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हैदराबाद का मंदिर जिस पर शहर का नाम भाग्यनगर करना चाहते हैं योगी आदित्यनाथ
04-Dec-2020 2:05 PM
हैदराबाद का मंदिर जिस पर शहर का नाम भाग्यनगर करना चाहते हैं योगी आदित्यनाथ

RAJA DEEN DAYAL FAMILY/BBC

-बाला सतीश

ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के लिए चले हाई वोल्टेज इलेक्शन कैम्पेन के दौरान एक मंदिर चर्चा के केंद्र में रहा.

केंद्रीय गृह मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता अमित शाह इस मंदिर में गए. उनके जाने के साथ ही भाग्यलक्ष्मी मंदिर के इतिहास, भूगोल और वर्तमान को लेकर बहस शुरू हो गई.

इस मंदिर को लेकर कई दंतकथाएं हैं जिनमें ये बताया गया है कि ये मंदिर कब और कैसे अस्तित्व में आया था.

ऐसी ही एक कहानी है कि कभी किसी ज़माने में जब हैदराबाद पर किसी राजा का शासन था, तो हिंदुओं की अराध्य देवी लक्ष्मी चारमीनार पर आईं. संतरियों ने उन्हें वहीं रोक दिया और कहा कि वे राजा की आज्ञा लेकर आते हैं.

जैसे ही राजा को ये बात पता चली कि देवी लक्ष्मी नगर में आई हैं, वे चिंतित हो गए कि अगर उनसे मिलने के बाद वो नगर छोड़ कर चली गईं तो सारा धन-वैभव ख़त्म हो जाएगा. चूंकि देवी लक्ष्मी ने संतरियों को ये वचन दिया था कि वे उनके आने तक इंतज़ार करेंगी तो राजा ने कहा कि वे वापस लौटकर चारमीनार न जाएं.

योगी आदित्यनाथ का बयान
तभी से ये माना जाता है कि देवी लक्ष्मी ने वहीं पर अपना घर बना लिया. हालांकि इस दंत कथा को सही साबित करने वाली एक भी बात सबूत के तौर पर मौजूद नहीं है.

लेकिन वहां एक मंदिर है जिसमें भाग्यलक्ष्मी देवी की प्रतिमा स्थापित है. यह स्पष्ट नहीं है कि इस मंदिर की स्थापना कब हुई और ये प्रतिमा यहां कब प्रतिष्ठित की गई.

ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के लिए इलेक्शन कैम्पेन के दौरान बीजेपी ने ये दावा किया कि भाग्यनगर शहर का नाम इस मंदिर के कारण पड़ा.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हैदराबाद में एक चुनावी रैली में कहा, "अगर हम इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर सकते हैं तो हम हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर क्यों नहीं कर सकते हैं."

इन हालिया बयानों ने कई लोगों के मन में भाग्यलक्ष्मी मंदिर के बारे में कई तरह की साज़िश की कहानियों को हवा दे दी.

बीबीसी की तेलुगू सेवा ने इन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश की है और इसके लिए कई पुराने दस्तावेज़ों और तस्वीरों को खंगाला गया है.

A SOUVENIR / YUNUS Y. LASANIA
पहली तस्वीरः 'हैदराबाद- अ सूवनीर' से ली गई तस्वीर

ये कॉपी साल 1944 में प्रकाशित हुई थी. इस किताब में तत्कालीन हैदराबाद रियासत के कई हिंदू मंदिरों का जिक्र है.

हालांकि इस फ़ोटो में चारमीनार के पास किसी मंदिर का साफ़ तौर पर पता नहीं चलता है.

A SOUVENIR / YUNUS Y. LASANIA
'हैदराबाद- अ सूवनीर' किताब का पहला संस्करण साल 1922 में प्रकाशित हुआ था.

तत्कालीन प्रिंस ऑफ़ वेल्स हैदराबाद के दौरे पर थे और ये किताब उन्हें शहर के इतिहास से वाकिफ़ कराने के लिए छपवाई गई थी.

इसे साल 1944 में फिर से प्रकाशित किया गया. चारमीनार की तस्वीर भी 1944 वाले संस्करण की है. इस तस्वीर में कोई मंदिर नहीं है.

RAJA DEEN DAYAL FAMILY / SIASAT OFFICE
दूसरी तस्वीरः उर्दू अख़बार 'सियासत' के दफ़्तर में लगी तस्वीर


उर्दू अख़बार 'सियासत' के दफ़्तर में लगी इस तस्वीर के बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि ये राजा दीन दयाल ने खींची थी. हालांकि कुछ इतिहासकारों की राय इससे अलग है और उनकी राय में ये तस्वीर राजा दीन दयाल के पोते अमीचंद दयाल ने ली थी.

दयाल राजघराना हैदराबाद शहर और उसकी इमारतों की फ़ोटोग्राफ़ी के लिए मशहूर रहा है. इस तस्वीर में चारमीनार के पास किसी मंदिर का वजूद नहीं है. केवल एक सफ़ेद रंग की कार उस इलाके में पार्क नज़र आती है. वैसे कुछ जानकार इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि ये तस्वीर मुमकिन हो कि कोई पेंटिंग हो.

इन्हें फ़ोटो पेंटिंग भी कहा जाता है. रंगीन फ़ोटोग्राफ़ी के आविष्कार से पहले श्वेत श्याम तस्वीरों खींची जाती थीं और प्रिंट किए जाने के बाद उनमें कुछ रंग भरे जाते थे. ये फ़ोटो भी उसी तरीके तैयार की गई थी.

साल 2012 के नवंबर महीने में जब इस मंदिर को लेकर विवाद शुरू हुआ तो एक अंग्रेज़ी अख़बार ने ये फोटो छापी जिसमें उस वक्त की तस्वीर के साथ पुरानी तस्वीर प्रकाशित की गई और कैप्शन दिया गया 'पहले और बाद में'.

कई लोगों ने इस तस्वीर पर सवाल खड़े किए. बाद में पचास और साठ के दशक के दौर की कई तस्वीरें सामने आईं जिनमें कोई मंदिर नहीं था. हालांकि साल 1990 और 1994 में ली गई तस्वीरों में मंदिर दिखाई देता है.

न केवल इस तस्वीर में बल्कि साठ के दशक से पहले ली गई कई तस्वीरों और वीडियो में चारमीनार के पास कोई मंदिर नहीं दिखाई देता है.

चलिए इस बात की पड़ताल करते हैं कि क्या इस मंदिर की स्थापना से जुड़ा कोई रिकॉर्ड मौजूद है या नहीं.

इतिहास की किसी किताब में इस मंदिर का कोई जिक्र नहीं मिलता है. भारत में कई जगहों पर ये देखा जाता है कि मंदिरों में कहीं न कहीं उन लोगों के नाम खुदे हुए होते हैं जिन्होंने इसे बनवाया होता है, या फिर इसके लिए ज़मीन या धन दान में दिया होता है. लेकिन हैदराबाद के भाग्यलक्ष्मी मंदिर में ऐसी कोई इबारत नहीं दिखाई देती है.

हैदराबाद शहर के पुराने लोग ये कहते हैं कि ये मंदिर साल 1967 में बनाया गया था. बीबीसी ने जब हैदराबाद शहर के इतिहास पर स्टडी करने वाले लोगों से बात की तो यही जवाब मिला. अस्सी साल की अवधेश रानी पुराने शहर में रहती हैं. उन्होंने उर्दू साहित्य का अध्ययन किया है. बीबीसी ने उनसे बात की.

वो कहती हैं, "जब हमने पहली बार चारमीनार देखा था तो इसके बाहर लोहे की एक मजबूत ज़ंजीर का घेरा हुआ करता था. वक़्त के साथ-साथ ये ग़ायब हो गया. इस ज़ंजीर का एक छोटा सा टुकड़ा भी काफी कीमती रहा होगा इसलिए लोगों ने इससे लोहे की चोरी शुरू कर दी. वहां एक मील का पत्थर भी हुआ करता था."

"वो हैदराबाद का ज़ीरो माइल भी कहा जाता था. साल 1967 में एक बस ड्राइवर ने उस मील के पत्थर में टक्कर मारी जिससे वो टूट गया. इसके बाद आर्य समाज के लोग आए जिन्होंने दावा किया वो पत्थर भाग्यलक्ष्मी मंदिर का है. उन लोगों ने वहां पर चार खंभों के सहारे एक अस्थाई मंदिर की नींव रखी जो केवल ढाई फुट ऊंचा था."

अवधेश रानी बताती हैं, "भाग्यलक्ष्मी मंदिर के मौजूदा ढांचे के निर्माण से पहले वहां दो महिलाएं भीख मांगा करती थीं. वे भगवान के नाम पर भीख मांगने के लिए सिंदूर और हल्दी का इस्तेमाल करती थीं. उसके बाद एक पुजारी वहां पर आए जिन्होंने लक्ष्मी देवी की तस्वीर रखकर ये कहा कि भाग्यलक्ष्मी देवी शहर को बचाने के लिए यहां आई हैं. और इस तरह से वहां देवी की मूर्ति की स्थापना हो गई."

हालांकि अवधेश रानी इस बात का जिक्र भी करती हैं कि जब मंदिर निर्माण हो रहा था तो कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने इस पर एतराज जताया था. कम्युनिस्ट पार्टी ने पांच सदस्यों की एक फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग कमेटी भी बनाई थी. फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग कमेटी की जांच में कुछ दिलचस्प बातें सामने आईं.

वो बताती हैं, "उन्होंने पाया कि काम की तलाश में हैदराबाद आई एक महिला मजदूर की मौत हो गई थी और उसका दाह संस्कार उसी जगह पर किया गया था. वहीं पर हल्दी और सिंदूर छिड़का गया था. वहां उनकी दोनों बेटियां भीख मांगा करती थीं और उनका ये विश्वास था कि उनकी मां एक सन्यासी की तरह मरी हैं."

अवधेश रानी का कहना है कि "कम्युनिस्ट पार्टी ने ये बात सरकार के संज्ञान में लाने की कोशिश की लेकिन उनकी दलीलों को अनसुना कर दिया गया. चारमीनार के पास कोई भाग्यलक्ष्मी मंदिर नहीं हुआ करता था. हां, मक्का मस्जिद के पास एक शिव मंदिर ज़रूर था. शिव मंदिर के रखरखाव का खर्च क़ुतुब शाही घराने के राजा उठाते थे."

"इतिहास की किताबों में इस बात का साफ़ तौर पर जिक्र है. हां, हैदराबाद के पुराने में कई हिंदू मंदिरों का जिक्र ज़रूर मिलता है. मंदिरों में शिलालेख लिखे मिलते हैं लेकिन भाग्यलक्ष्मी मंदिर के बारे में कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है."

क्या कहते हैं मंदिर के पुजारी
बीबीसी ने भाग्यलक्ष्मी मंदिर के पुजारी सूर्यप्रकाश से भी बात की. पुजारी ने बताया कि जहां पर मंदिर है, वहां पर एक पत्थर हुआ करता था और देवी की एक तस्वीर भी. सूर्यप्रकाश का कहना है कि उस पत्थर को श्रद्धालु देवी मानते हुए पांच सौ सालों से पूजा करते आ रहे थे.

भाग्यलक्ष्मी मंदिर के बाहर देवी के चरणों में चांदी के दो आभूषण दिखाई देते हैं. सूर्यप्रकाश बताते हैं, "चांदी के इन आभूषणों के पीछे वो पत्थर है जो टूट गया था. चूंकि टूटे पत्थरों की पूजा नहीं की जाती है, इसलिए वहां एक तस्वीर रख दी गई और बाद में वहां पर एक प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई."

पुजारी सूर्यप्रकाश का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण 80 से सौ साल पहले कराया गया था. हालांकि जब हमने उनसे चारमीनार की उन तस्वीरों का जिक्र किया जिनमें मंदिर नहीं दिखाई देता तो, वे कहते हैं कि उन्हें इस बारे में नहीं मालूम कि हम किन तस्वीरों के बारे में बात कर रहे हैं.

हां, सूर्यप्रकाश इस बात पर ज़रूरत ज़ोर देते हैं कि उनका परिवार चार पीढ़ियों से इस मंदिर में पूजा करता आ रहा है.

हाई कोर्ट में हलफनामा
असगर अली इंजीनियर ने अपनी किताब 'कम्यूनल राइट्स इन पोस्ट इंडीपेंडेंस इंडिया' में इस विवाद का जिक्र किया है. वो लिखते हैं, "तुलनात्मक रूप से इस मंदिर का निर्माण हाल में कराया गया है. साल 1965 में मीनार के पास एक पत्थर को केसरिया रंग से लेप दिया गया."

"रोड ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन की एक बस के टकराने से ये पत्थर टूट गया जिसके बाद 1970 में मंदिर का पक्का निर्माण कार्य कराया गया. बस का ड्राइवर एक मुसलमान था जिसे नौकरी से निकाल दिया गया."

साल 2018 में हाई कोर्ट में बबिता शर्मा नाम की एक महिला ने हलफनामा दायर कर ये दावा किया उनके पिता महंथ राम चंद्र दास ने अपने पैसों से इस मंदिर का निर्माण कराया है.

हालांकि इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं है कि जब चारमीनार का निर्माण हुआ था तो वहां कोई पत्थर था. चारमीनार की नींव मीर मोमिन ने रखी थी. वहां किसी मूर्ति के होने की बात भी किसी दस्तावेज़ में नहीं मिलती है. पूरे तेलंगाना में मंदिरों का जिक्र है.

लेकिन चारमीनार के नक्शे में भाग्यलक्ष्मी मंदिर के वजूद का कोई जिक्र नहीं है और न ही पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों में ही इसके बारे में कभी कुछ लिखा गया है.

उस्मानिया यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे अडपा सत्यनारायण ने हैदराबाद के इतिहास पर काफी शोध किया है. वे बताते हैं कि राजा के दरबार में काम करने वाले वजीरों और भद्र लोगों के मंदिर के लिए दान करने का जिक्र तो मिलता है लेकिन भाग्यलक्ष्मी मंदिर का कोई ऐतिहासिक जिक्र नहीं है.

वे कहते हैं, "सत्तर के दशक तक भाग्यलक्ष्मी मंदिर के बारे में कोई भी चर्चा नहीं थी. नब्बे के दशक में लोगों ने इस पर बात करनी शुरू की. हालांकि एक सवाल रह ही जाता है कि जिन मजदूरों ने चारमीनार के निर्माण में काम किया था, क्या उन्होंने ही वहां मूर्ति स्थापित की थी."

"क्योंकि उस्मानिया यूनिवर्सिटी आर्ट्स कॉलेज की बिल्डिंग का निर्माण किया जा रहा था, वहां एक मूर्ति स्थापित की गई थी. मुमकिन है कि किसी अनहोनी की आशंका के कारण वहां मूर्ति स्थापित की गई हो."

स्थानीय लोग क्या कहते हैं?
हैदराबाद शहर के लोग बताते हैं कि चारमीनार के चारों तरफ़ मील के पत्थर हुआ करते थे. कुछ उस मील के पत्थर से लॉरी की टक्कर का जिक्र करते हैं.

अलीजाकोट के एक बुजुर्ग शख़्स बताते हैं कि "पुराने शहर में उस दौर में दंगे हुए थे. मुसलमानों ने इस बात एतराज जताया था कि चारमीनार के पास रातोंरात एक मंदिर का निर्माण कैसे हो गया. जुमे की नमाज के बाद उस अस्थाई मंदिर को लेकर झड़पें हुई थीं. ये वो दौर था जब तेलंगाना के लिए मुहिम चरम पर थी."

"किसी ने इन सांप्रदायिक झड़पों को तवज्जो नहीं दी. वहां तस्वीर की पूजा का काम अबाध गति से चलता रहा. साल 1979 में काबा की घटना हुई जब सऊदी अरब में कुछ बंदूकधारी एक मस्जिद में घुस आए. इसे लेकर हैदराबाद में भी विरोध प्रदर्शन हुए थे. उस वक़्त भी मंदिर का मुद्दा उभर कर सामने आया."

"साल 1979 में मंदिर की फोटो फ्रेम को नुक़सान पहुंचाया गया जिसके बाद वहां देवी की प्रतिमा स्थापित की गई. फिर धीरे-धीरे मंदिर का दायरा बड़ा होता चला गया. चारमीनार के भीतर मुसलमानों की एक दरगाह है जहां काफी संख्या में लोग जाते हैं. हिंदू भी इस मंदिर का विस्तार उसी तरह से करने लगे."

इस बीच चारमीनार के पास एक स्थानीय व्यक्ति निरंजन से मुलाकात हुई जो वहीं पले-बढ़े हैं. उनका मानना है कि वहां सैंकड़ों सालों से पूजा होती आ रही है.

वे कहते हैं. "मैं ये मानता हूं कि ये मंदिर तब मौजूद नहीं था लेकिन यहां एक पत्थर हुआ करता था जिसे लोग देवी मानकर पूजा करते थे. हैदराबाद में कई जगहों पर पत्थरों की पूजा का रिवाज रहा है. हुसैन सागर में कट्टा माइसम्मा है, गोलकुंडा में अम्मावारी, आलियाबाद बुरुजु में दरबार माइसम्मा का मंदिर इसके उदाहरण हैं."

वो बताते हैं कि साल 1979 में जब काबा की घटना हुई थी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री चेन्नारेड्डी ने इस मंदिर के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई थी. वो बताते हैं, "कर्फ्यू के दौरान भी मंदिर की पूजा रोकी नहीं गई. जुमे की नमाज के वक्त पुलिस ये सुनिश्चित करती थी कि मंदिर का पुजारी घंटी न बजाए."

चारमीनार की उन तस्वीरों (जिनमें भाग्यलक्ष्मी मंदिर नहीं दिखाई देता है) के बारे में निरंजन कहते हैं कि वे तस्वीरें दूर से ली गई थीं. ऐसे कैसे पता चलेगा कि वहां मंदिर था या नहीं. सच तो ये है कि वहां कोई मंदिर नहीं था लेकिन एक पत्थर की पूजा ज़रूर होती थी. दूर से ली गई तस्वीर से पत्थर का पता तो नहीं चल सकता."

भारतीय पुरातत्व विभाग ने साल 1951 में चारमीनार की देखरेख का जिम्मा ले लिया था. वे तब से चारमीनार के हर रिकॉर्ड की देखरेख कर रहे हैं. लेकिन मौजूदा विवाद पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

एएसआई की हैदराबाद सर्किल सुप्रिटेंडेंट स्मिता ने बीबीसी से कहा कि "इस बारे में कुछ कहने का हमें अधिकार नहीं है. अगर आपके कोई सवाल हों तो आप दिल्ली स्थित मुख्याल से संपर्क कर सकते हैं."

हालांकि ये फ़ैक्ट है कि एएसआई को ये बात पता है कि मंदिर का निर्माण बाद में हुआ था. साल 2019 में अंग्रेज़ी अख़बार 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने एएसआई के तत्कालीन हैदराबाद सर्किल सुप्रिटेंडेंट के हवाले से रिपोर्ट किया था, "हम साठ के दशक से ही ज़िला प्रशासन को ये मंदिर हटाने के लिए लिखते आ रहे हैं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया."

बाद में उनका तबादला कर दिया गया. बीबीसी ने उनसे संपर्क करने की कोशिश लेकिन उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं मिला.

दिसंबर 2019 में एएसआई से किसी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत ये पूछा कि क्या मंदिर का निर्माण वैध तरीके से किया गया है और क्या एएसआई ने इसकी इजाजत दी थी. इसके जवाब में एएसआई ने लिखा कि 'नहीं.'

पुरातत्व विभाग के मुताबिक़ इस मंदिर का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. (bbc.com)

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