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किसान आंदोलनः क्यों टूट रहा है मीडिया के प्रति भरोसा
05-Dec-2020 10:37 AM
किसान आंदोलनः क्यों टूट रहा है मीडिया के प्रति भरोसा

सिंघु बॉर्डर पर हम एक किसान आंदोलनकारी से बात कर ही रहे थे कि एक पोस्टर लिए एक व्यक्ति फ्रेम में घुस आया.

इस पोस्टर पर लिखा था, 'मीडिया वालों सच बोलो....प्लीज़!'

किसान आंदोलन के दौरान एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाद सबसे अधिक यदि कोई शब्द सुनाई देता है तो वो है 'गोदी मीडिया'.

ये वाक्यांश मीडिया के उस हिस्से के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो प्रदर्शनकारियों की नज़र में सरकार का पक्ष रख रहा है और किसानों के आंदोलन के बारे में आधारहीन नकारात्मक ख़बरें प्रसारित कर रहा है.

कैमरामैन और हाथ में माइक लिए रिपोर्टरों को देखते ही गोदी मीडिया गो बैक के नारे लगने लगते हैं.

लोग पत्रकारों से बात करने से पहले ये देखते हैं कि उनके हाथ में माइक पर किस चैनल का लोगो है.

मीडिया के प्रति नाराज़गी नई नहीं

ये पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फ़ैसलों के विरोध में खड़े हुए किसी आंदोलन के दौरान मीडिया के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की जा रही है.

लेकिन दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है उसमें मीडिया के प्रति दिख रहा ग़ुस्सा असाधारण है.

मुख्यधारा की मीडिया के कई चैनलों के पत्रकारों को लोग खुलकर हूट कर रहे हैं. पोस्टरों और बैनरों से उनका विरोध किया जा रहा है.

मीडिया, जो अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है, कहीं ना कहीं उसने अपनी विश्वसनीयता लोगों की नज़र में खो दी है.

मुख्यधारा की मीडिया के प्रति कम हुए विश्वास ने पत्रकारिता के लिए जो जगह ख़ाली की है उसे छोटे-छोटे चैनलों और सोशल मीडिया चैनलों के पत्रकार भर रहे हैं. आंदोलन स्थलों पर ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो स्वतंत्र रूप से अपने यूट्यूब चैनल चला रहे हैं और किसान आंदोलन से जुड़ी ख़बरें पोस्ट कर रहे हैं.

पंजाब यूथ क्लब आर्गेनाइज़ेशन से जुड़े जोगिंदर जोगी कहते हैं, 'सोशल मीडिया और लोकल चैनलों ने ही इस आंदोलन को ज़िंदा किया है वरना ये अब तक मर गया होता. नेशनल मीडिया ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी है.'

जोगी कहते हैं, 'मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है. मीडिया की ज़िम्मेदारी समाज के साथ हो रहे अन्याय को सामने लाना है. लेकिन यहां ऐसा लग रहा है कि मीडिया बिक चुकी है. मीडिया लोगों की बात रखने के बजाए सरकार का पक्ष ही दिखा रही है.'

'बहुत से चैनल आंदोलन को पाकिस्तान और ख़ालिस्तान से जोड़कर दिखा रहे हैं. इसकी वजह से लोगों में मीडिया के लिए ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा है.'

प्रदर्शन में शामिल एक युवा कहता है, 'मीडिया सरकार की वाहवाही लूटने के लिए किसानों को एंटी नेशनल साबित करने पर जुटी है. पत्रकार ये दिखाने का मौक़ा ढूंढ रहे हैं कि देश विरोधी और एंटी नेशनल तत्व आंदोलन में शामिल हैं.'

राष्ट्रीय मीडिया में नहीं मिली खास तवज्जो

बीते दो महीनों से किसानों का ये आंदोलन पंजाब में चल रहा था. इस दौरान किसानों ने कई प्रदर्शन किए, रैलियां की और रेल भी रोकी लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में उन्हें कोई ख़ास जगह नहीं मिल सकी.

किसान आंदोलन में शामिल लोगों में इस बात का भी ग़ुस्सा है कि राष्ट्रीय मीडिया ने इस आंदोलन को तब तक नज़रअंदाज़ किया जब तक कि किसान दिल्ली की सीमा तक नहीं पहुँच गए.

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम का कहना है कि आज मीडिया ऐसी चीज़ों को कवर करने से बच रहा है जिनसे सरकार के असहज या नाराज़ होने का अंदेशा हो.

अंजुम कहते हैं, 'मीडिया अब ऐसे एंगल तलाश रहा है जो सरकार के एजेंडे को ही आगे बढ़ाए. किसानों का यही आंदोलन अगर 2014 के पहले हो रहा होता तो दर्जनों चैनलों के पचासों रिपोर्टर यहां खड़े होकर देश को ये बता रहे होते कि किसानों की मांगे कितनी जायज़ हैं.'

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि कृषी क़ानून किसानों के हितों में हैं और उन्हें फ़ायदा पहुंचाने के मक़सद से लाए गए हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार ये भी कहा है कि अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं और किसानों को बरगलाया जा रहा है.

अजीत अंजुम कहते हैं, 'आज सत्ता में मोदी जी हैं, ऐसे में मीडिया आंदोलन को उसी रूप में दिखाने की कोशिश कर रहा है जो सत्ता को सूट करता है. इसलिए ही विदेशी फ़ंडिंग और ख़ालिस्तान के एंगल जोड़े जा रहे हैं. ये दुर्भाग्यपूर्ण है.'

मीडिया की भूमिका आंदोलन में शामिल किसानों की मांगों को समझकर उसे सरकार और देश तक पहुंचाने की है. लेकिन आंदोलन में शामिल लोगों को लगता है कि मीडिया ये काम करने के बजाए किसी भी तरह से आंदोलन की कोई कमी खोज लेना चाहती है.

प्रदर्शन में शामिल बॉबी नाम का एक युवा कहता है, 'यहां हज़ारों किसान बैठे हैं, बुजुर्ग बैठे हैं. मीडिया के कैमरे इन लोगों की बात सुनने के बजाए उन दो-चार लोगों को खोजते रहते हैं जो किसी तरह की हुल्लड़बाज़ी कर रहे हैं. हम जो बोले सो निहाल का नारा लगाते हैं तो हमें ख़ालिस्तानी बताकर दिखाते हैं.'

सोशल मीडिया और लोकल चैनलों पर अधिक विश्वास

आंदोलन में शामिल लोग सोशल मीडिया और छोटे स्थानीय मीडिया चैनलों पर अधिक विश्वास कर रहे हैं. टीकरी बॉर्डर पर कवरेज कर रहे है हरियाणा उत्सव नाम के एक सोशल मीडिया चैनल के पत्रकार अनिल खत्री को लोगों ने घेर रखा है.

वो अपने मोबाइल फ़ोन से वीडियो रिकॉर्ड कर रहे हैं. इसी से वो लाइव भी करते हैं. अनिल खत्री कहते हैं, 'हम लगातार यहां से वीडियो पोस्ट कर रहे हैं. हमारे कई वीडियो को लाखों लोगों ने देखा है. हमारा छोटा चैनल है लेकिन आंदोलन के कवरेज को ज़बरदस्त रेस्पांस मिल रहा है.'

अनिल कहते हैं, 'लोगों में बड़े चैनलों के प्रति ग़ुस्सा है. यूट्यूबर या सोशल मीडिया चैनलों का स्वागत किया जा रहा है. छोटे चैनल ही आंदोलन को दिखा रहे हैं. हम सीधी तस्वीरें दिखाते हैं, कोई एजेंडा नहीं चलाते इसलिए कोई हमारा विरोध नहीं करता. लोग भी उसे ही पसंद करते हैं तो सच्चाई के साथ कवरेज करता है.'

2012 से पत्रकारिता कर रहे अनिल खत्री ने 2019 में नौकरी छोड़कर अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया था. अब उनके तीस हज़ार से अधिक सब्सक्राइबर है.

खत्री कहते हैं, 'पहले हम ख़बर भेजते थे तो संपादक तय करते थे कि चलानी है या नहीं. अब हम सीधे कवरेज करते हैं. हम लोगों की आवाज़ को बिना रोकटोक उठा रहे हैं.'

राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में पब्लिक पिलर नाम से वेब चैनल चलाने वाले मंदरूप सिंह भी किसान आंदोलन को कवर करने पहुंचे हैं. मंदरूप कहते हैं, 'यहां लोगों में नेशनल मीडिया के प्रति बहुत ग़ुस्सा है. माइक देखकर लोग ग़ुस्सा हो जाते हैं, उन्हें बताना पड़ता है कि हम मीडिया से नहीं, सोशल मीडिया से हैं, तब वो बात करते हैं.'

अंबाला से आए विनर सिंह सिख चैनल के लिए रिपोर्टिंग कर रहे हैं. विनर सिंह भी मानते हैं कि आम लोगों में मेनस्ट्रीम मीडिया के प्रति ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा है.

वो कहते हैं, 'पहली बार एक बड़ा मोर्चा दिख रहा है जिसमें लोग मीडिया पर निर्भर होना नहीं चाहते. आंदोलन में शामिल लोग मीडिया से नफ़रत कर रहे हैं.'

विनर कहते हैं, 'पहले लोग अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए मीडिया के सामने आते थे. लेकिन हम देख रहे हैं कई बड़े चैनलों के रिपोर्टरों को भगाया जा रहा है, उन्हें प्रदर्शन स्थल से बाहर निकाला जा रहा है. लोगों में मीडिया के लिए ऐसा ग़ुस्सा पहले नहीं देखा है.'

विनर कहते हैं, 'इसकी वजह ये भी है कि आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें भी की जा रही है और इससे लोगों का मीडिया के प्रति भरोसा टूट गया है. लोग यहां चैनल की माइक आईडी देखकर बात कर रहे हैं. ये पत्रकारिता पर गंभीर सवाल है.'

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम कहते हैं कि ये एक दुर्भाग्यपूर्ण दौर है जिसमें पत्रकारों और पार्टियों के प्रवक्ताओं के बीच फ़र्क़ करना मुश्किल हो रहा है.

हालांकि उन्हें ये लगता है कि सोशल मीडिया एक विकल्प के तौर पर खड़ा हो रहा है. अंजुम कहते हैं, 'सोशल मीडिया ने बहुत सी उन आवाज़ों को उठाया है जिन्हें सरकार दबाना या कुचलना चाहती है. लोगों ने अपने पास मौजूद संसाधनों के ज़रिए अपनी आवाज़ को उठाया है.'

अंजुम कहते हैं, 'अगर सोशल मीडिया के नज़रिए से देखा जाए तो ये शानदार मौक़ा है अपनी पहचान बनाने का. सोशल मीडिया उस दबाव से बाहर है जो कार्पोरेट मीडिया पर होता है और इसलिए ही सोशल मीडिया चैनल अधिक आज़ादी से काम कर पा रहे हैं.'

जबरदस्त रेस्पांस

सैयद अकरम ने बड़े चैनल में नौकरी छोड़कर एक साल पहले अपना यूट्यूब चैनल 'द नेशन' शुरू किया था. उनके पास अब सात लाख के क़रीब सब्सक्राइबर हैं. वो लगातार प्रदर्शनस्थलों से कवरेज कर रहे हैं.

सैयद अकरम कहते हैं, 'मीडिया ने जो जगह ख़ाली छोड़ दी है उसे सोशल मीडिया और वेब मीडिया भर रहा है. हमने सोचा नहीं था कि आंदोलन की कवरेज को इतना ज़बरदस्त रेस्पांस मिलेगा. लोग अब बिना लाग लपेट के सीधे ज़मीन से जुड़ी आवाज़ें सुनना पसंद कर रहे हैं. हम ठीक यही काम कर रहे हैं.'

गाजीपुर बॉर्डर पर दिन भर की कवरेज करने के बाद मैं अपने एक पुराने पत्रकार दोस्त के साथ डिवाइडर पर बैठा था कि उसके हाथ में चैनल की माइक आईडी देखकर कुछ युवा चले आए और विरोध करने लगे.

उनके मोबाइल में उस ख़बर के स्क्रीनशॉट थे जिससे वो नाराज़ थे. पत्रकार ने बड़ी मशक्क़त के बाद समझाया कि 'ख़बर को जिस नज़रिए से वो देख रहे हैं ऐसा नहीं है, चैनल का मक़सद आंदोलन को बदनाम करना नहीं है.'

मीडिया के प्रति टूट रहे भरोसे को ग्राउंड में काम करने वाले पत्रकार भी समझ रहे हैं और जनता भी. शायद यही वजह है कि पहले जिस माइक को देखकर लोग अपनी बात रखने के लिए दौड़े आते थे वो अब उन माइकों को थामे पत्रकारों को ही दौड़ा रहे हैं. (bbc)

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