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बिहार चुनाव: अपने नहीं, लालू यादव के 15 साल क्यों याद दिला रहे हैं नीतीश कुमार?
25-Oct-2020 12:09 PM
बिहार चुनाव: अपने नहीं, लालू यादव के 15 साल क्यों याद दिला रहे हैं नीतीश कुमार?

बिहार चुनाव अभियान में 'पंद्रह साल' का ज़िक्र बार-बार सुनाई दे रहा है. लालू के 15 साल की तुलना नीतीश के 15 साल से की जा रही है.

15 वर्षों के बाद एक और कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के दावेदार नीतीश कुमार अपनी चुनावी सभाओं में 'लालू यादव के जंगल राज' की अक्सर याद दिलाते हैं. कई बार अपने 'सुशासन' के दावे से भी बढ़कर.

नीतीश लोगों को 15 साल पहले के बिहार की तस्वीर दिखाते हुए पूछ रहे हैं, "हमारे शासन से पहले बिहार का क्या हाल था? शाम के बाद किसी को अपने घर से निकलने की हिम्मत थी? कितनी घटनाएँ घटती थीं सामूहिक नरसंहार की?''

वो कहते हैं, ''पहले अपहरण, सांप्रदायिक दंगे, और कितना कुछ होता था. लेकिन जब आप लोगों ने काम करने का मौक़ा दिया, तो हमने क़ानून का राज कायम किया. जंगल राज से मुक्ति दिलाई."

नीतीश कुमार तथाकथित जंगल राज की याद जिस तरह से दिला रहे हैं उसे समझना पहली बार वोट देने वाले नौजवानों के लिए ज़रा मुश्किल है.

दरअसल, बिहार में युवा वोटरों ने केवल घर के बड़े-बुज़ुर्गों से 1990 से 2005 वाले दौर के क़िस्से सुने होंगे.

18-35 आयु वर्ग वाले मतदाताओं की संख्या इस बार के चुनाव में लगभग 50 फ़ीसदी है यानी लगभग आधे वोटर 36 साल से कम उम्र के हैं.

नीतीश कुमार 2005 से 2020 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं. मई 2014 से नौ महीने छोड़कर, जब जीतनराम मांझी को उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था.

अपने 15 साल के बही-खाते से ज़्यादा लालू राज के 15 साल के हिसाब-किताब की ज़रूरत भला उन्हें क्यों आन पड़ी है?

लालू के बिहार और नीतीश के बिहार को करीब से देखने वाले वरिष्ठ समाजशास्त्री शैबाल गुप्ता कहते हैं, "पहले बिहार में शासन नाम की चीज़ नहीं थी. नीतीश जब सत्ता में आए तो उन्होंने सबसे पहला काम शासन स्थापित करने का किया.''

''आगे के वर्षों में उसी शासन को मजबूत करने की कोशिश की. जनता में सत्ता के अधिकार और उसके प्रति विश्वास जगाया. वो ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होंने कई बड़े अपराधियों जैसे आंनद मोहन और मुन्ना शुक्ला को जेल भेजा. इससे अपराधियों में डर पैदा हुआ".

 

शैबाल कहते हैं, "नीतीश राज के पहले क्राइम करने के बाद अपराधी हीरो बन जाता था और अगले चुनाव में उसकी उम्मीदवारी पक्की मानी जाती थी लेकिन नीतीश राज में इस बात पर रोक लग गई."

नीतीश के कार्यकाल में बिहार में अपराध में कमी आई है, ऐसा वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारीका मानना है.

बीबीसी से बातचीत में कन्हैया कहते हैं, "मेरा पैतृक घर रोहतास ज़िले में पड़ता है लेकिन लालू के दौर में मैं शाम को काम ख़त्म करने के बाद पटना से रोहतास जाने में डरता था लेकिन आज के दौर में आप रात को गाँव की शादी में शामिल होकर सुबह पटना अपने काम पर लौट सकते हैं. सड़कें अब बेहतर हो गई हैं. बिजली भी घंटों तक रहती है. अपराध कम हुए हैं."

नीतीश अपनी रैलियों में दावा करते हैं कि अपराध के मामले में एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार 23वें स्थान पर है.

बीबीसी ने अपराध से जुड़े बिहार पुलिस के आँकड़ों का अध्ययन किया और उनमें क्या पाया, ये आप इस ग्राफ़ से समझ सकते हैं.

राज्य में विकास के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी एक क़िस्सा सुनाते हैं.

वो याद करते हैं,"ट्रैफ़िक पुलिस में तैनात मेरे एक मित्र ने सड़क पर नियम तोड़ते हुए फर्राटा भर रही एक फॉर्च्यूनर गाड़ी को नहीं रोका लेकिन उसके पीछे चल रही स्कॉर्पियो गाड़ी को रोक लिया.''

''मैने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों? तो मेरे मित्र ने जवाब दिया कि पहले गाँव का मुखिया बोलेरो से चलता था और नेता स्कॉर्पियो से. लेकिन नीतीश राज में विकास ऐसा हुआ कि अब मुखिया स्कॉर्पियो से चलता है और नेताओं ने फॉर्च्यूनर ख़रीद ली है. फॉर्च्यूनर में नेताजी थे, इसलिए उनको नहीं रोका".

कन्हैया कहते हैं, "सबकी सम्पत्ति पाँच साल में दोगुनी हो गई है. मुखिया हो या नेता. ये विकास नहीं तो और क्या है?"

कन्हैया भेलारी ने बिहार में हुए विकास को जिस अंदाज़ में समझाया उससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वहाँ की राजनीति में पिछले 15 साल में क्या बदला है.

वो कहते हैं, "लालू के राज में क्राइम का ग्राफ़ जितना ऊपर था, उतना ही नीतीश के राज में भ्रष्टाचार का ग्राफ़ ऊपर है. बिना पैसों के न तो पंचायत में काम होता है, न ब्लॉक के स्तर पर".

लेकिन सुशासन का दावा करने वाली पार्टी जेडीयू इन आरोपों को ग़लत ठहराती है और लालू के राज के चारा घोटाले की याद दिलाती है.

ऐसा वाक़ई हुआ है या नहीं, इसे साबित करने के लिए कोई सरकारी आँकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन आम धारणा है कि भ्रष्टाचार बढ़ा है.

ये बात बिहार की राजनीति को क़रीब से जानने-समझने वाले कई पत्रकार भी कहते हैं.

कई योजनाओं और क़ानूनों को इसके लिए ज़िम्मेदार भी माना जाता है. सबसे ताज़ा उदाहरण है शराबबंदी कानून का.

बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद शराबबंदी क़ानून की नाकामी को आर्थिक नज़रिए से देखते हैं.

वो कहते हैं, "शराबबंदी में पैसे का रोल सबसे अधिक है. शराबबंदी करके सरकार ने कुछ लोगों को बहुत अमीर बना दिया है. ये ज़रूर है कि पुलिसकर्मियों को क़ानून के उल्लंघन में और लापरवाही में पकड़ा गया है, मगर वो बहुत छोटे लोग हैं, बहुत कम हैं. असली लोग न तो पकड़े जा रहे हैं, ना ही उन पर बात की जा रही है. क्योंकि वो बड़े लोग हैं."

बिहार क्या खुले में शौच से मुक्त हो गया?

यही बात शैबाल गुप्ता भी कहते हैं. उनके मुताबिक़ इसी वजह से नीतीश के मौजूदा कार्यकाल में सरकार की साख ख़राब हुई है.

एक अप्रैल 2016 को बिहार में शराबबंदी क़ानून लागू किया गया था. सरकार को इस वजह से तगड़ा राजस्व घाटा भी हुआ, लेकिन राज्य सरकार ने समाज सुधार के नाम पर इसे लागू करने का फ़ैसला लिया.

शराबबंदी क़ानून पर जानकारों की राय है कि वो फैसला साहसिक था, लेकिन उसे लागू करने में कई कमियाँ रहीं. ये नीतीश के इस कार्यकाल के सबसे अहम फ़ैसलों में से एक माना जाता है.

बिहार की राजनीति पर पकड़ रखने वाले पत्रकार और जानकार मानते हैं कि 2005 से 2010 तक नीतीश कुमार ने वाक़ई में जनता के जीवन में सुधार के लिए काम किया.

लेकिन 2010 से 2015 के दौरान नीतीश में राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षा जाग गई और वो प्रधानमंत्री पद के सपने संजोने लगे. उस वक़्त बिहार विकास की पटरी से जो उतरा, तो आगे उतरता ही चला गया.

उस दौर को याद करते हुए शैबाल कहते हैं, "ये बात बिल्कुल सही है. 2013 के आसपास नीतीश उस क़द के नेता थे, जो नरेन्द्र मोदी को चुनौती दे सकते थे. चाहे सरकार चलाने की बात हो या फिर बोलने की कला, नीतीश का उस दौर में कोई सानी नहीं था."

इसी जोश में उन्होंने कई फै़सले भी लिए. बाढ़ग्रस्त बिहार को गुजरात से मिली मदद वापस करने की घोषणा तक कर दी थी. जीतनराम मांझी को नौ महीने के लिए प्रदेश का मुख्यमंत्री भी नियुक्त कर दिया था.

बिहार के वो लोग जो उसी की राजधानी में प्रवासी की तरह रह रहे हैं?

वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह को नीतीश कुमार को क़रीब से समझने वाले पत्रकारों में से एक माना जाता है.

2017 में आरजेडी से रिश्ता तोड़ने के नीतीश के फ़ैसले पर उन्होंने एक लेख लिखा था. उस लेख में 2013 में एनडीए छोड़ने से लेकर 2017 में आरजेडी गठबंधन से नाता तोड़ने तक के चार सालों को उन्होंने नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन का सबसे 'मूर्खतापूर्ण दौर' बताया था.

उस लेख के मुताबिक़ 2013 और 2015, दोनों ही समय नीतीश का आकलन ग़लत साबित हुआ.

2013 के दौर में नीतीश को लगा कि आरएसएस नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं बनाएगी. 2015 में उनका अनुमान था कि वो पाँच साल आरजेडी के साथ सरकार चला लेंगे लेकिन उनके दोनों ही अनुमान ग़लत निकले.

एनडीए से निकलने के बाद नीतीश कुमार को विपक्ष में उस वक़्त स्वीकार्यता नहीं मिली. उस दौरान जब वो राहुल गांधी से मिलने पहुँचे तो दोनों की मुलाक़ात बहुत छोटी रही थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइडेट का प्रदर्शन भी बहुत ख़राब रहा था.

उसी दौरान नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को बिहार के मुख्यमंत्री की गद्दी पर बिठा दिया.

तब लोगों को समझ में नहीं आया कि नीतीश ने ऐसा क्यों किया. कई राजनीतिक जानकारों ने उनके फैसले की आलोचना भी की. छह महीने के अंदर मांझी के सुर बदल गए और 2015 के चुनाव में नीतीश ने आरजेडी के साथ गठबंधन किया और एक बार फिर बिहार की सत्ता संभाली.

ये गठबंधन भी लंबा नहीं चल सका और दो साल से भी कम वक़्त में उन्होंने आरजेडी का साथ छोड़कर एक बार फिर बीजेपी के साथ सरकार बना ली.

इसके बाद विपक्ष के नेता नीतीश कुमार को 'पलटूराम' तक कहने लगे.

शैबाल गुप्ता कहते हैं, एक के बाद एक कई घटानाएँ ऐसी हुईं जिनकी वजह से सत्ता में रहते हुए नीतीश थोड़े कमज़ोर हुए. इस वजह से उनकी अब तक की 'सुशासन बाबू' वाली छवि को धक्का पहुँचा और एक बात साबित हुई कि वो अकेले के दम पर चुनाव नहीं जीत सकते.

इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने 2017 में नीतीश कुमार के लिए कहा था, "देश में एक असली लीडर है और वो हैं नीतीश कुमार. नीतीश कुमार बिना पार्टी के लीडर हैं और कांग्रेस पार्टी के पास लीडर नहीं है, इसलिए कांग्रेस अगर नीतीश कुमार को यूपीए के नेतृत्व का मौका देती है, तो उसका भविष्य बेहतर हो सकता है." उनके इस बयान की तब ख़ूब चर्चा हुई थी.

शैबाल गुप्ता भी रामचन्द्र गुहा की उस बात को सही मानते हैं.

वो कहते हैं, " 2015 में नीतीश को अकेले चुनाव लड़ना चाहिए था लेकिन वो अकेले दम पर चुनाव लड़ने का 'रिस्क' नहीं ले सके. उनके पास इसके लिए पार्टी का तंत्र नहीं था.''

''दूसरी बात ये कि नीतीश अफ़सरों के साथ केवल सरकारी तंत्र चला सकते हैं, पार्टी नहीं. पार्टी चलाना और सरकारी तंत्र चलाना दो अलग-अलग बातें हैं. इतने सालों में भी वो अपनी पार्टी का संगठन नहीं तैयार कर पाए और इसीलिए वो अकेले चुनाव नहीं लड़ सकते."

वहीं, कन्हैया भेलारी के मुताबिक, ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार सिर्फ़ गठबंधन की बैसाखी के सहारे 15 साल तक सत्ता में रहे. कई काम भी उन्होंने किए, जिनकी वजह से पार्टियाँ उनके साथ गठबंधन की राजनीति करना चाहती थीं.

नीतीश कुमार ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का इस्तेमाल सरकार चलाने में किया. उनके इस प्रयोग को जानकार 'सोशल इंजीनियरिंग' की संज्ञा देते हैं.

चाहे इस बार के टिकट बँटवारे की बात हो या सरकार में रहते हुए नई योजनाएँ लागू करने की बात हो, दोनों में उनके 'सोशल इंजीनियरिंग' की छाप देखने को मिली. महादलितों और महिलाओं के लिए किए गए उनके काम को लोग इसके उदाहरण के तौर पर गिनाते हैं.

बिहार में दलितों की कुल आबादी 16 फ़ीसदी है और चुनावी राजनीति में इनके वोट की अहम भूमिका है. 1990 से 2000 तक पिछड़े जाति के इन लोगों को लालू यादव ने अपने साथ जोड़ना चाहा, फिर रामविलास पासवान ने इन्हें अपने पाले में लाने की कोशिश की.

लेकिन 'मास्टर स्ट्रोक' तो नीतीश कुमार ने अपने पहले ही कार्यकाल में चला. नीतीश ने पासवान जाति को छोड़कर दलित मानी जाने वाली अन्य 21 उप-जातियों के लिए 'महादलित' कैटेगरी बनाकर उन्हें कई सहूलियतें दीं. बाद में 2018 में जब लोक जनशक्ति पार्टी से उनके रिश्ते बेहतर हुए तो इस लिस्ट में पासवान जाति को भी शामिल कर लिया गया.

कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नीतीश कुमार के इस 'मास्टर स्ट्रोक' से लोक जनशक्ति पार्टी की ज़मीन खिसकती चली गई.

इसी तरह महिला वोटरों को अपने साथ करने के लिए नीतीश कुमार ने कई नए और ऐतिहासिक फैसले लिए.

मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना, नीतीश सरकार ने 2007 में शुरू की थी. शुरुआत में आठवीं पास करने के बाद पढ़ने वाली छात्राओं को साइकिल के लिए 2000 रुपये दिए जाते थे. अब इस राशि को बढ़ा कर 3000 रुपये कर दिया गया है.

इतना ही नहीं, छात्राओं को स्कूल यूनिफ़ॉर्म के लिए पैसे दिए जाने लगे. स्कूलों में छात्राओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए उनके इस फैसले को 'गेम-चेंजर' तक कहा गया.

बिहार देश का पहला राज्य है, जिसने पंचायत और नगर निकायों के चुनाव में महिला आरक्षण लागू किया. हालांकि गाँवों में महिला सरपंच होने के बावजूद सरपंच पतियों का चलन बिहार में खूब है लेकिन कई महिला मुखिया ऐसी भी हैं जिन्होंने बेहतर काम किया और नाम कमाया.

रितु जायसवाल का नाम भी इसी लिस्ट में आता है, जो अब विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं.

बाल विवाह रोकने और महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नीतीश सरकार ने 12वीं पास करने वाली अविवाहित लड़कियों को 10 हजार रुपये और स्नातक करने वाली लड़कियों को 25 हज़ार रुपये की प्रोत्साहन राशि देने का भी प्रवाधान जोड़ा.

ऐसी धारणा है कि नीतीश ने महादलितों और महिलाओं के लिए जो काम किए, उनकी बदौलत ये दोनों ही समूह उनसे जुड़ गए.

किसी भी राज्य के विकास के लिहाज से इन तीन पैमानों को सबसे अहम माना जाता है.

आँकड़ों की बात करें तो बिहार की जनता दल यूनाइडेट सरकार का दावा है कि पिछले पंद्रह सालों में एक लाख किलोमीटर ग्रामीण सड़क का निर्माण हुआ है.

अगर आप 15-20 साल पहले तक बिहार में रहे हों तो बहुत मुमकिन है कि आप कटिया डालकर बिजली कनेक्शन जोड़ने के तरीक़े से वाक़िफ़ होंगे लेकिन अब हालात बहुत बदल चुके हैं.

हाँलाकि बिहार मे 24 घंटे बिजली होने का दावा अतिशयोक्ति होगी, लेकिन अब ऐसा नहीं है कि वहाँ के बच्चे लालटेन और ढिबरी की रोशनी में पढ़ रहे हैं.

हर घर नल योजना के जरिए सब तक साफ़ पानी पहुँचाने का काम चल रहा है और नीतीश सरकार का दावा है कि अब तक 80 फ़ीसदी घरों में पानी पहुँच चुका है.

राजनीति में धारणा बहुत मायने रखती है. नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में विकास के कई ऐसे काम किए, जिससे उनकी 'सुशासन बाबू' की छवि बनी, जिसे उन्होंने जमकर भुनाया भी.

लेकिन उन्हीं के शासन काल में बिहार में सृजन घोटाला, टॉपर घोटाला, मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह कांड भी हुए. उनके शासन पर ये दाग़ भी हैं.

भले ही कभी सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भ्रष्टाचार का दाग़ ना लगा हो, लेकिन नीतीश बेदाग़ भी नहीं हैं.

सृजन घोटाले में पर्दाफ़ाश हुआ कि कैसे सरकारी पैसे एनजीओ के खाते में ट्रांसफ़र होते रहे और प्रशासन को ख़बर तक नहीं लगी.

मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह कांड में बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार की ख़बरें नेशनल टीवी चैनलों पर भी दिखाई दीं लेकिन आरोपी मंजू वर्मा को जेडीयू ने इस बार भी टिकट दे ही दिया.

पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डॉक्टर डीएम दिवाकर कहते हैं, "बिहार में इन पंद्रह सालों में विकास हुआ है, ख़र्च करने की लोगों की क्षमता बढ़ी है लेकिन दो-चार पैमाने ऐसे भी हैं जिन पर 2005 और 2020 के बिहार में ज्यादा फ़र्क़ नहीं आया है, वो हैं गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोज़गारी."

आज भी तीन साल का कोर्स बिहार में पूरा करने में चार-पाँच साल लग जाते हैं. बिहार में अच्छे कॉलेजों की कमी है. जिस तरह के शिक्षकों की भर्ती हुई है ये बात किसी से छिपी नहीं है.

2016 के टॉपर घोटाले की कहानी नेशनल न्यूज़ में 'विकसित बिहार' की छवि को झुठलाने के लिए काफी थी, जब आर्ट्स सब्जेक्ट की टॉपर रूबी राय ने पॉलिटिकल साइंस को खान-पान से जुड़ा विषय बताया था.

परीक्षा में छात्रों को खिड़की से नकल कराते परिवार वालों की फोटो भी बिहार की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफ़ी थी. इन वजहों से भी नीतीश के शासन की खूब किरकिरी हुई.

शिक्षकों की भर्ती में भी नियमों की अनदेखी के आरोप नीतीश सरकार पर लगे और 'समान पद समान वेतन' के मुद्दे को विपक्ष इस बार भी चुनाव में जमकर उठा रहा है.

रोज़गार के क्षेत्र में भी नीतीश कुमार कुछ कमाल नहीं कर पाए.

12 अक्टूबर की चुनावी रैली में नीतीश कुमार ने कहा, "राज्य में बड़े उद्योग नहीं लगे. जो राज्य समुद्र के किनारे होते हैं, वहीं उद्योग वाले जाते हैं. बावजूद इसके राज्य में विकास दर 10 फ़ीसदी से ज़्यादा है."

लेकिन विपक्ष उनकी इसी बात को ले उड़ा. बड़े उद्योग नहीं लगे इसलिए युवाओं को रोज़गार नहीं मिला और इसी वजह से पलायन हुआ, विपक्ष ने ऐसा नैरेटिव खड़ा किया.

महागठबंधन ने अपने घोषणापत्र में 10 लाख नौकरियों का वादा किया है. अब बीजेपी ने भी अपने संकल्प पत्र में 19 लाख रोज़गार देने की बात कही है.

जेडीयू के नेता पिछले 15 सालों में 6 लाख 10 हजार नौकरियाँ देने का दावा कर रहे है, लेकिन आरजेडी से 10 लाख नौकरियों के वादे का रोड मैप माँग रहे हैं.

स्वास्थ्य व्यवस्था का भी नीतीश राज में हाल बुरा ही है. कोरोना से अब तक राज्य के दो मंत्री, दो विधायकों और 31 डॉक्टरों की मौत हो चुकी है.

कोरोना संकट के बीच बिहार के कुछ सरकारी अस्पतालों की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुईं, जिनमें ना तो डॉक्टर दिखे, ना ही मरीज़ों के लिए बेड. कुछ अस्पतालों में तो बारिश का पानी छत से टपकता दिखाई दिया.

चमकी बुख़ार ने 2019 में राज्य में जो क़हर ढाया, वो भी सबने देखा.

इसके बाद भी नीतीश कुमार का दावा है कि 2005 में जहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रतिमाह 39 मरीज़ आते थे, 2020 में ये संख्या बढ़ कर 10 हजार मरीज़ों तक पहुँच गई है.

डॉक्टर डीएम दिवाकर कहते हैं, "2000 के लालू यादव के बिहार में और 2005 के बाद के नीतीश कुमार के बिहार में बदलाव साफ़ देखा जा सकता था. ऐसा इसलिए संभव था क्योंकि दोनों कार्यकाल में तुलना दो अलग-अलग मुख्यमंत्रियों के काम की थी. लेकिन 2010 के बिहार की तुलना 2005 से करें तो थोड़ा मुश्किल होगा''

डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि 2015 की तुलना 2010 से करना और ज्यादा मुश्किल है क्योंकि पिछले पन्द्रह साल में नीतीश ने शुरुआती सालों में जनता के मन में जो आकांक्षाएँ जगाई थीं, उनको लागू करने की स्पीड में पिछले दिनों कमी आई है. इसलिए नीतीश कुमार को अब सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है."(bbc)

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