राष्ट्रीय
महाराज तंत्र V /S लोकतंत्र
28 सीटों पर चुनाव का खर्च कई करोड़ में है। इस खर्च की भरपाई आपकी जेब से ही होगी। आप पर सरकार और टैक्स थोपेगी। सरकार गिराने में जो पैसा लगा होगा उसकी भरपाई सरकार अपने करीबी व्यापारियों को खुलेआम कालबाज़ारी करने की छूट करके देगी। इस नुकसान को भी समझिये।
एक नवंबर मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस। इस बार ये कुछ अलग है। मध्यप्रदेश में स्थापना दिवस के दो दिन बाद मतदान है। क्योंकि लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार गिरा दी गई। 22 विधायकों ने एक साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा का साथ दिया। कमलनाथ का इस्तीफा और शिवराज बने मुख्यमंत्री। इस सब मे विधायकों की बिक्री का मामला उठा। गद्दार और बिकाऊ हवा में गूंज रहा है।
प्रदेश की 28 सीटों पर जनता के पास मौका है इस स्थापना दिवस पर प्रदेश में अपनी ताकत दिखाने का। लोकतंत्र को बचाने का। उसे फिर से स्थापित करने का। आखिर जो 22 विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के इशारे पर भाजपा में चले गए, उनको आपने ही चुना था। आपके वोट का ऐसा अपमान। प्रदेश की जनता ने उन्हें पांच वर्ष के लिए चुना था। फिर वे कैसे मतदाता से गद्दारी कर सकते हैं। ये महाराज तंत्र नहीं लोकतंत्र है। इस महाराज तंत्र को मिटाकर लोकतंत्र को खड़ा करना आपकी जिम्मेदारी है।
प्रदेश में ये गद्दारी का तीसरा अवसर है। पहले अंग्रेज़ों का साथ देने के लिए सिंधिया खानदान ने देश से गद्दारी की। दूसरा आज़ाद भारत में भी मध्यप्रदेश में पहला दलबदल और सरकार गिराने का काम भी महल के इशारे पर हुआ। राजमाता सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर संविद सरकार बनवाई। अब तीसरी बार फिर प्रदेश में चुनी हुई सरकार गिराई गई। इस बार चुनी हुई सरकार गिराकर लोकतंत्र की हत्या की ज्योतिरादित्य सिंधिया ने।
जनादेश का अपमान किसी भी प्रदेश के मतदाता के लिए एक अपमान है। जनादेश को ठुकराने वालों को ठोकर जरुरी है। प्रदेश में यदि आ इस तरह से लोकतंत्र के बिकने को नहीं रोका गया तो पूरे देश में हम भी बिहार, उत्तरप्रदेश और कर्नाटक के जैसे कलंकित प्रदेश कहलायेंगे। जरुरी है कि प्रदेश को ऐसी राजनीति से बचाकर इसकी स्वच्छ छवि को बरक़रार रखा जाए।
ये मामला सिर्फ 22 विधायकों की टूट का नहीं है। ये सत्ता की भूख, निजी स्वार्थ का है। आखिर कौन भरोसा करेगा इस बात पर कि उसूल और जनता के दर्द को दूर करने के लिए विधायकी और मंत्री पद छोड़ दिया। पद छोड़ने वाले फिर पद के लिए दौड़ नहीं लगाते। दौड़ तो छोड़िये इस वक्त पद की वापसी के लिए आपने लोगों के चरणों में लौटते हुए मंत्री भी देखे होंगे। क्या उसूल वाले ऐसे चरणों में लौटते हैं।
पद का त्याग नहीं ये पद की पैसो की लालसा का मामला है। त्याग ही करना था तो पद छोड़कर कांग्रेस में ही रहते। दूसरे दल में क्यों जाने की जरुरत पड़ी ? यदि आपमें इतना ही त्याग है तो इस्तीफा देकर निर्दलीय लड़ते। देखते तो जनता आपको कितना त्यागी मानती है। सबसे बड़ी बात बिना विधायक बने मंत्री बनने की के जरुरत थी। थोड़ा रुक जाते। जनता का फैसला तो सुन लेते।
प्रदेश की राजनीति का ये अब तक का सबसे गन्दा दौर है। अगर इसे आज नहीं रोका गया तो आज हम सिर्फ बिकाऊ के नारे लगा रहे हैं। भविष्य में हिंसा और धमकी के दम पर प्रदेश में विधायकों को बंधक बनाकर अपनी तरफ किया जाएगा। जनता जिसे हरा देगी उसे खरीदकर जीतने की इस परम्परा को रोकना प्रदेश के हर व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए। वोट देते वक्त एक बार प्रत्याशी की गद्दारी का चेहरा जरूर देखिये।
मध्यप्रदेश में ये जो तख्ता पलट हुआ है। इसके राजनीतिक मायने छोड़ दीजिये। एक तटस्थ मतदाता, नागरिक के तौर पर इसे देखिये। क्या कांग्रेस की सरकार गिरने से कुछ बदलाव हुआ। आधे से ज्यादा मंत्री तो अब भी वही हैं जो उस सरकार में थे। ये वही मंत्री हैं जिनपर भाजपा हमेशा भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही। भाजपा में आते ही ये सब मर्यादा पुरुष और बेचारे कैसे हो सकते हैं।
पंकज मुकाती (राजनीतिक विश्लेषक ), इंदौर