संपादकीय
असल जिंदगी में कहावत और मुहावरों के मुताबिक भेड़ की खाल ओढ़े हुए भेडिय़े छुप जाते हैं, लेकिन जब से यह जिंदगी इंटरनेट जैसी सार्वजनिक जगह बन गई है, और इस पर किसी तस्वीर या वाक्य को ढूंढना पलक झपकने जितनी देर का काम हो गया है, तो ऐसे में यह खाल उजागर होने लगी है। कुछ लोगों ने इसे भुगतान वाला, या मुफ्त का पेशा बना लिया है कि झूठ को फैलाया जाए, गंदी और हिंसक बातें लिखी जाएं, और दुनिया का भला चाहने के लिए काम करने वाले लोगों को इतना परेशान किया जाए कि उनकी नींद हराम हो जाए, और वे भला चाहना, भला करना बंद करके चुप घर बैठें। अगर सोशल मीडिया पर तैरता शक सही है, तो ऐसे लोगों को परेशान करने के लिए पेशेवर लोगों की एक साइबर फौज बनाई गई है जो कि प्रशिक्षित शिकारी पशुओं की तरह किसी पर भी छोड़ दी जाती है, और वे लोग नेकनीयत लोगों की जिंदगी खराब करके छोड़ते हैं।
दो दिनों से ट्विटर पर एक ट्वीट तैर रही है जिसमें देश की सबसे चर्चित अभिनेत्री और इतिहास के पन्नों से निकलकर वर्तमान में आ गई रानी लक्ष्मीबाई यानी कंगना रनौत, ने शाहीन बाग आंदोलन की सबसे बुजुर्ग महिला की तस्वीर, और अभी चल रहे किसान आंदोलन में झंडा लेकर सडक़ पर चल रही एक बहुत बुजुर्ग महिला को एक ही बताते हुए यह लिखा है कि टाईम मैग्जीन ने जिसे हिन्दुस्तान की सबसे ताकतवर महिला चुना है, वह सौ रूपए में उपलब्ध है। कंगना ने इसके साथ एक किसी व्यक्ति की पोस्ट की हुई एक ट्वीट भी जोड़ी है जिसमें उसने इन दोनों महिलाओं को एक बताया है।
कंगना के ठहाकों को एक झूठ पर आधारित बताते हुए बहुत से लोगों ने इसे किसान आंदोलन में शामिल बुजुर्ग महिला, और शाहीन बाग आंदोलन की बुजुर्ग दादी इन दोनों का अपमान बताया है। कंगना रनौत ने अपनी ट्वीट डिलीट तो कर दी है, लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने का दावा किया है, और उनकी ट्वीट को झूठा बताने वालों को जयचंद (गद्दार) कहा है। यह बहस आज चल ही रही है, और अब देश के कुछ साखदार मीडिया वेबसाईटों ने कंगना के दावे को झूठा करार दिया है, और खुलकर सच को लिखा है। वेबसाईटों ने दोनों तस्वीरों की साइबर जांच करके लिखा है कि ये दोनों अलग-अलग महिलाओं की फोटो है। लोगों ने शाहीन बाग की बिल्किस बानो को इंटरव्यू भी किया है जिसमें उसने कहा है कि यह उसकी फोटो नहीं है। दोनों तस्वीरों की डिजिटल जांच भी यही साबित करती है।
अब सवाल यह है कि कुछ लोग शाहीन बाग के लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन के विरोधी हो सकते हैं, हकीकत यह है कि बहुत से लोग विरोधी हैं, दूसरी तरफ किसान आंदोलन की आलोचना करने वाले लोगों के बारे में कल ही हमने इसी जगह लिखा है। इन दोनों बातों को मिलाकर देखें, और फिर कंगना रनौत जैसी चर्चित और ताकतवर अभिनेत्री की सोशल मीडिया पर सक्रियता देखें, तो यह बात साफ है कि इस हमलावर तलवारबाज महिला के पास अपने दावे की जांच-परख के लिए देश की कुछ सबसे बड़ी ताकतें हैं। ऐसे में दो बुजुर्ग महिलाओं, दो संघर्षशील महिलाओं को झूठा, षडय़ंत्रकारी, बिकाऊ साबित करने की साजिश करके यह अभिनेत्री क्या साबित कर रही है? क्या इस देश में किसी गरीब को आंदोलन का हक नहीं है? क्या इस देश में गरीब, बुजुर्ग, महिला को बेइज्जत करने का हक एक अरबपति, चर्चित, और अभूतपूर्व ताकत-हासिल महिला को इस हद तक है? क्या मानहानि के सारे मुकदमों का हक महज कंगना जैसे संपन्न लोगों को है, और गरीबों की कोई इज्जत ही नहीं है? अगर इन गरीब बुजुर्ग महिलाओं की जगह कंगना की तस्वीरों को जोडक़र कोई सौ रूपए में बिकने वाली लिखते, तो अब तक देश की दो-चार सबसे बड़ी अदालतें महज कंगना का ही मानहानि मुकदमा सुनती रहतीं। इसलिए आज सवाल यह है कि किसी गरीब और बेकसूर को इस देश की ताजा-ताजा तस्वीर में आईं कंगनाओं के मुकाबले जिंदा रहने का कोई हक है या नहीं?
जिस तरह टाईम पत्रिका ने हिन्दुस्तान की एक सबसे असरदार महिला के रूप में शाहीन बाग आंदोलन की बिल्किस बानो का नाम छांटा है, उसी तरह इस पत्रिका ने उसी लिस्ट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी नाम छांटा है। अगर यह लिस्ट खिल्ली उड़ाने लायक है, तो लगे हाथों कंगना को नरेन्द्र मोदी के बारे में भी कह देना चाहिए कि इस पत्रिका की इस पसंद पर वे क्या सोचती हैं? क्या दिल्ली में कुछ ऐसे सामाजिक सरोकारी वकील हैं जो कि इन दो बुजुर्ग महिलाओं की ऐसी बेइज्जती करने वाली कंगनाओं के खिलाफ मुकदमा दायर करे, और कंगना से इन्हें सौ-सौ करोड़ रूपए दिलवाए? आज इस देश में इस बात का फैशन चला हुआ है कि सबसे संपन्न और सबसे ताकतवर लोग 5-5 सौ करोड़ रूपए के मानहानि दावे के मुकदमे कर रहे हैं। इन दो बुजुर्ग महिला आंदोलनकारियों के पास चाहे मुकदमे के लिए पैसे न हों, चाहे वे दौलतमंद न हों, लेकिन महान आंदोलनकारी होने का उनका जो मान है, उसकी हानि करने का हर्जाना कंगनाओं से क्यों वसूल न किया जाए? और अभी तो कंगना रनौत को कुछ और पैसे मिलने ही वाले हैं क्योंकि अदालत ने उसके दफ्तर में तोडफ़ोड़ का हर्जाना देने का हुक्म मुंबई महानगरपालिका को दिया है। अब यह देखना है कि ईमानदार और बेकसूर बुजुर्ग आंदोलनकारी महिलाओं की खिल्ली उड़ाने, उन्हें सौ रूपए में उपलब्ध बताने और उनकी एक संगठित और सुनियोजित बेइज्जती करने से उनकी इज्जत की जो तोडफ़ोड़ कंगना और उसके हमख्यालों ने की है, उसका क्या हर्जाना देश की अदालतें दिलाती हैं। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई न कोई ऐसे सरोकारी वकील होंगे जो कि इस मुद्दे को लेकर भारतीय सोशल मीडिया की गंदगी को उजागर करने की कोशिश करेंगे, और हिन्दुस्तान की कंगानाओं को यह सबक भी सिखाएंगे कि इज्जत महज पैसेवालों का एकाधिकार नहीं है, और तोडफ़ोड़ महज किसी दफ्तर की नहीं होती है, किसी की इज्जत की भी हो सकती है। देखें हमारी यहां लिखी गई बात किसी वकील को भी सूझती और सुहाती है कि नहीं। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)