राष्ट्रीय

"धोना, सुखाना, बनाना" से कब मुक्त होगा भारत?
28-Nov-2020 12:29 PM

स्कॉटलैंड ने फैसला लिया है कि पीरियड्स से जुड़ा सब सामान देश में मुफ्त में मिला करेगा. क्या भारत में भी कभी ऐसा होगा? कब आएगा वो वक्त जब सैनिटरी पैड को लड़कियों का हक समझा जाएगा?

  डॉयचे वैले पर ईशा भाटिया सानन का लिखा - 

सोचिए आप सुबह उठें और आपका बिस्तर खून में लथपथ हो. सोचिए, कैसा हो अगर आप खून से भरे कपड़ों को किसी तरह छिपाते फिरें. जरा सोच कर देखिए, आपको अपनी टांगों के बीच एक फटा पुराना गंदा कपड़ा ले कर घूमना पड़ रहा हो.

अगर आप पुरुष हैं और ये सब पढ़ कर आपको घिन आ रही है, तो बता दूं कि आपके इर्दगिर्द मौजूद लड़कियों के लिए ये सब उनकी जिंदगी का हिस्सा है. भारत में ज्यादातर लड़कियों के लिए यह हर महीने की कहानी है.

मुझे याद है जब मैं छोटी थी, मेरी नानी ने मेरे हाथ में एक भद्दी सी कतरन पकड़ा दी थी. आप इतने मैले कपड़े को धो कर पोछा तक नहीं बनाएंगे. लेकिन नानी का तर्क तो साफ था, "पीरियड्स गंदे होते हैं, तो कपड़ा भी तो गंदा ही होना चाहिए ना. और फिर उसे कूड़े में ही तो जाना है, तो फिर साफ होने की क्या तुक हुई भला?"

भारत में पीरियड्स (मासिक धर्म) से जुड़े कई शोध हुए हैं. इनमें से एक बताता है कि देश में आज भी 70 फीसदी से ज्यादा महिलाएं पीरियड्स को "गंदा" मानती हैं. मेरी नानी भी इन्हीं में से एक थीं. जिंदगी भर उन्होंने मैला कपड़ा इस्तेमाल किया. इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं कि आगे चल कर उन्हें सर्वाइकल कैंसर हुआ. वो नहीं जानती थीं कि वो मैला कपड़ा एक दिन उनकी जान ले लेगा.

ईशा भाटिया सानन

वैसे भी, भारत में महिलाओं में 70 फीसदी से अधिक स्त्री रोग संबंधी समस्याओं की जड़ पीरियड्स के दौरान साफ सफाई का ख्याल ना रखना ही है. पर फिर भी कोई खुल कर इस बारे में बात करने को तैयार नहीं है. पढ़े लिखे घरों में भी महिलाओं की सेहत से जुड़ी बातें नहीं होती. इस पूरे मामले पर चुप्पी ऐसी है कि हिंदी में रिप्रोडक्टिव डिजीज, मेंस्ट्रुअल हाइजीन जैसे शब्द ही नहीं हैं जो आम बोलचाल का हिस्सा हों. यही वजह है कि नानी के कैंसर के इलाज के दौरान मैंने कभी गर्भाशय, अंडाशय जैसे किसी शब्द को कभी सुना ही नहीं. नानी को क्या हुआ है, घर पर यह पूछने तक की इजाजत नहीं थी.

कब तक करेंगे "व्हिस्पर्स"?
पीरियड्स महिलाओं के शरीर में होने वाली सबसे कुदरती बात है. बावजूद इसके आज 2020 में भी भारत की महज 18 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी पैड इस्तेमाल कर पाती हैं. बाकी सबका वही हश्र होता है, जो मेरी नानी का हुआ. वो जिंदगी भर अलग अलग बीमारियों से जूझती हैं लेकिन यह समझ नहीं पातीं कि मैला कपड़ा उनसे उनकी जिंदगी छीन रहा है.

पीरियड्स पर हुए अलग अलग शोध की जहां तक बात है तो एक शोध यह भी बताता है कि देश में दो तिहाई लड़कियों को पहली बार पीरियड होने तक तो उसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं होती है. मेरे साथ भी ऐसा ही था. कितनी अजीब बात है कि जिंदगी के इतने साल कभी किसी ने मुझसे इसका कोई जिक्र ही नहीं किया. पीरियड्स पर चुप्पी ऐसी है कि लड़कियां अपनी सहेलियों से भी अपने तजुर्बे बांटते हुए शर्माती हैं.

कुछ बात अगर होती भी है तो कानाफूसी में. इसीलिए तो, कोई हैरानी की बात नहीं है कि भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले सैनिटरी पैड का नाम है "व्हिस्पर्स". ब्रांड खुद ही आपसे कहता है कि खुल के कुछ मत बोलो.

स्वच्छ भारत चाहिए, स्वच्छ महिलाएं नहीं?
पिछले एक दशक में हालात कुछ सुधरे जरूर हैं. कई एनजीओ सैनिटरी पैड पर लगने वाले टैक्स के खिलाफ खड़े हुए. अक्षय कुमार की पैडमैन से नेटफ्लिक्स की "पीरियड्स. एंड ऑफ सेंटेंस" तक, इस विषय पर लोगों को जागरूक करने के लिए फिल्में बनी हैं. जागरूकता जरूरी भी है लेकिन जब सैनिटरी पैड तक पहुंच ही नहीं होगी, तो फिर जागरूक हो कर भी क्या बदल जाएगा?

सैनिटरी पैड के एक पैकेट की कीमत 100 से 250 रुपये के बीच होती है. कम आय वाले घरों के लिए यह "फिजूल खर्च" है जिसे वो नहीं उठा सकते. कुछ एनजीओ दस-दस रुपये में भी पैकेट उपलब्ध करा रहे हैं, लेकिन इनकी पहुंच सीमित है. ये किसी भी तरह देश के कोने कोने तक नहीं पहुंच सकते.

इसलिए ये जिम्मेदारी सरकार की बनती है कि देश भर की लड़कियों और महिलाओं को पीरियड्स के दौरान अपना हक मिले. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार बार "स्वच्छ भारत" पर जोर दिया है. महिलाओं की स्वच्छता का अधिकार स्वच्छ भारत का हिस्सा क्यों नहीं बना?

भारतीय सरकार दशकों से सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में कंडोम और गर्भनिरोधक गोलियां देती आई है ताकि जनसंख्या को काबू में रखा जा सके. तो क्यों ना इसी इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल सैनिटरी पैड उपलब्ध कराने के लिए भी किया जाए? लड़कियों को क्यों उनके इस हक से महरूम रखा जाए?

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