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बिहार के मुसलमान वोटर तेजस्वी, नीतीश और ओवैसी के तिराहे पर ठिठके
19-Oct-2020 6:30 PM
बिहार के मुसलमान वोटर तेजस्वी, नीतीश और ओवैसी के तिराहे पर ठिठके

पटना,19 अक्टूबर | बिहार में जातीय नरसंहार के लिए कुख्यात रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया के गाँव खोपिरा में स्कूल के बाहर कई लोग बैठे हैं. कुछ अख़बार पढ़ रहे हैं तो कुछ अलसाई आँखों से झपकी ले रहे हैं.

दोपहर का वक़्त है. आरा ज़िले के इस गाँव में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. यहाँ सवर्णों में भूमिहार जाति के लोग बसे हैं और बाक़ी हिंदू आबादी दलित है.

70 साल के इब्राहिम अंसारी अख़बार पढ़ते हुए कहते हैं, "ए हरेराम, खैनिया बनाईं न." हरे राम सिंह खैनी बनाते हैं और फिर दोनों आपस में बाँटकर खा लेते हैं. इब्राहिम अंसारी रेलवे में नौकरी करते थे और रिटायर होने के बाद गाँव में ही आकर रह रहे हैं.

हरे राम सिंह भूमिहार जाति से हैं. इब्राहिम अंसारी और हरे राम सिंह की दोस्ती स्कूल के दिनों से ही है और दोनों ने तंबाकू खाने की आदत भी स्कूल के दिनों से ही पाल ली थी.

हरे राम सिंह से चुनाव पर बात की तो उन्होंने खुलकर अपनी बात कही. वहाँ बैठे दलितों ने भी समस्या और चुनावी सरगर्मी पर खुलकर अपनी बातें रखीं लेकिन इब्राहिम अंसारी एकदम ख़ामोश रहे. इब्राहिम अंसारी ने चुनाव और राजनीतिक विषयों पर बोलने से क्यों परहेज किया?

भागलपुर में मारवाड़ी कॉलेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर रहे मनाज़ीर आशिक़ हरदानवी कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से बिहार के मुसलमान अपना विचार खुलकर रखने से बचने लगे हैं.

मनाज़ीर आशिक़ कहते हैं, "ऐसा पहले नहीं था. पिछले कुछ सालों से ऐसा हुआ है. मुसलमानों को लगने लगा है कि कहीं उनका खुलकर बोलना उन पर ही भारी न पड़ जाए."

कई राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि बीजेपी के गेमप्लान में मुसलमान वोटरों की कोई अहमियत नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीक़ी उनसे सहमत लगते हैं, वे कहते हैं "बीजेपी ध्रुवीकरण के ज़रिए मुसलमानों के वोट को बेमतलब बना देना चाहती है."

वे कहते हैं, "बीजेपी की राजनीति रही है कि मुसलमानों के वोट को अप्रासंगिक बना दो और वो यह काम पिछले दो लोकसभा चुनावों से कर रही है.''

प्रोफ़ेसर मनाज़ीर कहते हैं, ''मुसलमानों की ख़ामोशी इस बार के चुनाव में भी साफ़ दिख रही है और इसके कई संकेत हैं. नीतीश कुमार पर मुसलमानों का भरोसा रहा है. उन्होंने बीजेपी के साथ रहकर भी मुसलमानों के लिए काफ़ी कुछ किया है. नीतीश ने क़ब्रिस्तानों की घेराबंदी की, मदरसों को ठीक किया और कई तरह के स्कॉलरशिप भी दिए. इसके अलावा सुरक्षा भी मिली लेकिन पिछले दो सालों से बीजेपी के मज़बूत होने से नीतीश कमज़ोर हुए हैं."

प्रोफ़ेसर मनाज़ीर कहते हैं, "ऐसी हालत में मुसलमान थोड़े कन्फ़्यूज हैं. तेजस्वी से बहुत आश्वस्त नहीं हैं. नीतीश के साथ बहुत ही मज़बूत बीजेपी है. मुसलमान अभी तक कुछ सोच नहीं पाए हैं. मुझे लगता है कि इस बार मुसलमान उम्मीदवार देखकर वोट करेंगे, चाहे उम्मीदवार जिस भी पार्टी का हो.''

हाल के वर्षों में संसद में कई ऐसे बिल पास हुए हैं, जिनके बारे में बीजेपी विरोधी राजनीति करने वाले कहते हैं कि वे मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए हैं. मिसाल के तौर पर सीएए और एनआरसी.

राष्ट्रीय जनता दल ने संसद में इनका विरोध किया, लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी ख़ामोश रही. अब्दुल बारी सिद्दीक़ी प्रोफ़ेसर मनाज़ीर से सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं "अगर नीतीश कुमार वाक़ई मुसलमानों की फ़िक्र करते हैं, तो उन्हें संसद में इन बिलों का विरोध करना चाहिए था."

लालू की जगह अब तेजस्वी

मुसलमान जिस तरह से लालू पर भरोसा करते थे, क्या उसी तरह से तेजस्वी पर कर रहें हैं?

इस सवाल के जवाब में आरजेडी के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीक़ी कहते हैं कि लालू की विरासत को उसी तेवर के साथ ले जाने में वक़्त लगेगा.

वो कहते हैं, ''लालू राजनीति में संघर्ष के दम पर आए थे. बिहार के मुख्यमंत्री तब बने, जब भागलुपर में कुछ ही महीने पहले दंगे हुए थे. मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद जातीय टकराव बढ़ गया था. दूसरी तरफ़, आडवाणी रथ यात्रा पर भी निकल गए थे. लालू ने अल्पसंख्यकों को आश्वस्त किया कि उनके रहते कोई दंगा नहीं हो सकता और होने भी नहीं दिया. लालू ने ऐसा कर दिखाया था. अब तेजस्वी उसी राजनीति को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं. ज़ाहिर है दोनों में फ़र्क है. तेजस्वी को अभी साबित करना है, जबकि लालू को इस मामले में साबित नहीं करना है.''

अब्दुल बारी सिद्दीक़ी कहते हैं, ''लालू की राजनीति हमारी पीढ़ी की राजनीति थी और आज की राजनीति नई पीढ़ी की राजनीति है. नई पीढ़ी की राजनीति किस ओर जाएगी, ये तो वक़्त ही बताएगा. तेजस्वी को मुसलमानों का भरोसा जीतने में लंबा वक़्त लगेगा. अगर किसी ने सचमुच बीजेपी विरोधी राजनीति की है, तो वो लालू हैं."

सिद्दीक़ी कहते हैं "लालू की बीजेपी विरोधी राजनीति में कोई कन्फ़्यूजन नहीं है. बाक़ी की पार्टियों को देखिए, तो उनके लिए बीजेपी कभी ठीक हो जाती है, तो कभी सांप्रदायिक. लालू की बीजेपी विरोधी राजनीति में निरंतरता है और वो अपने आप में मिसाल है. मुसलमान इस मामले में तो लालू के अलावा किसी भी पार्टी पर भरोसा नहीं कर सकते."

पटना में एएन सिन्हा इंस्टि्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, "राष्ट्रीय जनता दल मुसलमानों के लिए कोई आदर्श पार्टी नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि आज की तारीख़ में मुसलमानों के लिए बिहार में आरजेडी से अच्छी पार्टी कोई है भी नहीं. आरजेडी में तमाम ख़ामियाँ हैं, लेकिन उसने सत्ता में रहते हुए सांप्रदायिक राजनीति को लेकर एक स्टैंड लिया है और इसे हमें स्वीकार करना चाहिए.''

बीजेपी की बढ़त, घटता प्रतिनिधित्व

बीजेपी ने बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है. 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूर्णिया ज़िले के अमौर विधानसभा सीट से सबा ज़फ़र को उम्मीदवार बनाया था. सबा ज़फ़र के अलावा किशनगंज में कोचधामन से अब्दुल रहमान को भी टिकट दिया था.

हालाँकि इस बार जेडीयू ने ज़रूर 11 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं.

सीमांचल इलाक़े में बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रभारी शमीम अशरफ़ कहते हैं, "बीजेपी को भला किस आधार पर मुसलमान समर्थन करेंगे, जब वो मुस्लिम बहुल इलाक़े में मुसलमानों को टिकट नहीं दे रही है."

वहीं बिहार बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष तुफ़ैल क़ादरी का कहना है कि टिकट देशभक्त को मिलता है, न कि जाति और धर्म देखकर.

सफ़ी अहमद किशनगंज के एमएच आज़ाद नेशनल डिग्री कॉलेज में उर्दू के असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. अंग्रेज़ी में एमए कर रहीं उनकी बेटी सुंबुल सफ़ी ने कुछ दिन पहले ही उनसे पूछा कि पापा आप कई दूसरे मुसलमानों की तरह ब्रिटेन या अमरीका में जाकर क्यों नहीं बस गए थे?

सफ़ी अहमद कहते हैं कि बेटी का यह सवाल सुन वे अंदर से हिल गए. वो कहते हैं कि बेटी ने यह सवाल क्यों पूछा, इसे समझना इतना जटिल नहीं था.

सफ़ी अहमद कहते हैं, ''मैंने कहा कि बेटी हम किशनगंज में कई पीढ़ियों से रह रहे हैं और किसी ने परेशान नहीं किया. हम अपने हिसाब से जीते हैं और अपनों के बीच रहते हैं. हाँ, पिछले पाँच-छह सालों से हालात ठीक नहीं हैं, लेकिन ये दिन भी बीत जाएँगे. ये मुल्क अपना है. इसकी मिट्टी में हम सबके ख़ून पसीने हैं.''

सफ़ी अहमद कहते हैं कि उनके जवाब से बेटी के चेहरे पर छाई परेशानी थोड़ी कम हुई.

किशनगंज बिहार का एकमात्र ज़िला है, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं. यहाँ मुसलमानों की आबादी 67.98 फ़ीसदी है. आसपास के ज़िलों में भी मुसलमानों की आबादी अच्छी ख़ासी है. कटिहार में 44.47 फ़ीसदी, अररिया में 42.95 फ़ीसदी और पूर्णिया में 38.46 प्रतिशत मुसलान हैं. इन इलाक़ों को सीमांचल के नाम से जाना जाता है.

सीमांचल कथित सेक्युलर पार्टियों के लिए वोट बैंक के लिहाज से काफ़ी अहम रहा है, लेकिन कई अहम मामलों में यह काफ़ी पिछड़ा हुआ है. जनगणना के डेटा अनुसार किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार और अररिया की औसत साक्षरता दर 54 फ़ीसदी है, जबकि बाक़ी बिहार में ये 64 फ़ीसदी है. किशनगंज में 68 फ़ीसदी मुसलमानों की आबादी है, जिनमें से 50 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा के नीचे ज़िंदगी गुज़ारते हैं.

क्या वाक़ई पिछले पाँच-छह सालों से बिहार के युवा मुसलमानों के मन में हलचल है? क्या सीमांचल में ओवैसी की एंट्री से ये हलचल और बढ़ी है? ओवैसी कहते हैं कि आज़ादी के बाद से ग़ैर-बीजेपी पार्टियाँ मुसलमानों का वोट लेती रहीं, लेकिन किया कुछ नहीं.

वो कहते हैं, ''बिहार के मुसलमानों के बीच से नेतृत्व पैदा करने की ज़रूरत है और मेरी पार्टी वही काम कर रही है.''

लेकिन क्या बिहार और सीमांचल के मुसलमान हैदराबाद की एक पार्टी को अपना समर्थन देंगे?

इस सवाल का जवाब तलाशने मैं किशनगंज के अमौर विधानसभा क्षेत्र में कसबा इलाक़े के सर्वेली में पहुँचा. दिन के 10 बजे हैं. लोग जेडीयू के प्रत्याशी सबा ज़फ़र के आने का इंतज़ार कर रहे हैं.

यहाँ 31 साल के एमडी एजाज़ अपने पिता के साथ कुछ बातें कर रहे हैं. एमडी एजाज़ उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के एक मदरसे में आलिम हैं. युवा मुसलमानों के मन में हलचल वाला सवाल एजाज़ से पूछा. शुरू में वो कुछ भी कहने से बचते दिखे, लेकिन बातचीत के बाद वो थोड़े आश्वस्त हुए और खुलकर बोलने लगे.

एजाज़ कहते हैं, ''पिछले पाँच-छह सालों में ऐसी कई चीज़ें हुई हैं, जिनसे केंद्र की मोदी और बिहार की नीतीश सरकार पर से भरोसा कम हुआ है. सीएए और एनआरसी मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए हैं. हम अपने हितों की रक्षा की उम्मीद बीजेपी से तो नहीं ही कर सकते, लेकिन अब कांग्रेस से भी कोई उम्मीद नहीं है. दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जो काम कांग्रेस ख़ुद नहीं करती, वो बीजेपी से करवाती है. मुझे लगता है कि असदउद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए. संसद में हमारे लिए वही बुलंद आवाज़ में तक़रीरें रखते हैं.''

इस बीच अमौर विधानसभा क्षेत्र के एनडीए प्रत्याशी सबा ज़फ़र की गाड़ी आती है. वो अपने समर्थकों के बीच जाकर बैठ जाते हैं. सबा ज़फ़र बीजेपी के लिए एक लिहाज के ऐतिहासिक शख़्स हैं. सबा ज़फ़र एकमात्र मुसलमान हैं, जो बिहार में बीजेपी के टिकट पर विधायक चुने गए थे.

वो 2010 में अमौर से बीजेपी प्रत्याशी के तौर पर जीते थे. 2015 में भी बीजेपी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया था, लेकिन तब वो चुनाव हार गए थे.

सबा ज़फ़र थोड़ा इठलाते हुए कहते हैं, ''मैं पहला मुसलमान हूँ, जो इस पार्टी से पहली बार बिहार विधानसभा पहुँचा.''

इस बार सबा ज़फ़र जेडीयू के उम्मीदवार हैं, लेकिन वो कहते हैं कि बीजेपी की सहमति से ही वे जेडीयू के उम्मीदवार बने हैं.

सबा ज़फ़र से पूछा कि क्या एनडीए के शासन में मुसलमान आशंकित हैं? ज़फ़र कहते हैं, ''देखिए यहाँ हम हिंदू-मुसलमान सब दाल भात चोखा खाने वाले लोग हैं. साथ में मिल जुलकर रहते हैं. यहाँ कोई आशंकित नहीं है. सीएए और एनआरसी को लेकर बिरयानी वाले (ओवैसी) ने भ्रम फैलाया है, लेकिन वो कामयाब नहीं होंगे. ये क़ानून नागरिकता देने के लिए है न कि लेने के लिए. बिरयानी वाला इस इलाक़े को भी कश्मीर बनाना चाहते हैं. उनकी यह चाल यहाँ नहीं चलेगी.''

2015 के चुनाव में सबा ज़फ़र के बीजेपी प्रत्याशी के रूप में अमौर में चुनाव हारने की मुख्य वजह नीतीश कुमार का आरजेडी के साथ जाना बताया जाता है. आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के साथ आने के बाद इलाक़े का मुस्लिम वोट एकजुट हो गया था और बीजेपी का मुसलमान उम्मीदवार हार गया.

इस बात से सबा ज़फ़र भी सहमत हैं कि नीतीश कुमार के अलग होने के कारण वो चुनाव हार गए थे. बिहार में मुसलमानों की आबादी लगभग 17 फ़ीसदी है, लेकिन बीजेपी इक्के-दुक्के मुसलमानों को ही टिकट देती है.

2015 में बीजेपी ने केवल सबा ज़फ़र को ही टिकट दिया और वो भी चुनाव हार गए. ज़फ़र कहते हैं कि बीजेपी को और मुसलमानों को टिकट देना चाहिए. लेकिन बिहार में बीजेपी के अल्पसंख्यक सेल के प्रमुख तु़फ़ैल क़ादरी मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने की ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर ही डाल देते हैं.

वो कहते हैं कि मुसलमान जब अपने लोगों का ही वोट नहीं जुटा पा रहे हैं, तो उन्हें टिकट क्यों दिया जाएगा?

बीजेपी में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सवाल कोई नया नहीं है. बिहार से लेकर गुजरात तक सवाल उठता रहा है कि बीजेपी मुसलमानों को टिकट नहीं देती है. लेकिन असल मसला वोट बैंक का है.

आरजेडी का वोट बैंक यादव और मुसलमान रहे हैं. इन दोनों समुदाय के लोगों को चुनाव में आरजेडी का टिकट मिलता रहा है. दूसरी तरफ़ बीजेपी में सवर्ण हिंदुओं को एक समय तक टिकट के मामले में ज़्यादा प्राथमिकता मिलती रही.

सीमांचल और बिरयानी

सीमांचल के इलाक़े में बिरयानी की कई दुकानें मिलती हैं. सड़क किनारे बड़ी-बड़ी हांडियों में बिरयानी पकती दिख जाती है. सबा ज़फ़र बिरयानी को ओवैसी से जोड़ते हैं. लेकिन क्या ओवैसी की दस्तक से इलाक़े में बिरयानी लोगों की फूडिंग हैबिट में शामिल हो रही है?

सर्वेली में सड़क किनारे बिरयानी बेचने वाले क़ासिम मिर्ज़ा दो साल पहले हैदराबाद गए थे. मिर्ज़ा ने वहाँ बिरयानी बनानी सीखी और आने के बाद बिरयानी की अपनी दुकान खोल दी. उनसे पूछा कि क्या ओवैसी के कारण बिरयानी लोकप्रिय हुई है?

मिर्ज़ा कहते हैं, ''बिरयानी की दुकानें पिछले दो सालों में बढ़ी हैं. इससे पहले यहाँ चिकन-भात और मटन-भात का ज़ोर था. लेकिन चिकन और मटन-भात बनाना आसान काम नहीं है और साथ में महंगा भी है. हमें उतना मुनाफ़ा भी नहीं होता था और ग्राहक भी ज़्यादा पैसा ख़र्च नहीं करना चाहते हैं. ऐसे में बिरयानी एक विकल्प के तौर पर उभरी. हम दिन भर में दो हज़ार रुपए कमा लेते हैं. इसमें ज़्यादा गोश्त भी नहीं लगता और न ही मेहनत, और लोग चाव से खाते भी हैं.''

विकास के कई पैमानों पर सीमांचल का इलाक़ा भले पिछड़ा हुआ है, लेकिन मतदान में यहाँ के लोगों की भागीदारी अव्वल है. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में सीमांचल में वोटर टर्नआउट 64.8 फ़ीसदी रहा, जो बिहार के औसत टर्नआउट 58.6 फ़ीसदी से ज़्यादा है. पिछले पाँच आम चुनावों में सीमांचल का वोटर टर्नआउट देखें, तो बिहार के औसत टर्नआउट से पाँच फ़ीसदी ज़्यादा रहा है.

लेकिन लोकतंत्र में इनकी इस उत्साहजनक भागीदारी के बावजूद लोगों के जीवन में कोई ठोस परिवर्तन नहीं आ रहा है. यहाँ के लोगों ने जिन नेताओं को संसद में भेजा, वो भी बड़े चेहरे रहे. एमजे अकबर, शाहनवाज़ हुसैन, तारिक़ अनवर, तसलीमुद्दीन और पप्पू यादव.

एक ज़माना था, जब बिहार देश के इक्का-दुक्का राज्यों में रहा, जहाँ कोई मुसलमान मुख्यमंत्री बना.

अब्दुल ग़फ़ूर एकमात्र मुसलमान हैं, जो बिहार के मुख्यमंत्री रहे. ग़फ़ूर कुल एक साल नौ महीने तक मुख्यमंत्री (दो जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975 तक) रहे. अब्दुल ग़फ़ूर राजीव गांधी की सरकार में मंत्री भी रहे.

फ़रवरी 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला था. रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी को 29 सीटें मिली थीं. अगर पासवान नीतीश या लालू में से किसी को भी समर्थन दे देते तो, सरकार बन जाती, लेकिन उन्होंने मुसलमान मुख्यमंत्री बनाने की शर्त रख दी थी. इस शर्त को मानने के लिए राष्ट्रीय जनता दल भी तैयार नहीं हुआ.

कहा जाता है कि राष्ट्रीय जनता दल के पास एक मौक़ा था कि वो अब्दुल ग़फ़ूर के बाद किसी और मुसलमान को मुख्यमंत्री बना सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं होने दिया.

इसी तरह लालू यादव जब चारा घोटाले में जेल गए, तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को अचानक मुख्यमंत्री बना दिया. तब भी कहा गया कि अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी जा सकती थी.

लालू यादव अपने परिवार को कमान सौंपने से आगे नहीं बढ़ पाए. दूसरी तरफ़ नीतीश कुमार ने भले ही प्रतीकात्मक रूप में, लेकिन बिहार के महादलित समुदाय के जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर मिसाल पेश की थी.

असमंजस में मुसलमान

बिहार के जाने-माने समाज विज्ञानी शैबाल गुप्ता कहते हैं कि हर कोई बिहार में सांसद और विधायक बनना चाहता है, लेकिन किसी के पास कोई विज़न नहीं है. वो कहते हैं, ''सीमांचल के इलाक़े में मुसलमानों को भी वोट बैंक से ज़्यादा कुछ नहीं समझा गया है.''

कई लोग मानते हैं कि बिहार में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के कारण भी पहचान की राजनीति बढ़ी है. हाल के वर्षों में हुए ध्रुवीकरण से स्पष्ट हो गया है कि बिना मुसलमान वोट के भी कोई पार्टी बहुमत से सत्ता में पहुँच सकती है.

असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम सीमांचल के इलाक़े में जड़ जमाने की कोशिश कर रही है, लेकिन अब तक उसे कामयाबी नहीं मिली है.

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2019 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज में ओवैसी की पार्टी ने पूरा ज़ोर लगा दिया, लेकिन एक बार फिर से निराशा हाथ लगी.

सीमांचल में कुल 23 विधानसभा और चार लोकसभा सीटें हैं. मुसलमानों की मज़बूत मौजूदगी के बावजूद 2015 के विधानसभा चुनाव में केवल 10 मुस्लिम उम्मीदवार ही यहाँ से चुनाव जीत पाए, जबकि राष्ट्रीय जनता दल, जेडीयू और कांग्रेस में गठबंधन था.

2019 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज से केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार सांसद बना और महागठबंधन को इसके अलावा किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली थी.

प्रोफ़ेसर मनाज़ीर आशिक़ कहते हैं कि बिहार के मुसलमानों का राजनीतिक झुकाव लंबे समय से बहुत बँटा हुआ नहीं रहा है.

वो कहते हैं, ''बिहार में मुसलमान लंबे समय तक कांग्रेस के साथ रहे. 1989 में भागलपुर दंगे के बाद लालू के साथ हो गए. लालू के जाने के बाद नीतीश के साथ भी रहे लेकिन आज की तारीख़ में मुसलमानों के पास बहुत विकल्प नहीं हैं और इस स्थिति में वो अपने-अपने इलाक़े के अच्छे उम्मीदवारों के साथ जा सकते हैं.''

आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि मुसलमान बिहार चुनाव में बीजेपी के ख़िलाफ़ लामबंद रहेंगे और वो हर सीट पर बीजेपी के ख़िलाफ़ ही वोट करेंगे.

वे कहते हैं, "मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जब नीतीश दोबारा एनडीए में आए, तब से बीजेपी के मातहत काम कर रहे हैं. इससे पहले बिहार बीजेपी नीतीश कुमार के मातहत काम करती थी. बीजेपी के मज़बूत होने का नतीजा यह हुआ कि संसद में मुसलमान विरोधी जितने भी बिल पास हुए, सबमें नीतीश कुमार या तो साथ रहे या ख़ामोश रहे. बिहार के मुसलमानों को पहले लगता था कि नीतीश मज़बूत रहेंगे तो बीजेपी नियंत्रित रहेगी, लेकिन अब नीतीश और बीजेपी के बीच की लाइन बहुत पतली हो गई है. ऐसे में मुसलमानों के भीतर यह सोच पिछले कुछ सालों में मज़बूती से पैठ गई है कि नीतीश को मज़बूत करना बीजेपी को कमज़ोर करना नहीं है." (bbc)

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