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‘जीन-संवर्धित’ फसलों के खिलाफ एक और साक्ष्य?
16-Oct-2020 2:01 PM
‘जीन-संवर्धित’ फसलों के खिलाफ एक और साक्ष्य?

-नरेन्द्र चौधरी

एक खबर के अनुसार बीटी बैगन की दो किस्मों को ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति’ (जीईएसी) की मई 2020 की बैठक में मैदानी परीक्षण की अनुमति देने का निर्णय लिया गया है। आशंका है कि सरकार कभी भी नोटिफिकेशन लाकर इस निर्णय को लागू कर सकती है। जिस ताबड़तोड़ तरीके से केन्द्र सरकार तरह-तरह के कानून पारित कर रही है, उसमें यदि कोई ऐसा नोटिफिकेशन आ भी जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। अक्टूबर 2009 में भी ‘जीईएसी’ ने बीटी बैगन की खेती करने की अनुमति दी थी, लेकिन चौतरफा विरोध देखते हुए 10 फरवरी 2010 को इस अनुमति को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया था।

बीटी बैगन आनुवांशिक रूप से परिवर्तित फसल है। इसमें मिट्टी के एक जीवाणु ‘बैसिलस थुरिजिएंसिस’ (बीटी) का जीन बायो-इंजिनियरिंग द्वारा बैगन के बीज में डाल दिया जाता है। इसके कारण बैगन का पौधा ही एक कीटनाशक प्रोटीन का निर्माण करने लगता है। यह प्रोटीन एक जहर है, जो बीटी बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मार डालता है।

इस संदर्भ में बीटी कपास, जिसकी फसल भारत में उगाते हुए लगभग 20 वर्ष हो गए हैं, का अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। बीटी कपास भारत में 2002 में लाया गया था। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, बीटी कपास में भी ‘बैसिलस थुरिजिएंसिस’ नामक जीवाणु का जीन बायो-इंजिनियरिंग के जरिए डाला गया है। यह जीवाणु कपास के पौधे में कीटनाशक उत्पन्न करता है, जो कपास के पौधे को नुकसान पहुंचाने वाले ‘बालवर्म’ नाम के कीट को मार डालता है। दावा किया गया कि इससे कपास की अधिक पैदावार होगी और नहीं के बराबर या कम मात्रा में कीटनाशक छिडक़ने की आवश्यकता पड़ेगी। प्रारंभ के कुछ वर्षों के अध्ययन में यह कुछ हद तक सच भी साबित हुआ। विशेषकर उन लोगों के अध्ययन में जो इसे सच साबित करना चाहते थे। हालांकि उस समय भी कुछ पर्यावरणविदों व कृषि-विशेषज्ञों ने लंबे समय में इससे होने वाले नुकसान के प्रति चेताया था और उपज बढने के दावों पर संदेह व्यक्त किया था। बाद के वर्षों में यह आशंका सच साबित हुई।

इस वर्ष मार्च में एक वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर प्लांट’ ने के.आर. क्रांति और ग्लेन डेविस स्टोन का भारत में बीटी कपास की फसल के दो दशकों के अनुभवों पर आधारित एक विस्तृत अध्ययन प्रकाशित किया है। इस अध्ययन के निष्कर्ष हमें यह निर्णय लेने में सहायक हो सकते हैं कि क्या उत्पा दन बढऩे के दावे सच थे एवं क्यों हमें बीटी बैंगन की खेती करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

यह अध्ययन पैदावार में वृद्धि के बारे में किये गए दावों की कुछ विसंगतियों को उजागर करता है। उदाहरणार्थ सन् 2003-2004 की पैदावार में 61 प्रतिशत और 2005 की पैदावार में 90 प्रतिशत वृद्धि का श्रेय कपास की बीटी नस्ल को दिया गया था। इस अध्ययन के अनुसार यह उचित नहीं था, क्योंकि 2003 में कपास उगाने वाले कुल क्षेत्र के केवल 3.4 प्रतिशत भाग में ही बीटी कपास उगाया जा रहा था तथा 2005 में भी बीटी कपास का क्षेत्र केवल 15.7 प्रतिशत हिस्से में ही था। लेकिन 2007 के बाद बी.टी. कपास के क्षेत्र में निरंतर वृद्धि के बावजूद उत्पादन में ठहराव आ गया था।

आंकड़ों के राज्यवार विश्लेषण भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि कपास के उत्पादन में वृद्धि का बीटी कपास से कोई सीधा संबंध नहीं था। जैसे कि 2003 में गुजरात में कपास के उत्पादन में 138 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई, जबकि उस अवधि में गुजरात के कपास उत्पादन के कुल क्षेत्र के केवल 5 प्रतिशत हिस्से में बी.टी. कपास लगाया जा रहा था। आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान में भी बीटी कपास लगाने व कपास के उत्पादन में वृद्धि के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया।

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार कपास के उत्पादन में वृद्धि देश में सिंचाई सुविधाओं में सुधार और उर्वरकों के अधिक उपयोग के कारण संभव हुई, कपास की किसी विशेष प्रजाति के उपयोग से इसका कोई संबंध नहीं था। सन् 2007 से 2013 के बीच उर्वरकों का उपयोग लगभग दुगना हो गया। सन् 2003 में जहां औसत 98 किलो प्रति हेक्टेयर उर्वरक का प्रयोग हो रहा था, वह 2013 में बढक़र औसतन 224 किलो प्रति हेक्टेयर हो गया। राज्यवार अध्ययन में भी इस संबंध की पुष्टि होती है।

जहां तक कीटनाशक का संबंध है, इसके उपयोग में 2006 से 2011 के बीच जरूर उत्तरोत्तर कमी दर्ज की गई, लेकिन बाद के वर्षों में कीटनाशक के उपयोग में तेज बढ़ोत्तरी देखी गयी। ‘पिंक-बालवर्म’ कीट में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोध भी उत्पन्न हो गया। चीन में हुए अध्ययन में भी ‘पिंक-बालवर्म’ में प्रतिरोध उत्पन्न होना पाया गया। जैसे-जैसे बीटी कपास की उपज का क्षेत्र बढ़ता गया, वैसे-वैसे कीटनाशक पर होने वाला खर्च भी बढ़ता गया। देश में बीटी कपास आने के पहले किसान जितना कीटनाशक पर खर्च कर रहे थे, बीटी कपास आने पर प्रारंभिक गिरावट के बाद 2018 तक, वे कीटनाशक पर उससे 37 प्रतिशत अधिक खर्च करने लगे।

यह अध्ययन बताता है कि बीटी कपास से होने वाले फायदे उतने नहीं थे, जितने दिखाए गए थे एवं वे भी एक सीमित अवधि तक ही रहे। पिछले तेरह सालों में कपास के उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हुई है। भारी मात्रा में उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग, सिंचाई सुविधा एवं बीटी कपास प्रजाति लगाने के बावजूद विश्व के कपास उत्पादन में भारत का 36वां स्थान है। यह अफ्रीका के उन देशों के राष्ट्रीय औसत से भी कम है, जो संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं और बीटी कपास नहीं लगाते। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि सन् 2000 के बाद कपास उत्पादन में संसाधनों (उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशक) की जो वृद्धि हुई उसने इसकी खेती को बहुत मंहगा बना दिया है (अन्य फसलों में भी ऐसा हुआ है) और किसान के कौशल का महत्व घटा दिया है। जलवायु परिवर्तन और बाजार की अनियमितता ने इसे और जटिल बना दिया है। इस प्रकार की मंहगी खेती को विकसित देशों में सरकार से सुरक्षा प्राप्त है, जो भारत में नहीं है। इससे किसान कर्ज के जाल में फंस रहे हैं।

भारत प्राचीन काल से कपास उगा रहा है। 20वीं शताब्दी तक भारत में देसी कपास उगाया जाता था और अनेक देशों में निर्यात होता था। अध्ययनकर्ताओं के हिसाब से भारत देसी बीजों की उपेक्षा के परिणाम भुगत रहा है। देसी प्रजाति पर अनेक कीटों का प्रभाव नहीं पड़ता, संसाधनों की अधिक आवश्यकता नहीं होती और वे जलवायु परिवर्तन का बेहतर मुकाबला कर सकती हैं। इसको बढावा देने के लिए सरकार का सहयोग आवश्यक है।

इस अध्ययन से स्पष्ट है कि बीटी कपास के संदर्भ में अधिक उत्पावदन और कीटनाशकों के उपयोग में कमी के दोनों बड़े दावे सही नहीं हैं। इसके अलावा बीटी फसलों का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में भी अनेक अध्ययन हुए हैं। साथ ही बीटी कपास तो खाने के रूप में प्रयुक्त नहीं होता, जबकि बैगन को हम सब्जी के रूप में उपयोग करते हैं। अभी तक भारतीय भोजन में किसी भी प्रकार के अनुवांशिक रूप से परिवर्तित खाद्य पदार्थ के उपयोग की अनुमति नहीं है। भारत में बैगन की सैकड़ों किस्में हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी, जलवायु स्थानीय कीट से लडऩे की क्षमता के अनुसार देसी प्रजाति का चुनाव किया जा सकता है। बीटी कपास के दो दशकों के हमारे इन अनुभवों की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए हमें बीटी बैगन को पूर्णत: नकार देना चाहिए। बीटी बैगन की खेती की अनुमति अन्य बीटी खाद्य फसलों के लिए भी दरवाजे खोल देगी, जो न सिर्फ हानिकारक हैं, वरन् अनावश्यक भी हैं। (सप्रेस)

श्री नरेन्द्र चैधरी जैविक खेती से जुड़े वरिष्ठ स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं।

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