संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आंकड़ों से निकाला अंदाज सही हो या न हो, आज का वक्त अपनी फिक्र करने का
21-Oct-2020 6:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आंकड़ों से निकाला अंदाज सही हो या न हो, आज का वक्त अपनी फिक्र करने का

आंकड़े बड़े दिलचस्प होते हैं। अगर नीयत सही हो, हिसाब लगाने की काबिलीयत हो, तो उनसे भविष्य का अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन नीयत और काबिलीयत में से एक भी बात गड़बड़ हो, तो लोगों को एक नाजायज खुशी दी जा सकती है, या नाजायज दहशत में डाला जा सकता है। जिस तरह हिन्दुस्तान में एक गलत वैज्ञानिक हिसाब लगाया गया, और जुलाई के पहले-दूसरे हफ्ते में शुरू होने वाले कोरोना-वैक्सीन ट्रायल के बाद 15 अगस्त को वैक्सीन की घोषणा का हिसाब भी लगा लिया गया था। खैर, उस बात को छोड़ें, और एक नई दिलचस्प बात पर सोचें कि आने वाले बरसों में नौकरियों और काम के मामले में इंसानों और मशीनों का कैसा मुकाबला होगा। 

विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम) की एक ताजा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले बरसों में दुनिया में 8.7 करोड़ लोगों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं। उसका हिसाब है कि 2025 तक ही 8.7 करोड़ नौकरियां इंसानों से छिनकर मशीनों में चली जाएंगी, लेकिन 9.7 करोड़ नए काम पैदा भी होंगे। अब पहली नजर में देखने पर तो ये आंकड़े खुशी के लगते हैं कि जितने इंसानों की नौकरियां जाएंगी, उनसे अधिक नौकरियां खड़ी हो जाएंगी। लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि आज धरती की जो आबादी है वह पांच बरस बाद कितनी होगी? इतनी आबादी तो इन पांच बरसों में अकेले हिन्दुस्तान की बढ़ जाएगी। इसलिए बढ़ती हुई आबादी के मुकाबले बढ़ती हुई नौकरियां अगर अधिक नहीं होंगी, तो वे किसी काम की नहीं रहेंगी, और मशीनें तो रोज लोगों को बेरोजगार करेंगी ही। 

अब जैसे आज की यह बात हम एक कम्प्यूटर पर टाईप कर रहे हैं जिसमें टाईपिंग के लिए एक ऑपरेटर की जरूरत पड़ रही है। लेकिन जैसा कि आज अंग्रेजी के साथ है, बिना की-बोर्ड छुए बोलकर टाईप करना चलन में आ चुका है, वैसा ही अगर बाकी भाषाओं में होते चलेगा, होने लग भी गया है, तो बोलकर टाईप करवाने के लिए एक कर्मचारी की जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे अनगिनत काम हैं जिनमें से इंसानों को हटाया जा रहा है। एयरपोर्ट और विमानों में कर्मचारियों को घटाया जा रहा है, ऐसा भी नहीं कि उनमें से हर काम के लिए मशीन खड़ी हो रही हैं, दरअसल जब कंपनियां घाटे में चल रही हैं, तो वे अपने काम में सुधार करके कहीं बिजली बचा रही हैं, कहीं कर्मचारी घटा रही हैं, और कहीं सामानों की बर्बादी कम कर रही हैं। बुरा वक्त अच्छा सबक लेकर आता है, दुनिया के सारे उद्योग-धंधे आज अपने खर्च को घटाने में लगे हुए हैं, और जाहिर है कि इसकी पहली मार कर्मचारियों पर ही पड़ती है।
 
वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि 2025 तक दुनिया में काम कर रहे लोगों में 9 फीसदी से लेकर 15.4 फीसदी तक की कमी आएगी, और इसी दौरान 7.8 फीसदी से लेकर 13.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी होगी। इन आंकड़ों को बहस के लिए सही मान लें, तो भी यह है कि बढ़ती आबादी का हिसाब न लगाने पर भी नौकरियां घटने वाली हैं। अब जैसे आज के इसी एक घंटे की एक दूसरी खबर है कि हांगकांग की कैथे पैसेफिक एयरलाइंस ने साढ़े 8 हजार पदों को खत्म करने की घोषणा की है। इससे कुछ तो खाली पड़े पद खत्म हो जाएंगे, लेकिन करीब 6 हजार कर्मचारियों की नौकरी चली जाएगी। खुद हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार ने और कई राज्य सरकारों ने लॉकडाऊन से उबरने के लिए, और कारोबारों को पटरी पर लाने के लिए मजदूर कानूनों में भयानक बदलाव किया है, जिनसे मजदूरों के हक छिन गए हैं, मालिकों के लिए उन्हें नौकरी से निकालना आसान हो गया है, उनसे मुफ्त में ओवरटाईम करवाने का हक मिल गया है, और इसके खिलाफ कही और लिखी जा रही बातों का न केन्द्र सरकार पर असर है, न अलग-अलग राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों पर। हुआ यह है कि जब केन्द्र और राज्य सरकारें पूंजीनिवेश पाने की कोशिश करती हैं, तो संभावित उद्योगपति उन्हें मजदूर कानून, जमीन कानून, पर्यावरण कानून की अड़चनों को गिनाना शुरू कर देते हैं कि किन वजहों से वे हिन्दुस्तान या इसके किसी प्रदेश में जाना नहीं चाहते। ऐसे में सरकारें खुलकर कानूनों को खत्म कर रही है, देश में हाल के कुछ बरसों में पर्यावरण कानून को बेअसर सा कर दिया गया है, मजदूर कानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यह सिलसिला रूकते नहीं दिख रहा है। 

आज घरेलू कामकाज से लेकर दफ्तर और दुकान-कारखानों के काम तक, मालिक यह सोचने लगे हैं कि कर्मचारी और मजदूर घटाकर कैसे मशीनों पर काम डाला जा सकता है जो कि न हड़ताल करतीं, न लेबर कोर्ट जातीं, और न कामचोरी करतीं। मशीनों को रात-दिन काम पर झोंका जा सकता है, और कई किस्म के कारखानों में किया भी जा रहा है। और तो और बिना ड्राइवर चलने वाली कार, बस, ट्रेन के प्रयोग बरसों से सडक़ और पटरियों पर हैं, और कुछ बरसों के भीतर कारें खुद अपने को चलाने लगेंगीं, वे ड्राइवरों की नौकरियां खा जाएंगी, और उनमें बैठे लोग पूरे सफर अपने कम्प्यूटर पर काम करते हुए कुछ और लोगों की नौकरियां घटाएंगे। 

वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम का अंदाज चाहे जो हो, हमारा यह मानना है कि न सिर्फ मशीनों की वजह से, बल्कि दूसरी कई वजहों से भी नौकरियां घटती चलेंगी, खासकर इस लॉकडाऊन का तजुर्बा देखकर लोगों को खर्च घटाना होगा, और इसका पहला तरीका घटी हुई तनख्वाह रहेगी। आज हिन्दुस्तान में पिछले छह महीनों में बढ़ी हुई बेरोजगारी के आंकड़े देखें, और इन छह महीनों में बढ़ी हुई आबादी के साथ मिलाकर उसे देखें, तो कई करोड़ लोग बढ़ गए हैं, और कई करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं। 

आने वाला वक्त महज नौकरियों पर निर्भर दुनिया का वक्त नहीं रहेगा, लोगों को तरह-तरह से नए रोजगार सोचने पड़ेंगे, और हो सकता है कि नौकरी के बजाय स्वरोजगार का चलन बढ़े, और लोग अपनी मेहनत के अनुपात, अपने हुनर के अनुपात में कमाने लगें, जैसा कि आज ओला या उबेर नाम की टैक्सी कंपनियों के साथ जुडक़र कमा रहे हैं। हिन्दुस्तान में आज शहरी सडक़ों पर दसियों लाख लोग खाना पहुंचाने का काम कर रहे हैं, या कूरियर एजेंसियों के मार्फत आने वाले सामान को पहुंचाने का काम। ये काम 10-15 बरस पहले हिन्दुस्तान में नहीं थे, लेकिन अब हैं, और मोटरसाइकिल चलाने के मामूली से हुनर के साथ ऐसे लोग जितनी मेहनत करते हैं, उतना कमाते हैं। 

इस पूरी तस्वीर से यह समझने की जरूरत है कि नौकरियों की किस्म बदल जाएंगी, नौकरियां स्वरोजगार में बदल जाएंगी, मशीनें लोगों को बेदखल करेंगी, लेकिन एक बात बनी रहेगी, कोई भी सेक्टर ऐसा नहीं रहेगा कि जिससे सौ फीसदी नौकरियां खत्म हो जाएं। नतीजा यह होगा कि जिस दुकान, दफ्तर-घर, कारखाने-कारोबार में जिन लोगों का काम सबसे अच्छा रहेगा, वे नौकरियों पर आखिरी तक बने रहेंगे। जो कम काबिल, कम मेहनती, कम हुनरमंद रहेंगे, वे सबसे पहले बेरोजगार होंगे। यह नौबत हर किसी को, हर कर्मचारी को अपने काम को बेहतर बनाने का एक मौका भी दे रही है। लोगों को नए हुनर सीखने चाहिए, या अपने मौजूदा हुनर में काम को बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से कम से कम आज के कामगारों की पीढ़ी की जिंदगी तो निकल सकती है, अगली पीढ़ी अपने रोजगार और अपने स्वरोजगार के बारे में खुद सोचेगी। लेकिन अपने जीते जी, अपनी कामकाजी उम्र के चलते हुए बेरोजगार होने के खतरे से बचने के लिए लोगों को अधिक मेहनत तो करनी पड़ेगी, जब छंटाई होती है, तो सूखी डालें जिनसे कुछ हासिल नहीं होता, उन्हें सबसे पहले काटा जाता है। 
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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