संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पटरियों पर प्रतिरोध से रेलगाडिय़ां तो थमती हैं, पर देश गड्ढे में जाता है..
05-Nov-2020 6:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पटरियों पर प्रतिरोध से  रेलगाडिय़ां तो थमती हैं, पर देश गड्ढे में जाता है..

केन्द्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसान कई हफ्तों से पटरियों पर बैठे हैं, और रेलगाडिय़ां बंद हैं। कुछ हफ्ते गुजरे और अब राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलनकारियों ने पिछले बरसों की तरह पटरियों पर डेरा डाल दिया है, और रेलगाडिय़ां राह बदल-बदलकर चल रही हैं। हिन्दुस्तान अभी लॉकडाऊन के असर से उबर नहीं पाया है, कोरोना का खतरा टला नहीं है, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर लाई जाने वाली कोरोना-वैक्सीन का 26 जनवरी गणतंत्र दिवस तक भी कोई आसार नहीं है, और देश के दो बड़े राज्यों में रेलगाडिय़ों की आवाजाही इस तरह बंद है। दिल्ली की एक सडक़ के किनारे चल रहे शाहीन बाग आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक कड़ा रूख दिखाया था कि सार्वजनिक जगहों को इस तरह रोका नहीं जा सकता, और प्रशासन अपनी कार्रवाई करे। दूसरी तरफ कुछ राज्यों में तकरीबन आदतन रेलगाडिय़ों को रोककर देश का ध्यान खींचने की संस्कृति विकसित हो गई है जिनमें राजस्थान शायद सबसे आगे है। 

आज पूरे देश में किसान जगह-जगह चक्काजाम कर रहे हैं क्योंकि मोदी सरकार के नए किसान-कानूनों से वे दहशत में हैं। लेकिन ये चक्काजाम कुछ घंटों तक चलेंगे, और उसके बाद गाडिय़ां अपने रास्ते चलने लगेंगी।  लोकतंत्र में प्रदर्शनों का प्रतीकात्मक महत्व भी होता है, और सार्वजनिक जगहों पर जब जनजीवन अस्त-व्यस्त होता है, तो ऐसे प्रतीकों का आकार छोटा भी रहना चाहिए। किसी राज्य से गुजरने वाली रेलगाडिय़ों को रोक देना बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया जाना चाहिए। बहुत से लोग उन रेलगाडिय़ों में इलाज के लिए जाने वाले रहते हैं, बहुत से लोग घर लौटने वाले रहते हैं, और बहुत से लोग नौकरी के इंटरव्यू के लिए, किसी दाखिला-इम्तिहान के लिए जाते रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों की जिंदगी को तबाह करके उनके सीमित मौकों को खत्म करने का हक किसी आंदोलनकारी को नहीं होना चाहिए। जो राजनीतिक दल या जो सामाजिक संगठन किसी आंदोलन के लिए रेलगाडिय़ों को प्रतीकों से अधिक देर तक रोकते हैं, वे समाज के व्यापक हितों के खिलाफ काम करते हैं। अगर लोगों को रोकना ही है तो उन्हें नेताओं और मंत्रियों की लालबत्ती लगी हुई मुसाफिर कारों को रोकना चाहिए क्योंकि किसी भी किस्म के फैसले तो उन्हीं के हाथों होने हैं। रोकना ही है तो बड़ी अदालतों के जजों की कारें रोकना चाहिए क्योंकि फैसले तो उन्हीं अदालतों से होने हैं। इनके बदले आम जनता की आवाजाही से अदावत निकालना निहायत नाजायज बात है। किसी को यह अंदाज नहीं है कि कई-कई हफ्तों तक या महीनों तक जब रेलगाडिय़ां बंद रहती हैं, तो उनसे गरीबों की जिंदगी पर कैसा बुरा असर पड़ता है। पूरे इलाकों और आगे के राज्यों की अर्थव्यवस्था चौपट होती है, बना हुआ सामान निकल नहीं पाता, कच्चा माल आ नहीं पाता, सडक़ों से आवाजाही महंगी पड़ती है, कारखाने बंद होने की नौबत आ जाती है, और बड़े पैमाने पर कारोबार तबाह होते हैं। लोगों को याद होगा कि उत्तर-पूर्व में कुछ जगहों पर महीनों तक आर्थिक नाकाबंदी की जाती थी। उससे किसी की मांग जल्दी पूरी नहीं होती थी, बल्कि पूरे इलाकों का इतना नुकसान होता था कि जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। उत्तर-पूर्व घूमने जाने वाले सैलानी तक वहां के आंदोलनों से कतराने लगे थे, कोई वहां व्यापार करना नहीं चाहते थे। अगर केन्द्र सरकार की कई किस्म की रियायतें उत्तर-पूर्वी राज्यों को नहीं मिलती रहतीं, तो वहां की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से पनपी और बढ़ी बदहाली सिर चढक़र बोलती। 

जिन राज्यों में ऐसे अराजक आंदोलनों की संस्कृति विकसित हो जाती है, उनका नुकसान जल्द खत्म नहीं होता, उनकी साख जल्द नहीं लौटती। पंजाब और राजस्थान के इन दो अलग-अलग आंदोलनों के पीछे जो भी राजनीतिक ताकतें हैं, या इन मुद्दों से सरकार की फजीहत होते देखते जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्हें अपनी ऐसी राजनीतिक मतलबपरस्ती से उबरना चाहिए। इस देश की संसद में जब भी बहस हो, तमाम राजनीतिक दलों को इस बात पर एकमत होना चाहिए कि देश में कहीं भी ट्रेन नहीं रोकी जाएगी। इसी तरह सडक़ों पर होने वाले आंदोलनों में एम्बुलेंस-फायरब्रिगेड को रास्ता देने पर सहमति होनी चाहिए। 

सरकारों के खिलाफ हो, या किसी और किस्म के मुद्दों को लेकर आंदोलन हो, इन आंदोलनों को लंबे समय तक अराजक बने रहने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। अगर कुछ लोगों को आंदोलन का हक है, तो बाकी लोगों को भी सार्वजनिक जगहों पर अपनी आवाजाही का एक बुनियादी हक है। इसलिए आज चल रहे इन दो रेल रोको आंदोलनों को खत्म होना ही चाहिए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस पार्टी की राज्य सरकारें हैं, पंजाब में तो कांग्रेस पार्टी और राज्य सरकार घोषित रूप से केन्द्र के कृषि कानूनों के खिलाफ हैं, और जाहिर है कि इस वजह से राज्य सरकार का रूख किसानों के आंदोलन के साथ ही होगा। लेकिन राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन राज्य सरकार की फजीहत भी कर रहा है। इन दोनों प्रदेशों में रेल रोको आंदोलन की वजहें अलग-अलग हैं, कुछ और राज्यों में अलग-अलग समय पर दूसरी वजहों से ऐसे आंदोलन हुए हैं, लेकिन हम इन सभी को एक साथ गिनते हुए इस सिलसिले को खत्म करने की जरूरत महसूस करते हैं। पटरियों पर प्रतिरोध रेलगाडिय़ों को तो रोक देता है, लेकिन देश को गड्डे में ले जाता है, और ऐसी किसी भी नौबत की सबसे बुरी मार सबसे गरीब और सबसे असंगठित पर सबसे अधिक पड़ती है। इसलिए यह सिलसिला खत्म किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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