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क्या आदिवासियों को मिल पाएगा उनका अलग धर्म कोड, झारखंड का प्रस्ताव अब मोदी सरकार के पास
18-Nov-2020 3:06 PM
क्या आदिवासियों को मिल पाएगा उनका अलग धर्म कोड, झारखंड का प्रस्ताव अब मोदी सरकार के पास

RAVI PRAKASH/BBC

रवि प्रकाश
वह साल 2015 का नवंबर महीना था.

झारखंड के आदिवासी अपने अलग धर्म कोड को लेकर मुखर थे. राँची की सड़कों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत के पुतले फूंके जा रहे थे.

इसकी वजह बना था आरएसएस में नंबर-2 की हैसियत रखने वाले सह सरकार्यवाह डॉक्टर कृष्णगोपाल का वह बयान, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताया था.

उन्होंने कहा था कि सरना कोई धर्म नहीं है. आदिवासी भी हिंदू धर्म कोड के अधीन हैं. इसलिए उनके लिए अलग से धर्म कोड की कोई ज़रूरत नहीं है.

वे आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में शामिल होने राँची आए थे और यहां आयोजित प्रेस वार्ता में उन्होंने यह बात कही थी.

तब झारखंड में बीजेपी की सरकार थी.

पांच साल बाद अब साल 2020 का नवंबर है.

राँची की सड़कों पर आदिवासियों की टोलियां जश्न मना रही हैं. जय सरना के नारे लग रहे हैं. सड़कें लाल और सफ़ेद धारियों वाले सरना झंडे से पट चुकी हैं.

झारखंड विधानसभा ने 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिल' को सर्वसम्मति से पास कर दिया है. इसमें आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रस्ताव है. झारखंड सरकार ने कहा है कि ऐसा करके आदिवासियों की संस्कृति और धार्मिक आज़ादी की रक्षा की जा सकेगी.

अब केंद्र सरकार को यह तय करना है कि वह इस माँग को लेकर क्या रुख अख्तियार करती है.

इन पांच सालों का एक फ़र्क़ यह भी है कि अब यहां की सत्ता बदल चुकी है.

राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेतृत्व वाली सरकार है. नज़ारा पूरी तरह बदला हुआ है. यही वजह है कि इस बिल के पास होने के अगले दिन जब आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने पहुंचे, तो मुख्यमंत्री स्वयं उनके साथ नाचने लगे.

पारंपरिक आदिवासी धुनों पर थिरकते मुख्यमंत्री ने कहा कि उन्हें काफी दिनों बाद चैन की नींद नसीब हुई है.

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, "सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा से पारित करा लिया गया है लेकिन अभी कई लड़ाईयाँ लड़नी हैं. केंद्र सरकार से इसे हर हाल में लागू कराना है ताकि आगामी जनगणना में इसे शामिल किया जा सके. हमें हमारा हक और अधिकार मिले, इसके लिए हम हर लड़ाई लड़ने को तैयार हैं. अब देश स्तर पर आदिवासी समाज की एकजुटता की ज़रूरत है. हमलोगों ने इसके लिए विशेष कार्य योजना बनाई है."

RAVI PRAKASH/BBC

क्या केंद्र सरकार से भिड़ेंगे हेमंत सोरेन
गुजरात के आदिवासी नेता व विधायक छोटूभाई बसावा ने मीडिया से कहा कि अब हेमंत सोरेन को देश के स्तर पर आदिवासियों का नेतृत्व करना चाहिए. हालाँकि इसके लिए सरना धर्म कोड की जगह कोई वैसा नाम सोचना चाहिए, जो देश भर के आदिवासियों को मान्य हो.

वहीं झारखंड के पूर्व मंत्री बंधु तिर्की का मानना है कि झारखंड सरकार ने आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड का बिल लाकर ऐतिहासिक काम किया है.

अब केंद्र सरकार की जवाबदेही है कि वह इस संबंधित विभिन्न प्रस्तावों में एकरूपता लाकर आदिवसियों के लिए अलग धर्म कोड का प्रावधान कराए.

झारखंड सरकार का प्रस्ताव
झारखंड सरकार ने केंद्र को यह प्रस्ताव भेजते वक्त लिखा है कि साल 1931 में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी का 38.3 प्रतिशत थी, जो साल 2011 की जनगणना के वक्त घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई.

आदिवासियों की इस घटती संख्या की एक वजह उनके लिए अलग धर्म कोड का नहीं होना है.

लिहाजा, केंद्र सरकार को सरना आदिवासी धर्म कोड बिल पर विचार करना चाहिए.

विपक्ष का आरोप
हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी मानते हैं कि आदिवासी सरना धर्म कोड को लेकर झारखंड सरकार की मंशा ठीक नहीं है.

बाबूलाल मरांडी ने बीबीसी से कहा, "मैं इस मुद्दे पर सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देना चाहता था लेकिन मुझे विधानसभा में बोलने तक नहीं दिया गया. जब सरना आदिवासी धर्म कोड बिल के लिए ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया था, तो मुझे बोलने क्यों नहीं दिया गया. अगर बोलने ही नहीं देना था, तब विशेष सत्र की क्या आवश्यकता थी. मेरा मानना है कि हेमंत सोरेन की सरकार इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति कर रही है. इसके बावजूद मेरी पार्टी ने इस विधेयक का समर्थन किया है."

RAVI PRAKASH/BBC

आदिवासियों की हिस्सेदारी
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से कुछ अधिक है.

इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं.

देश में आदिवासियों की 750 से भी अधिक जातियां हैं.

अधिकतर राज्यों की आबादी में इनकी हिस्सेदारी है. इसके बावजूद अलग आदिवासी धर्म कोड की व्यवस्था नहीं है.

इस कारण पिछली जनगणना में इन्हें धर्म की जगह 'अन्य' कैटेगरी में रखा गया था.

जबकि ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आज़ादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है.

तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से सबोधित किया गया. आज़ादी के बाद इन्हें शिड्यूल ट्राइब्स (एसटी) कहा गया.

इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी. इस कारण विवाद हुआ. तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर बताते हैं कि 1960 के दशक में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के वक्त लोकसभा में भी इस संबंधित एक संशोधन विधेयक लाया गया लेकिन बहस के बावजूद वह पारित नहीं कराया जा सका.

वो कहते हैं," यह विवाद पैदा करने की कोशिश की जाती रही कि आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं अलग-अलग हैं. कोई सरना है, कोई ईसाई तो कोई हिंदू धर्म को मानता है. आदिवासियों का एक समूह इस्लाम, जैन और बौद्ध धर्मावलंबी भी है. इस कारण उनके लिए अलग धर्म कोड की ज़रूरत नहीं है."

बकौल मधुकर, ऐसे लोग आदिवासी स्कॉलर और कांग्रेस के सांसद रहे कार्तिक उरांव की पुस्तक 'बीस वर्ष की काली रात' का भी उल्लेख करते हैं लेकिन ज़्यादातर मौकों पर इसकी ग़लत व्याख्या की जाती रही है.

इस कारण विभिन्न आदिवासी संगठन अलग धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलन करते रहे हैं.

बहरहाल, अब यह मामला केंद्र सरकार के पास है. यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार इस प्रस्ताव पर क्या निर्णय लेती है. (bbc.com/hindi)

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