संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वक्त से पहले, उम्र से अधिक, जिम्मेदारियों से आगे कुछ किया
06-Nov-2020 7:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वक्त से पहले, उम्र से अधिक, जिम्मेदारियों से आगे कुछ किया

स्वीडन की एक नाबालिग लडक़ी पिछले कुछ बरस से पर्यावरण की फिक्र करते हुए लगातार खबरों में है। ग्रेटा थनबर्ग का नाम कुछ लोग पिछले बरस नोबल पुरस्कार के लायक भी मान रहे थे जब उसने लोगों का ध्यान खींचने के लिए अपने स्कूल के बाहर सडक़ किनारे धरना दिया था, और पूरी दुनिया के स्कूली बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की थी। पाकिस्तान में आतंकियों की गोली से बुरी तरह जख्मी होकर देश छोडऩे को मजबूर हुई मलाला यूसफजाई को नोबल पुरस्कार मिला, और वह तालिबानी हमला झेलने वाली लड़कियों की शिक्षा के लिए लगातार कोशिश करती हुई एक पाकिस्तानी लडक़ी थी। जब उस पर उसके काम की वजह से हमला हुआ तब वह कुल 15 बरस की थी। और इसी के आसपास उम्र में ग्रेटा ने समंदर पर बोट में अकेले सफर करके पर्यावरण की तरफ ध्यान खींचा था, और पर्यावरण के पक्के दुश्मन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ सोशल मीडिया पर खुली बहस में उलझी। आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए सूझा कि सोशल मीडिया पर अपनी हार के माहौल के बीच अपनी जीत के दावे कर रहे डोनल्ड ट्रंप पर तंज कसते हुए ग्रेटा ने लिखा है- डोनल्ड, चैन से बैठो। 

अमरीकी राष्ट्रपति के साथ सार्वजनिक रूप से लगातार इस तरह उलझने वाली यह पहली और अकेली लडक़ी है। इसी तरह लड़कियों के हक के लिए काम करते हुए तालिबानी गोली खाने वाली मलाला भी पहली लडक़ी थी। दुनिया के बाकी लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके 15 बरस के बच्चे क्या करते हैं, क्या कर रहे हैं, क्या पढ़ते हैं, उनके सामाजिक सरोकार क्या हैं? जिन दो मिसालों को लेकर हम यहां लिख रहे हैं वे एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग हैं। एक तरफ ग्रेटा एक विकसित और संपन्न, परिपक्व लोकतंत्र स्वीडन के, शायद, खाते-पीते परिवार की लडक़ी है जिसे एक उदार लोकतंत्र में पैदा होने और किशोरावस्था तक पहुंचने का मौका मिला। दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे कमजोर और नाकामयाब लोकतंत्र में महिलाओं से भेदभाव के धर्मान्ध और आतंकी माहौल के बीच मलाला ने अपने बूते अकेले संघर्ष किया था, और जान गंवाने के खतरे तक पहुंची। बाकी दुनिया इन दोनों के बीच के किसी माहौल में होगी, इनसे अधिक कमजोर और खतरनाक कुछ देश होंगे, और इनसे अधिक बड़े भी कुछ देश होंगे। इसलिए हम इस उम्र के बच्चों के बारे में सोच रहे हैं कि उनकी सोच, उनकी समझ, और उनके सामाजिक सरोकार उन्हें कहां तक पहुंचाते हैं, उनसे क्या करवाते हैं? 

इस उम्र, इससे कम, और इससे अधिक उम्र के बच्चों वाले तमाम मां-बाप को कुछ देर बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनके बच्चे मोबाइल और मोबाइक, जेब खर्च, और इंटरनेट के डेटा पैकेज के अलावा किस किस्म के सरोकार रखते हैं? वे औरों के लिए क्या करते हैं इस बारे में सोचें, आसपास की जरूरतें क्या हैं, और उनके लिए उनके मन में फिक्र क्या है यह भी सोचें। और सोचते हुए इन दो लड़कियों से अपने बच्चों की तुलना करें। महंगे ब्रांड के सबसे महंगे मोबाइल से किसी बच्चे का भविष्य नहीं बनता। महंगी मोबाइक से हासिल कुछ नहीं होता सिवाय जिंदगी पर खतरे के। और दुनिया का इतिहास महंगे सामानों वाले बच्चों से नहीं लिखाता, दुनिया का इतिहास महान काम करने वाले लोगों से लिखाता है। 

हिन्दुस्तान के इतिहास में एक नौजवान हुआ था, भगत सिंह। हिन्दुस्तान की आजादी के लिए उसने बरसों अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, हथियारबंद लड़ाई लड़ी, और 23 बरस की उम्र में फांसी पर चढ़ गया। इस दौरान और इस उम्र के पहले भगत सिंह ने दुनिया के साम्राज्यवाद, हिन्दुस्तान की आजादी के हक, धर्म के नुकसान जैसे मुद्दों पर जितना लिखा, उतना आज के हिन्दुस्तान के 23 बरस के नौजवान औसतन पढ़े भी नहीं रहते हैं। नौजवान पीढ़ी में शायद दो-चार फीसदी ही ऐसे होंगे जो कि भगत सिंह के शहीद हो जाने की उम्र तक उतना पढ़ पाएं जितना भगत सिंह लिख गया था। 

लोग आज अपने उस उम्र के बच्चों को बात करके देख सकते हैं कि दुनिया की राजनीति, कारोबार, आजादी, क्रांति, और समाजवाद जैसे मुद्दों पर उनका क्या सोचना है? धर्म और उसके नुकसान के बारे में उनकी कोई समझ है या नहीं है? लोग इस तरह से अपने बच्चों के बारे में इसलिए नहीं सोच पाते क्योंकि वे खुद अपने वक्त, और आज भी, इस तरह से नहीं सोच पाते हैं। उनकी खुद की समझ कमजोर रहती है इसलिए अपने बच्चों से उनकी उम्मीदें भी कमजोर ही रहती हैं। हर किसी को मलाला या ग्रेटा की तरह, या भगत सिंह की तरह इतिहास रचना जरूरी नहीं है, लेकिन अपने आसपास के सरोकारों की समझ रखना तो जरूरी है। आज हिन्दुस्तान में औसत बच्चे और नौजवान अपनी महंगी निजी जरूरतों के लिए अपने मां-बाप से संघर्ष करने में इतने जुटे हुए रहते हैं कि उन्हें अपनी दुनिया के, अपने करीब के लोगों के संघर्ष के बारे में सोचने और समझने का न वक्त होता, और न ही उन्हें ऐसी जहमत उठाने की जरूरत लगती। ऐसी आत्मकेन्द्रित और ऐसी मतलबपरस्त पीढ़ी पैदा होती है, बड़ी होती है, खाती-पीती है, और खत्म हो जाती है, वह इस धरती पर कुछ भी जोडक़र नहीं जाती। 

दुनिया के सबसे विकसित, संपन्न, और साफ-सुथरे देशों में से एक स्वीडन में इस लडक़ी को पर्यावरण से खुद कोई तकलीफ नहीं थी, लेकिन उसका हौसला था कि उसने न्यूयार्क के पर्यावरण के सम्मेलन तक पहुंचने के लिए वह 60 फीट लंबी एक बोट पर अकेले समंदर का सफर करके पहुंची थी। पन्द्रह दिनों का यह सफर उसने 15 बरस की उम्र में अकेले तय किया था, और आज दुनिया पर मंडराए हुए एक बड़े पर्यावरण-खतरे को मुद्दा बनाने की अपील पूरी दुनिया से की थी। 

ये तीन अलग-अलग लोग थे, इन तीनों ने अपने वक्त से आगे बढक़र, अपनी उम्र से आगे बढक़र, अपनी जिम्मेदारियों से बहुत आगे बढक़र ये काम किए। बाकी लोग भी सोचें कि वे अपने आसपास कौन से सरोकार से जुड़ सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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