विचार / लेख
-इमरान क़ुरैशी
ड्रग तस्करों, बॉलीवुड और चंदन तस्करों की कथित साठगांठ को लेकर हाल के सालों में जो सबसे गंभीर चर्चा छिड़ी है उसका असर एंटरटेनमेन्ट और मीडिया जगत समेत कई और क्षेत्रों पर पड़ा है.
बॉलीवुड इंडस्ट्री से जुड़े बड़े नामों से लेकर ड्रग तस्करों के जाल में फंस कर गांजा उगाने वाले छोटे किसानों के जीवन पर इसका कितना असर होगा, ये समझने के लिए अभी और वक्त लगेगा.
लेकिन ऐसा लगता है कि इस विवाद का बड़ा असर गांजे के पौधे के औषधीय गुणों और इसके ग़ैर-नशीले और लत न लगने से जुड़े गुणों को लेकर जारी वैज्ञानिक शोध पर पड़ रहा है.
जांच एजेंसियों और मीडिया का गांजा और कृत्रिम नशीले पदार्थों को एक ही चश्मे से दिखाने का असर ये हो रहा है कि कई लोग अब ये मानने लगे हैं कि गांजे का पूरा पौधा न केवल बुरा है बल्कि बेहद हानिकारक है.
ये हालात तब हैं जब इस पौधे को लेकर किए गए वैश्विक रिसर्च में ये बात सामने आई है कि इसके ग़ैर-नशीले और लत न लगने हिस्सों का इस्तेमाल मिर्गी, मानसिक विकारों, कैंसर के मरीज़ों में दर्द कम करने, कई तरह के स्क्लेरोसिस और त्वचा की बीमारियों में किया जा सकता है.
बेंगलुरु में मौजूद नम्रता हेम्प कंपनी के प्रबंध निदेशक हर्षवर्धन रेड्डी सिरुपा ने बीबीसी को बताया, "इसका असर ये होगा कि गांजे की खेती और इससे इंडस्ट्रीयल और मेडिसिनल प्रोडक्ट बनाने के लिए रीसर्च की अनुमति देने के लिए नियमन प्रक्रिया बनाने का फ़ैसला लेने में अब तीन से चार साल की देरी हो सकती है."
सिरुपा का डर उन व्यवसायियों के डर से मिलता-जुलता है जिन्होंने ये सोच कर इस क्षेत्र में कदम रखा है कि क़ानून में उचित बदलाव के साथ इस पौधे का इस्तेमाल कृषि और बागवानी, कपड़ा उद्योग, दवा और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में किया जा सकता है.
इन उद्यमियों का आकलन है कि साल 2025 तक ये इंडस्ट्री सौ से देढ़ सौ अरब अमरीकी डॉलर की हो सकती है.
भारत में गांजा कितना बड़ा ख़तरा है?
दिल्ली के एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेन्ट सेंटर (एनडीडीटीसी) और मनोचिकित्सा विभाग में प्रोफ़ेसर डॉक्टर अतुल अम्बेकर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "मूल रूप से इस पूरे विषय में कई ग्रे एरिया है. इस मामले में अगर ये तय हो कि क्या मान्य होगा और क्या नहीं तो इससे काफी मदद मिल सकती है. लेकिन आम तौर पर हमारे मौजूदा क़ानून ये संदेश देते हैं कि इससे दूर रहो. इसके नज़दीक जाने की कोई ज़रूरत नहीं है."
विडम्बना ये है कि ये क़ानून उस दौर में मौजूद हैं जब एम्स और एनडीडीटीसी ने देश में की अपनी ताज़ा स्टडी में पाया है कि हमारे समाज को सबसे अधिक ख़तरा कहां से है. इस स्टडी के लिए बीते साल सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय ने आर्थिक मदद दी थी.
डॉक्टर अम्बेकर कहते हैं, "130 अरब की आबादी में क़रीब दो करोड़ लोग भांग (भारत में भांग क़ानूनी तौर पर उपलब्ध होता है), चरस और गांजा जैसे गांजे के पौधे से बने उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं."
"ये देखना भी दिलचस्प है कि वैश्विक औसत के मुक़ाबले भारत में गांजे का इस्तेमाल कम है (3.9 फीसदी बनाम 1.9 फीसदी). इसके मुक़ाबले भारत के लिए चिंता का विषय है अफ़ीम से बनने वाला हेरोइन. जहां दुनिया में औसतन 0.7 फीसदी लोग अफीम से बने नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं वहीं भारत में 2.1 फीसदी लोग इस तरह के पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं."
नीतिगत समस्याएं
यही वो कारण है जिस कारण मौजूदा स्थिति को देखते हुए गांजे के पौधे को लेकर काम करने वाले कुछ उद्यमी असमंजस में हैं.
मौजूदा क़ानून के मुताबिक़ नार्कोटिक ड्रग एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंसेस एक्ट, 1985 (एनडीपीएस एक्ट या स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985) राज्यों को इस मामले में अपने क़ानून बनाने की इजाज़त देता है.
लेकिन उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ऐसे दो ही राज्य हैं जिन्होंने इससे जुड़े कानून बनाए हैं. और इन क़ानूनों में मौजूद कमियों के कारण उद्यमियों का इस क्षेत्र में काम करना असंभव हो गया है.
सिरुपा कहते हैं, "उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड का क़ानून कहता है कि "गांजे के पौधे में 0.3 फीसदी से कम टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल (टीएसी) होना चाहिए. इस मामले में कोई स्पष्टता ही नहीं है. क्योंकि नमी वाले इलाक़ों में मौसम की मार से बचने के लिए गांजे का पौधा अधिक मात्रा में टीएचसी पैदा करता है."
भुवनेश्वर में मौजूद डेल्टा बायोलॉजिकल्स एंड रीसर्च प्राइवेट लिमिडेट के विक्रम मित्रा का कहना है, "उत्तराखंड ने गांजे की खेती के लिए 14 उद्यमियों को लाइसेंस दिए गए हैं लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया क्योंकि इसके लिए विदेश से बीज आयात करने होते हैं."
"हमारी कोशिशों के बाद उत्तराखंड सरकार ने केंद्र सरकार को टीएचसी मात्रा में बदलाव करने के लिए लिखा लेकिन इस मामले में मार्च से अब तक कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है."
गांजे के पौधे में जो दो रसायन पाए जाते हैं वो हैं टेट्राहाइड्रोकैनाबिनॉल यानी टीएचसी और कैनाबिडॉल यानी सीबीडी. गांजे में नशा टीएचसी की मौजूदगी के कारण होता है.
लेकिन वैज्ञानिक समुदाय को पौधे में मिलने वाले दूसरे रसायन कैनाबिडॉल में दिलचस्पी है क्योंकि इसका इस्तेमाल स्वास्थ्य क्षेत्र में किया जाता है.
टीएचसी में भी कई ऐसे गुण हैं जिस कारण सीमित मात्रा में लोगों के इलाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.
डॉ. अम्बेकर कहते हैं, "अब ये स्पष्ट हो चुका है कि कैनाबिडॉल में नशे के कोई गुण नहीं हैं और इसके इस्तेमाल से किसी को नशे की लत नहीं लगती."
सकारात्मक कदम
कोविड-19 महामारी के कारण हुई देरी और फिर उसके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री में ड्रग के मुद्दे को बॉम्बे हेम्प कंपनी (बोहेको) के निदेशक जहान पेस्तून जमास नकारात्मक नहीं मानते.
इसके विपरीत वो मानते हैं कि इससे गांजे के सकारात्मक गुणों पर लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है.
वो बोहेको और राजस्थान के जयपुर में मौजूद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद के साथ हुए करार का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं कि कंपनी के बनाए आयुर्वेदिक फ़ॉर्मुले के क्लिनिकल ट्रायल के लिए ये करार किया गया है.
कंपनी के बनाए फॉर्मूले का ट्रायल ऑस्टियोथोरासिस के मरीज़ों पर किया जाना है.
जहान पेस्तून जमास ने बीबीसी को बताया, "आयुर्वेद में क़रीब 200 अलग-अलग जगहों में गांजे का ज़िक्र है. हमें करीब देढ़ साल पहले लाइसेंस मिला और हमारे कई उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध हैं. हम मुंबई के एक बड़े अस्पताल के साथ टर्मिनल कैंसर के मरीज़ों के बीच इससे बनी दवा के इस्तेमाल के लिए क्लिनिकल ट्रायल शुरू करने का भी इंतज़ार कर रहे हैं."
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आयुर्वेद में इस स्टडी को मार्गदर्शन करने वाले प्रोफ़ेसर पवन कुमार गोडतवार ने बीबीसी को बताया, "इस पौधे के मादक पदार्थ का नाम गांजा है. संस्कृत में इसे विजया कहते हैं. आयुर्वेद में इसके इस्तेमाल को बुरा नहीं माना जाता. कई आयुर्वेदिक दवाएं हैं जिनमें न केवल विजया का इस्तेमाल किया जाता है बल्कि अफ़ीम का भी इस्तेमाल होता है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं और इसका इस्तेमाल कितना महत्वपूर्ण है."
मुंबई के कस्तूरबा मेडिकल सोसायटी में आयुर्वेदिक सलाहकार डॉक्टर कल्पना धुरी-शाह कहते हैं, "जिन मरीज़ों को ये बताया गया कि दवा में गांजा भी है, उनमें इसे लेकर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली. एक्ज़िमा जैसे त्वचा के रोगों में ये दवाएं बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं."
डॉ. धुरी-शाह के एक मरीज़ ने बीबीसी को बताया, "मेरे पैरों में खुजली शुरू हो गई थी और जहां खुजली होती थी वहां में काले धब्बे बन जाते थे. मुझे तेल दिया गया कहा गया कि इसकी दो बूंदे नाभि में डालनी हैं. डॉक्टर ने मुझे बतया था कि इसमें गांजे के पौधे का अर्क शामिल है. मुझे इस कारण किसी तरह का साइड इफेक्ट नहीं हुआ है. न ही मुझे इसकी लत लगी है. और कुछ महीनों में मेरी बीमारी भी पूरी तरह ठीक हो गई."
अब, आगे क्या करने की ज़रूरत है?
मित्रा कहते हैं, "चीनी, मसालों, चाय और कॉफ़ी की तरह सरकार ने गांजे को व्यापार की वस्तुओं के रूप में चिन्हित नहीं किया है, जो सबसे बड़ी मुश्किल है. इसे जुड़े क़ानून में बदलाव की ज़रूरत है ताकि कंपनियां रीसर्च और डेवेलपमेंट में निवेश कर सकें. कंपनियां इस क्षेत्र में निवेश नहीं कर रहीं क्योंकि इसके लिए नियमन की कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है. इसके व्यावसायीकरण के लिए कोई रोड मैप भी नहीं है."
क़ानूनी तौर पर इसके लिए किस तरह के बदलावों की ज़रूरत है?
विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कुमार ने बीबीसी से कहा, "इसके लिए क़ानून में बदलाव की शुरूआत ये कहते हुए करने की ज़रूरत है कि गांजा रखने पर सज़ा का प्रावधान नहीं होगा. सबसे पहले इसके लिए एनडीपीएस एक्ट में बदलाव करना होगा. इसके साथ ही इसकी खेती और इसे बेचने के लिए भी विशेष लाइसेंस की व्यवस्था करनी होगी."
वो कहते हैं कि "ये बदलाव केंद्र सरकार को करने होंगे. केंद्र सरकार को इसके लिए एक फ्रेमवर्क बनाना होगा जिसका पालन राज्य सरकारें कर सकें और लाइसेंस जारी कर सकें. फिलहाल किसी को भी गांजा से कोई लेना-देना नहीं है."
डॉ. अम्बेकर कहते हैं, "ये मज़ाक भी है और विडम्बना भी कि भारत में उगने वाले इस पौधे से जो दवा बनती है हमें वो विदेशों से आयात करना पड़ती हैं. हमारी भौगोलिक स्थिति को देखें तो हम इस मामले में वैश्विक लीडर बन सकते हैं."
सिरुपा कहते हैं, "मौजूदा दौर में गांजे का सबसे अधिक, 80 फीसदी उत्पादन चीन करता है और वहां इसका इस्तेमाल धागे से लेकर कपड़े तक सभी में होता है. गांजे से जो कपड़ा बनता है उसमें एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-वायरल गुण होते हैं." (bbc)