विचार / लेख
-महेंद्र सिंह
ऐसा लगता है कि मोहम्मदबिन तुगलक जैसा समय फिर आ गया है। यह सबसे ज्यादा तब लगता है, जब देश में किसानों की स्थिति को देखा जाए। समझ नहीं आता कि देश की राजनीति किसान से अलग हो गई है या किसान राजनीति से अलग हो गया है। किसान क्या सोचता है, अब इससे देश की राजनीति की दिशा तय नहीं होती। किसान भी इन हालात के लिए कम दोषी नहीं है।
यही किसान जो खेती की खराब हालत के कारण लुटा-पिटा जीवन बिताता है, चुनाव के वक्त अपनी हालत भूलकर भ्रामक नारों, भ्रामक जय घोषों, भ्रामक वादों के चक्कर में आसानी से आ जाता है। क्या आज तक स्वामीनाथन कृषि आयोग की रिपोर्ट लागू हुई? क्यों न हुई? क्या किसानों ने कभी इस पर गौर किया?
क्या देश के साधु, संतों ने कभी किसानों के पक्ष में अपनी सहमति व्यक्त की? क्या बाबा रामदेव ने काले धन के बारे में जिस तरह शोर मचाया, कभी किसानों की समस्याओं के बारे में दबाव बनाया? वर्तमान सरकार के 6 वर्ष के शासन काल में किसानों की आय में कितनी वृद्धि हुई है, इस पर किसान गौर करें। वादा था दो गुनी आय वृद्धि का। क्या यह दो गुनी आय का वादा बिना वृद्धि यूं ही चलता रहेगा? बाबा किसान के मुद्दे पर नहीं बोलते, मगर किसान बाबाओं के मुद्दों में शामिल होने के लिए मरा जाता है।
किसान को यह समझना होगा कि धर्म की राजनीति किसान की राजनीति को पीछे कर देती है। किसान सरल व सहज रूप से धर्म का पालन करता है। वह धर्म को ढोंगी बाबाओं से ज्यादा समझता है। किसान के लिए धर्म राजनीति का मुद्दा नहीं है। धर्म उसके जीवन का अंग है। किसानों में सांप्रदयिक विद्वेष नहीं होता। वह दूसरे धर्मावलंबियों से घृणा भी नहीं करता। मगर फिर भी चुनावों के वक्त सांप्रदायिक चालों और दुष्प्रचार में आ जाने से वह अपने ही मुद्दे भुला बैठता है।
मौजूदा किसान बिल पर बाबाओं की राय क्या है? वर्तमान में संसद में कृषि बिल पास होने से देश के किसानों में नाराजगी है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि बिल की भाषा भ्रामक है और लोकतंत्र की भावना के विरूद्ध किसानों को नाजायज तरीके से दबाया जा रहा है। संसद में बिल पेश करने से पहले कृषि बिल की भाषा एवं मुद्दों पर क्या किसानों से मशवरा करना लाजिमी नहीं था?
कृषि बिल संसद में पास होने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की जा रही है कि मंडी एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य वैसे ही रहेंगे, जैसे पहले थे। क्या इस का उल्लेख बिल में है? अगर यह उल्लेख बिल में नहीं है, तो घोषणा को ऐसा समझा जाए, जैसी 2014 के चुनाव के वक्त की गई थी कि कालेधन को समाप्त प्रत्येक व्यक्त के खाते में 15 लाख रुपए जमा कराए जाएंगे। क्या उन के खातों में अब तक कुछ जमा हुआ?
किसान 2019 के संसदीय चुनाव के वक्त भूल गए कि 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा की जीत के बाद केंद्र में बनी एनडाए की सरकार ने अध्यादेश के जरिए किसानों की जमीन उद्योगपतियों व सरकार द्वारा हड़पने का पूरा जोर लगाया, परंतु सरकार की यह तिकड़म सफल नहीं हुई। उस समय राज्यसभा में कांग्रेस और विरोधी पार्टियों का बहुमत होने से सरकार को निराशा हुई थी। अब एनडीए का बहुमत है, इसलिए अपनी मनमर्जी का किसान विरोधी बिल पास करनाने में सफल हो गई।
किसान कृषि बिल में साफ उल्लेख होना चाहिए था कि प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी की फसलों का एमएसपी घोषित किया जाएगा। मंडियों में और उन के बाहर कोई भी व्यापारी अगर घोषित एमएसपी से कम कीमत पर किसानों के अनाज उत्पाद खरीदता है, तो उसे दो वर्ष की सज़ा और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। एमएसपी से ज्यादा मूल्य में माल बिकने की सूरत में किसान मंडी के बाहर भी बेच सकेंगे। किसान एसोशियनों द्वारा अपना माल विदेशों में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे।
किसान चुनाव के वक्त ऐसे सांसदों को ही वोट दें, जिन्होंने कृषि सुधार बिलों में किसानों का पक्ष लिया है। वक्त का तकाजा है कि विपक्ष एक ऐसे राष्ट्रीय विकल्प के आसपास एकजुट हो जाए, जो क्षेत्रीय खिलाडिय़ों को भी गले लगा सके। किसानों को एकजुट होकर राजनीति को अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे देखना चाहिए कि उसके साथ कौन से तबके आ सकते हैं, जो अभी अलग-थलग पड़े हैं। बेरोजगार, बेघर, और भूमिहीन आबादी इसस देश में लाचारी में अपना जीवन बिता रही है। दूसरी तरफ देखें तो एक प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपदा का 52 प्रतिशत हिस्सा है औऱ शीर्ष 9 अरबपतियों की संपत्ति नीचे जीवन जीने वालों की 50 प्रतिशत आबादी के बराबर है।
किसानों में इस नए कृषि बिल के पास होने से हताशा व्याप्त है। खरीफ फसल समाप्ति पर है। थोड़े दिनों में ही पता चल जाएगा कि फसलों का विक्रय किस तरह होगा! मैंने देखा है भारत की 1947 में मिली आजादी से पहले सूदखोर साहूकार और व्यापारी मनमाने ढंग से किसानों को पैदावार खरीदते थे। किसान गरीबी से छुटकारा पाने के लिए तरसते थे। देश में कांग्रेस की सरकार बनने पर फसलों को बेचने के लिए एमएसपी घोषित किए जाने लगे। इस से किसानों की आय में बड़ा सुधार हुआ।
अब मौजूदा हालात में जीवन में सुधार के लिए किसानों को मजबूत संगठन बनाना होगा। प्रत्येक प्रदेश, जिले, ब्लॉक, गाँव और राष्ट्र स्तर पर कार्यकारिणी का निर्माण करना होगा। सभी जातियों के किसान इनमें सदस्य रहेंगे। किसानों को हिंदुत्व के भ्रमजाल, पंडे पुजारी और धर्म प्रचारकों के बेहूदा धार्मिक प्रपंचों से भी छुटकारा पाना होगा। और अपने सीधे, सच्चे धर्म को फिर से पाना होगा। (लेखक सेवानिवृत प्राचार्य हैं।)