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24 घंटे में 19 सेकेंड के बराबर है धरती पर मनुष्य की मौजूदगी
29-Sep-2020 5:54 PM
24 घंटे में 19 सेकेंड के बराबर है धरती पर मनुष्य की मौजूदगी

-Matthew Adams

हम फिलहाल एक अभूतपूर्व पर्यावरणीय विखंडन के दौर से गुजर रहे हैं, जिसे “एंथ्रोपोसीन” का नाम दिया जा रहा है। जैसे-जैसे इस शब्द का इस्तेमाल व्यापक होता जा रहा है, एक मनोवैज्ञानिक और एक प्रतिबद्ध पर्यावरणविद के रूप में मुझे लगता है कि यह हमारे वर्तमान संकट की व्याख्या का काफी गलत तरीका है। मूलरूप से वायुमंडलीय वैज्ञानिकों और फिर भूवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तावित एंथ्रोपोसीन हमारे वर्तमान युग के बारे में बात करने के एक उलझन भरे लेकिन शक्तिशाली तरीके के रूप में उभरकर सामने आया है। यह पृथ्वी के इतिहास में पहली बार हो रहा है जब केवल एक प्रजाति (मानव ) इस पूरे ग्रह को रूपांतरित कर रही है।

एंथ्रोपोसीन शब्द का मतलब है कि पृथ्वी का भूवैज्ञानिक रिकॉर्ड मानव द्वारा रूपांतरित किया गया है। ग्रीक भाषा में एंथ्रोपोस का अर्थ मानव होता है और “सीन” वर्तमान, 6.5 करोड़ वर्ष पुराने सेनोजोइक युग की एक बड़ी समयावधि को दर्शाता है। यह उल्लेखनीय है कि यह विचार कितनी जल्दी सर्वव्यापी हो गया है। यह अब केवल अकादमिक ग्रंथों और सम्मेलनों तक ही सीमित न रहकर कला, कथा, पत्रिकाएं, यात्रा वृतांत, कविता, यहां तक कि ओपेरा का भी विषय बन चुका है। हालांकि मैं मानता हूं कि यह एक महत्वपूर्ण और समयानुकूल हस्तक्षेप है, लेकिन मैं एक पल के लिए यहां विराम लेना चाहता हूं और इस विषय पर विचार करना चाहता हूं कि क्या यह एंथ्रोपोसीन गाथा वास्तव में हमारी समस्याओं एवं संभावनाओं की कहानी है?

एंथ्रोपोसीन के विचार की पहले से ही काफी आलोचना हो रही है। कैपिटलोसिन (जो पूंजीवाद की हानिकारक ताकतों को उजागर करने का प्रयास करता है) और प्लांटेशनोसिन (जो उपनिवेशवाद की भूमिका पर जोर देता है और बंधुआ मजदूरी की ओर ध्यान आकर्षित करता है) को कुछ ऐसे विकल्पों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो इस पर्यावरणीय संकट के लिए जिम्मेदार मानवीय गतिविधियों को अलग-अलग हिस्सों में बांटते हैं। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि पृथ्वी के सारे मनुष्यों को एक समूह के रूप में देखना सही नहीं होगा और सबकी अपनी जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी। लेकिन मैं इन सब चीजों से हटकर, समय के पहलू पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं।

डीप टाइम

“डीप टाइम” भूवैज्ञानिक समय की अवधारणा है जिसका उपयोग “पृथ्वी के इतिहास में घटित घटनाओं के बीच के समय और संबंधों का वर्णन करने के लिए किया जाता है”। यह एक 454 करोड़ साल पुराना इतिहास है। समय के इतने बड़े खंड की परिकल्पना में हमें दिक्कत आती है क्योंकि यह समय “डीप” अथवा गहरा है। इस विशालता को समझने में हमारी मदद करने के लिए कई उपमाएं हैं, जैसे घड़ी के 24 घंटे को पृथ्वी का कुल समय मान लें तो हमें पृथ्वी पर आए केवल 19 सेकेंड ही हुए हैं।

इसी तरह अगर यह मान लें कि पृथ्वी की शुरुआत 454 करोड़ वर्ष पहले हमारे कंधे पर हुई हो तो सबसे पहले जानवर हमारी हथेलियों पर उत्पन्न हुए होंगे और वैसे जानवर जिनसे हम परिचित हैं, उनका जन्म हमारी उंगलियों के पोरों के आसपास हुआ होगा। उंगलियों के बराबर आगे बढ़ने पर हमें उसके बाद के कालखंड, जैसे कि जुरासिक काल इत्यादि मिलेंगे और मनुष्य? 11,500 वर्ष पुराना होलोसीन काल होमो सेपियन्स के वैश्विक प्रसार की शुरुआत का साक्षी है, “नाखून के सिरे पर एक सूक्ष्म कण” की भांति।

प्रस्तावित एंथ्रोपोसीन की शुरुआत इस सूक्ष्म कण के अंदर स्थित होगी, चाहे हम इसे 400 साल पहले शुरू हुआ मानें या 70 साल पहले। तो, क्या होमो सेपियन्स ने एक नए भूवैज्ञानिक युग का निर्माण किया है? सीधे-सीधे कहा जाए तो इस बात में दम है। भूवैज्ञानिक आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन, परमाणु परीक्षण इत्यादि जैसी मानवीय गतिविधियों एवं हस्तक्षेप के कई उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन डीप टाइम की एक गहरी समझ हमें एंथ्रोपोसीन के इस लेबल से बचने की सलाह देती है। शायद वह समय आ चुका है जब हम अपनी स्वयं की छवि को बदलें और धरती पर रहने के अपने तरीके का विश्लेषण करें। ऐसा क्यों जरूरी है यह मैं आगे बताता हूं।

सामूहिक विलुप्ति

लगभग 6.6 करोड़ साल पहले एक व्यापक विलुप्ति हुई थी जिसके फलस्वरूप सभी प्रजातियों का तीन चौथाई भाग नष्ट हो गया था। यह एक विशाल उल्कापिंड के धरती से टकराने के फलस्वरूप हुआ हो, ऐसा संभव है क्योंकि उस दौरान के भूवैज्ञानिक अवशेषों से उल्कापिंडों में पाई जाने वाली धातुओं की एक पतली लेकिन विशिष्ट परत प्राप्त हुई थी। इस विलुप्ति की बदौलत स्तनधारी प्राणियों का उदय हुआ और सेनेजोइक (नया जीवन) युग की शुरुआत हुई। भूगर्भीय अवशेषों में धूमकेतु धूल की यह पतली परत बहुत मोटी पूर्ववर्ती और बाद की परतों के बीच एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण परत के रूप में स्थित है। लेकिन इसके बावजूद उस काल की सामूहिक विलुप्ति को “कोमेटोसिन” के नाम से नहीं जाना जाता। ऐसा इसलिए है क्योंकि उल्कापिंड अथवा धूमकेतु का टकराव एक घटना मात्र थी और डीप टाइम के संदर्भ में उसका योगदान बस इतना था कि उसने एक ऐसे जीवन की स्थापना की जो आनेवाले करोड़ों वर्षों तक धरती पर प्रसारित होगा।

क्या पृथ्वी पर हमारे प्रभाव के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जाना सही होगा? भले ही एंथ्रोपोसीन के संकेत एवं प्रभाव परिलक्षित हो रहे हों लेकिन क्या यह संभव नहीं है कि डीप टाइम के संदर्भ में पृथ्वी पर मानवीय गतिविधियों का प्रभाव केवल एक क्षण के रूप में सिमटकर रह जाएगा? यह सच भी हो सकता है। औद्योगिक प्रसार ने आक्रामक तेजी से हमारी धरती पर उपलब्ध संसाधनों का दोहन किया है। सीमित समय और अभूतपूर्व पर्यावरणीय क्षति मानवीय प्रभुत्व के किसी भी संभावित युग की दीर्घकालीन व्यवहार्यता को प्रभावित करते हैं। अमेरिकी लेखक जॉन माइकल ग्रीयर का मानना है कि भूवैज्ञानिक समय के संदर्भ में, औद्योगिक सभ्यता के सारे पहलू बेहद अल्पकालिक हैं और एक युग से दूसरे युग के बीच की सीढ़ी भर हैं। यही कारण है कि वे होलोसीन-नियोसीन ट्रांजिशन को अधिक उचित नाम मानते हैं।

हमारी भूगर्भीय विरासत शायद धूमकेतु की धूल की तरह होगी, “एक चौथाई इंच मोटाई एक ट्रांजिशन सतह”। अनुकूलीकरण में उल्लेखनीय रूप से सफल होने के कारण मनुष्य इस सुदूर भविष्य में जीवित रहने और फलने फूलने के लिए स्थान, ढूंढने में सफल तो होगा लेकिन शायद ही हम पहले की तरह धरती पर राज कर पाएं।

नया मनोविज्ञान

इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम किसी एक खास प्रलय, किसी एक विलुप्त घटना की ओर अग्रसर हैं। दरअसल हम पहले से ही उसके अंदर हैं। शायद ऐसा हो कि आने वाली प्रजातियां हमें एंथ्रोपोसीन जैसे किसी भव्य नाम से याद न करें। इतिहासकार स्टीफन कर्न के शब्दों में, हम शायद एक “अत्यधिक सूक्ष्म कोष्ठक” भर बनकर रह जाएं। जहां तक डीप टाइम का संदर्भ है तो धरती हमारे बिना भी चलती रहेगी, ठीक उसी तरह जैसे हमारे पहले चलती आई थी। डीप टाइम में हमारी यह यात्रा निराशाजनक या पराजय वादी न होकर आशापूर्ण होगी। मुझे लगता है कि इसकी मनोवैज्ञानिक प्रासंगिकता हमें जीवन की याद दिलाने और उसकी महत्ता एवं भव्यता समझाने में है। हमारी प्रजाति इस धरती की अन्य प्रजातियों से अलग नहीं होकर उन पर अन्योन्याश्रित है। मानवता को अपने से भी बड़ी किसी गाथा में इस तरह ढूंढना डरावना हो सकता है। लेकिन साथ ही यह स्वतंत्रता का एहसास भी दिला सकता है। धरती पर पाई जानेवाली अनगिनत अन्य संस्कृतियों के लिए यह कोई नई बात नहीं है।

कई स्थानीय जनजातियां प्रकृति के प्रति आदर का भाव रखती हैं। उपनिवेशवाद और उद्योगवाद की ताकतों द्वारा उन जगहों से ऐतिहासिक रूप से विस्थापित होने के कारण ये आवाजें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। हमारे भविष्य का इतिहास पृथ्वी की अन्य प्रजातियों के साथ हमारे तालमेल की कहानी होगा। अंततः बात इस पर आकर टिकती है कि मानव होने का अर्थ क्या है। जैसा कि स्वर्गीय पर्यावरण दार्शनिक वैल प्लमवुड ने चेतावनी दी थी, “हमारे लिए आगे बढ़ना तभी संभव है जब मानवता के स्वरूप में बदलाव आए।” (downtoerth)

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