संपादकीय
पिछले एक-दो महीने में दुनिया के तमाम देशों से, अंतरराष्ट्रीय संगठनों से, भारत के भी देश-प्रदेश से आर्थिक आंकड़े सामने आए हैं। उनसे एक सुनहरी सी तस्वीर सामने आ रही है। छत्तीसगढ़ में आज के एक आंकड़े से पता लगता है कि जमीन की रजिस्ट्री में पिछले बरस के अक्टूबर महीने के मुकाबले इस महीने कितना अधिक टैक्स मिला है। भारत सरकार के बहुत तरह के आंकड़े बतलाते हैं कि पिछले कुछ महीनों के मुकाबले जीएसटी कलेक्शन कितना बढ़ा है, या औद्योगिक उत्पादन कितना बढ़ा है। बहुत सी खबरों में तो लापरवाही से इस बात को भी छोड़ दिया जाता है कि यह तुलना कब से हो रही है, पिछले बरस के इन्हीं महीनों से हो रही है, या अभी पिछले कुछ महीनों से हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारें अपने-अपने हिसाब से इन आंकड़ों को पेश कर रही हैं, और अपनी मनचाही तस्वीर दिखा रही हैं।
आंकड़ों का विश्लेषण आसान नहीं होता है। उनके साथ कोई विशेषण नहीं होते हैं, उनकी अपनी कोई समझ नहीं होती है। वे ईंट की तरह होते हैं जिनसे मंदिर भी बन सकता है, मजार भी, और शौचालय भी। लोग, और आम लोग नहीं, मीडिया के लोग या अर्थशास्त्री, सरकारें और दूसरे आर्थिक संगठन आंकड़ों का विश्लेषण करके जब एक तस्वीर पेश करते हैं, तो उससे कुछ सही नतीजा मालूम होने की उम्मीद होती है, लेकिन वैसा कई बार हो नहीं पाता है।
अब आज छत्तीसगढ़ में ऑटोमोबाइल की जमकर बिक्री के आंकड़ों से सरकार भी खुश है कि उसे टैक्स मिल रहा है। इन आंकड़ों को कई तरह से समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि पिछले कई महीनों से बंद चल रहे बाजार के बाद अब अगर त्यौहार के वक्त पर, नवरात्रि से लेकर दशहरे और दीवाली तक दुपहिया और चौपहिया अधिक बिक रहे हैं, तो यह पिछले महीनों की बकाया खरीदी भी है। इस खरीदी को पिछले बरस के त्यौहारी सीजन या इन महीनों की खरीदी से तुलना करना ठीक नहीं होगा क्योंकि पिछले बरस तो त्यौहारी सीजन के पहले के महीनों में भी बिक्री हुई थी जो कि इस बरस नहीं हो पाई थी, और लोगों की बकाया खरीदी अब हो रही है। इसलिए आज अगर बिक्री को लेकर लोग यह सोच रहे हैं कि अर्थव्यवस्था सुधर गई है, तो इस महीने के आंकड़े ऐसी गलत तस्वीर दिखा रहे हैं। लॉकडाऊन और कोरोना के चलते, आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते, ठप्प कारोबार की वजह से यह मुमकिन ही नहीं है कि लोगों की खरीदी इतने जल्दी पटरी पर आ सके, उनके पास खरीदी की ताकत लौट सके। इसे पिछले महीनों के बकाया के साथ जोडक़र ही सही नतीजा निकाला जा सकता है।
आंकड़ों की ईंटों से मनचाही इमारत बनाई जा सकती है। हिन्दुस्तान में आज हकीकत यह है कि खोई हुई नौकरियां लौट नहीं रही हैं, क्योंकि गया हुआ कारोबार ही नहीं लौट रहा है। और यह हाल सिर्फ हिन्दुस्तान का हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे संपन्न और विकसित देशों में भी आर्थिक संकट छाया हुआ है, और लोगों के जिंदा रहने में मुश्किल आ रही है। महाराष्ट्र के एक बड़े अखबार समूह ने बहुत से लोगों को नौकरी से निकाल दिया, और ऐसा करने वाला यह अकेला मीडिया हाऊस नहीं है, चारों तरफ ऐसा ही हुआ है। कुछ रहमदिल मालिकों ने कर्मचारियों को निकाला नहीं, तो उनकी तनख्वाह आधी तक कर दी है, उनके काम के घंटे बढ़ा दिए हैं। महाराष्ट्र के जिस अखबार की यहां चर्चा की जा रही है, उसकी छंटनी के बारे में दिल्ली की एक समाचार वेबसाईट ने खबर पोस्ट की तो उसे अखबार ने 65 करोड़ रूपए का मानहानि का नोटिस भेजा है। अब यह एक नोटिस तो ठीक है, लेकिन देश भर में बड़ी अदालतों से लेकर छोटी अदालतों तक के जूनियर वकीलों ने अदालत और सरकार के सामने अपील की है कि उनके भूखों मरने की नौबत आ गई है, इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाए। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई भी हुई है, लेकिन सवाल यह है कि वकीलों के किसी संगठन के पास जमा रकम से इनकी मदद चाहे हो जाए, लेकिन देश में तो कोई दूसरे पेशेवर संगठन ऐसे नहीं हैं जो अपने सदस्यों की मदद करने की हालत में हों। आज जब कोर्ट-कचहरी नहीं चल रहे हैं, आम दिनों के मुकाबले एक चौथाई मामले वीडियो सुनवाई से हो रहे हैं, तो लोगों की कमाई तो गिर ही गई है। और तो और रावण बनाने वाले तक भूखों मर रहे हैं कि दर्जन भर की जगह अब एक-दो रावण ही बने हैं, यही हाल गणेश और दुर्गा की प्रतिमाओं का रहा, और यही हाल तकरीबन तमाम कारोबार का है।
ऐसे में हिन्दुस्तान के लोगों को बिक्री के या निर्यात के, या औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों को देखकर किसी सरकारी झांसे में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह हकीकत नहीं है, और आम लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वे खबरों के भीतर की बारीक जानकारी तक भी पहुंचना नहीं चाहते, और अब वे टीवी स्क्रीन पर नीचे चलती हुई पट्टी को ही पूरा सच मानने की हड़बड़ी में रहते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों को यह धोखा हो सकता है कि हालात सुधर रहे हैं, जबकि सच यह है कि अभी न कोरोना का खतरा टला है, न लॉकडाऊन के घाटे से लोग उबर पाए हैं, और ऐसे कोई संकेत नहीं है कि लोग मार्च के पहले की अपनी हालत तक भी पहुंच पाएंगे। सच तो यह है कि मार्च में जब लॉकडाऊन शुरू हुआ तब तक भी हिन्दुस्तानी आर्थिक मंदी ऊंचाई पर थी, और लोगों को उसके असर का पूरा अहसास हो नहीं पाया था। इन महीनों में अंधाधुंध तबाही हुई है, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि रोजगार लौटे बिना, कारोबार लौटे बिना, नौकरियां लौटे बिना बाजार में जमकर खरीदी होने लगे। आज की बिक्री पिछले महीनों की बकाया बिक्री भी है, त्यौहारी बिक्री भी है, इस बात को भूलना अपने आपको धोखा देना होगा। सरकार, और हो सकता है बाजार भी, अंकों की बाजीगरी करके लोगों को एक खुशफहमी में बनाए रखना अपनी खुद की हस्ती बचाए रखने के लिए जरूरी समझ रहे हों। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)