संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश के चुनाव में मोदी ब्रांड के मुकाबले कोई हथियार या औजार किसी के पास है?
10-Nov-2020 8:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश के चुनाव में मोदी ब्रांड के मुकाबले कोई हथियार या औजार किसी के पास है?

नाम में चाणक्य होने से, या किसी के लिए चाणक्य का विशेषण इस्तेमाल करने से चाणक्य की कहानियां सच नहीं होने लगतीं। टुडेज चाणक्य नाम की एक चुनावी सर्वे या ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसी ने बिहार के आखिरी मतदान के बाद तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले महागठबंधन को एनडीए गठबंधन से तीन गुना अधिक सीटें मिलने का अनुमान घोषित किया था। और एनडीए जिस दम-खम से, स्पष्ट बहुमत से बिहार पर काबिज होते दिख रहा है, उससे एग्जिट पोल नाम की सर्वे-तकनीक अधकचरी साबित हो रही है। बहुत सारे एग्जिट पोल तेजस्वी-गठबंधन के पक्ष में दिखने से पिछले तीन दिनों में देश के मीडिया और सोशल मीडिया में तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया था, लेकिन क्रिकेट में आखिरी रन और चुनाव में आखिरी वोट की गिनती के पहले हड़बड़ी में कोई नतीजे निकालने से साख चौपट होती है। 

बिहार में वोटों की गिनती अभी चल ही रही है लेकिन तमाम सीटों पर गिनती जारी है, और भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन की लीड 129 सीटों पर दिख रही है, और तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले गठबंधन की लीड 104 सीटों पर दिख रही है। सीटों का यह फासला पिछले कई घंटों से बना हुआ है, और यह इतना बड़ा है कि इसे पाटकर महागठबंधन का फिर से आगे आना अब नामुमकिन सा लग रहा है। एक बार फिर एनडीए बिहार की सत्ता पर दिख रहा है, जो कि पिछले चुनाव में नहीं जीता था, लेकिन नीतीश कुमार के गठबंधनबदल की वजह से सत्ता पर आ गया था। उस हिसाब से एनडीए वहां दुबारा नहीं जीता है, वह सत्ता पर काबिज जरूर रहते दिख रहा है। 

बिहार के नतीजों ने बहुत सारी बंधी-बंधाई राजनीतिक जुमलेबाजी को फ्लॉप कर दिया है। लेकिन लोगों को आज रात तक पूरे नतीजे आ जाने के बाद यह सोचना पड़ेगा कि एनडीए के भीतर मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कद और कितना छोटा हो गया है क्योंकि उनकी पार्टी की सीटें न सिर्फ अपने गठबंधन के भीतर भाजपा से काफी कम है, बल्कि तेजस्वी की आरजेडी से भी कम हैं। ऐसी नौबत में भाजपा अपने चुनाव पूर्व के वायदे और घोषणा के मुताबिक नीतीश कुमार को दुबारा मुख्यमंत्री बनाए तो यह भाजपा का नीतीश पर एक किस्म का अहसान होगा जिसके चलते सरकार के भीतर नीतीश मौजूदा कार्यकाल के मुकाबले कमजोर रहेंगे, और नैतिक रूप से दबे रहेंगे।
 
बिहार के चुनावों में एनडीए और भाजपा की अगर हार हुई रहती, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नाकामयाब करार देने की तैयारी में बहुत सारे लोग बैठे थे। और लोगों को यह भी लग रहा था कि यह लालू यादव को तीखे साम्प्रदायिकता-विरोधी तेवरों को जनसमर्थन की वापिसी दिख रही है, तकलीफ के साथ हजारों किलोमीटर पैदल चलकर बिहार लौटने को मजबूर मजदूरों की बद्द्ुआ एनडीए को लगी है, बिहार के नौजवान बेरोजगारों की नाउम्मीदी ने एनडीए को हराया है। ऐसी बहुत सी बातें लोगों ने पिछले चार दिनों में ट्वीट भी की थीं, बयानों में भी कही थीं, और आज टीवी चैनलों के विश्लेषणों के लिए राजनीति के तथाकथित विशेषज्ञों ने ऐसे जुमलों की तैयारी भी कर रखी होगी, लेकिन उनमें से किसी को इस्तेमाल करने की नौबत नहीं आई।
 
बिहार विधानसभा चुनाव के साथ-साथ देश के बहुत से राज्यों में विधानसभा और लोकसभा के उपचुनाव भी हुए, जहां पर बिहार से परे के मुद्दे थे, लेकिन जहां-जहां के नतीजे सामने दिख रहे हैं, वे सारे के सारे एनडीए या भाजपा के पक्ष में दिख रहे हैं। चूंकि बिहार का घड़ा मोदी के सिर पर फोडऩे की तैयारी थी, इसलिए सेहरा भी उन्हीं के सिर बंधना चाहिए क्योंकि बिहार में भी नीतीश तो डूब चुके हैं, वे कमल के फूल को थामकर किसी तरह सतह पर बने हुए हैं, और उसी की मेहरबानी से एक बार और मुख्यमंत्री बन सकते हैं। 

बहुत से लोगों ने अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ मोदी के गहरे सार्वजनिक रिश्तों को लेकर ट्रंप के चुनावी नतीजों से बिहार के नतीजों को जोडक़र अटकलें लगाई थीं। लेकिन यह जाहिर है कि ट्रंप तो भारतवंशी वोटों के लिए मोदी के मोहताज थे, मोदी बिहार के वोटों के लिए किसी तरह अमरीका पर आश्रित नहीं थे। आज बिहार के अलावा देश भर में बिखरे हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा आगे रही है, उन सबके पीछे अगर कोई एक अकेली वजह हो सकती है, तो वह सिर्फ मोदी है।
 
मतलब यह कि भारत के चुनावी फैसले तय करने में आज अगर कोई ब्रांड सबसे अधिक असर रख रहा है, तो वह मोदी का है। फिर चाहे मोदी कार्टूनिस्टों के पसंदीदा निशाना क्यों न हों, चाहे उनकी दाढ़ी से लेकर उनके कपड़ों के रंग तक का मजाक क्यों न बनाया जा रहा हो, नाम तो चुनावों में एक ही नेता का चल रहा है, और वह मोदी का है। आज बिहार चुनाव और बाकी प्रदेशों के उपचुनावों में मोदी के मुकाबले जो भी पार्टियां और जो भी नेता थे, उन सबके लिए यह आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन का एक समय है कि क्या मोदी ब्रांड के चुनावी-मुकाबले के लिए कोई हथियार और औजार अभी बाकी हैं, या फिर बाकी पार्टियां बिल्ली की तरह छींका टूटने के इंतजार में बैठी रहेंगी कि एक दिन मोदी अपने करमों से ही डूबेंगे, और उस दिन उनकी बारी आएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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