले पुस्तक भेंट की जाय तो वे बहुत खुश होते थे, उनकी इस कमजोरी का मंैने भी फायदा उठाया है, एक बार रायपुर गया था और नियत तारीख पर लौट नहीं पाया, जानता था कि अब डांट पड़ेगी सो वापसी में फ्रीडम ऐट मिड नाईट और नाच्यो बहुत गोपाल खरीद ली। देर रात एक्सप्रेस से वापस लौटा और दोनों किताबें टेबल पर इस तरह रख दीं कि सीधे उनकी नजर पड़े, परिणाम अपेक्षित थे। किताबें देख खुश हुए और आई को कहा कि हजरत को मालूम था कि डांट पड़ेगी तो खुश करने के लिए किताबें लाए हैं।
जैसे आजकल के मां-बाप को अपने बच्चों को प्यार से आतंकवादी कहते सुना है इसके ठीक विपरीत दादा जब प्यार जताना हो तो हजरत कहकर बुलाते थे।
क्रमश: