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नूर हुसैन: जिनकी फ़ोटो से बांग्लादेश की तानाशाही व्यवस्था हिल गई
08-Dec-2020 4:37 PM
नूर हुसैन: जिनकी फ़ोटो से बांग्लादेश की तानाशाही व्यवस्था हिल गई

DINU ALAM, साल 1987 में ढाका में नूर हुसैन, पुलिस की गोली लगने से ठीक पहले की तस्वीर

साल - 1987.

जगह - बांग्लादेश में ढाका

लोकतंत्र का समर्थन कर रहे एक युवा प्रदर्शकारी को पुलिस ने गोली मार दी थी. गोली लगे उसके शरीर को पुलिस ने जेल में फेंक दिया था. किसी को पता नहीं था कि इसी नौजवान की एक तस्वीर क्रांति का रुख़ बदल कर रख देगी. और एक तानाशाह को झुका देगी.

बीबीसी के मोआज़्ज़ेम हुसैन उस दिन उस तस्वीर वाले शख़्स की सेल के बगल वाली सेल में ही थे. उन्होंने उस तस्वीर वाले शख़्स की सच्चाई और पूरी कहानी पता की.

10 नवंबर तक चलने वाला 1987 का वो सप्ताह ढाका शहर के लिए बेहद तनावभरा था. राष्ट्रपति हुसैन मुहम्मद इरशाद ने राजधानी ढाका को देश के सभी दूसरे हिस्सों से अलग-थलग कर दिया था.

स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय बंद कर दिए गए थे और छात्रों को आदेश दिया गया था कि वे हॉल खाली कर दें.

राजनीतिक विरोध प्रदर्शन और रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और इरशाद एक सैन्य-तानाशाह, अपनी आपातकालीन ताक़तों का इस्तेमाल लोकतंत्र समर्थकों और कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने के लिए कर रहा था.

वहीं दूसरी ओर विपक्षी राजनीतिक ताक़तें राष्ट्रपति पर इस्तीफ़े का दबाव बनाने के लिए हज़ारों की संख्या में समर्थकों को जुटा रही थीं. 10 नवंबर की सुबह, मैं उन हज़ारों कार्यकर्ताओं में से एक था.

उन हज़ारों में से जो विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए जा रहे थे. हमने कभी इसे बनाया नहीं था. क़रीब नौ बजे, मुझे और कई अन्य प्रदर्शनकारियों को दंगा-रोधी पुलिस दल ने हिरासत में ले लिया. हमें बेरहमी से मारा-पीटा गया. एक लॉरी में हमें जानवरों की तरह बांधकर बैठा दिया गया और उसके बाद हमें पुलिस स्टेशन ले जाया गया.

जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, राजनीतिक क़ैदियों की संख्या भी बढ़ती गई. पूरे ढाका में जगह-जगह हिंसक झड़पें जारी थीं. कुछ प्रदर्शकारियों को गोली भी लगी थी जिससे उनके शरीर पर गहरा घाव हो गया था. वहीं शवों के बीच में एक शख़्स खड़ा था. उसके नंगे बदन पर नारे लिखे हुए था. उसकी बेजान सी भूरी त्वचा पर चमकदार सफ़ेद रंग में लिखे उन शब्दों ने हममें एक अजीब सा जोश भर दिया था.

"सायराचार नितपत जक" - "डाउन विद ऑटोक्रेसी" (निरंकुशता मुर्दाबाद)

PAVEL RAHMAN

ये नूर हुसैन थे. हम उस समय नहीं जानते थे कि वो कौन हैं.. हम ये भी नहीं जानते थे कि जिस जगह इस शख्स को गोली लगी आगे चलकर उस जगह का नाम उसके नाम पर रखा जाएगा.

हमें ये भी नहीं पता था कि वो आगे चलकर इतने मशहूर हो जाएंगे. उनका त्याग और बलिदान अमर हो जाएगा और उनके ऊपर किताबें लिखी जाएंगी. फ़िल्में बनेंगी. उनके नाम पर कविताएं लिखी जाएंगी और पोस्टल स्टैंप जारी किए जाएंगे.

हम नहीं जानते थे कि उनकी मौत से ठीक पहले ली गई उनकी एक तस्वीर हमारे लोकतंत्र के लिए हमारी पीढ़ी के लंबे और खूनी संघर्ष का प्रतीक बन जाएगी.

भाई
मैंने पिछले 33 सालों में कई बार नूर हुसैन की तस्वीरों को देखा है. वह दृढ़ निश्चय वाले दिखते हैं. उनका शरीर और उनके शरीर पर लिखा नारा, सूरज की चकाचौंध में भी अलग रोशनी बिखेरता नज़र आता है.

जिस समय नूर की मौत हुई वो 26 साल के थे. उनकी मौत के एक दिन बाद उनकी तस्वीरें बांग्लादेश के अख़बारों के पहले पन्ने पर छपीं. इससे एक ओर जहां सरकार को झटका लगा वहीं दूसरी ओर लाखों लोगों को प्रेरणा मिली.

1987 में वो और मैं जिस विरोध प्रदर्शन में शामिल थे उसे हिंसक तरीक़े से दबा दिया गया लेकिन उसके तीन साल बाद एक और विरोध प्रदर्शन हुआ और यह प्रदर्शन राष्ट्रपति इरशाद को झुकाने में कामयाब रहा. इस प्रदर्शन में कई प्रदर्शकारी ऐसे थे जो नूर हुसैन की छवि से प्रेरित हुए थे.

मैं अक्सर सोचता हूं कि ढाका के एक श्रमिक परिवार में जन्मे इस व्यक्ति के साथ ऐसा क्या हुआ होगा या वो क्या परिस्थिति रही होगी जिसने उसे इस असाधारण काम के लिए प्रेरित किया होगा. तानाशाही के ख़िलाफ़ नूर की प्ररेणा से जो बग़ावत शुरू हुई उसकी 30वीं बरसी पर मैंने नूर से जुड़े कुछ सवालों को तलाशने की कोशिश की.

नूर हुसैन के पिता मुजीबुर रहमान उस समय ढाका के पुराने हिस्से में एक ऑटोरिक्शा चलाते थे. नूर के पिता मुजीबुर का 15 साल पहले ही निधन हो चुका था लेकिन नूर के भाई अली से मुलाक़ात की जा सकती थी. वह अब भी अपने भाई नूर के जीवन के आख़िरी दिनों को याद करते हैं.

अली हुसैन, नूर हुसैन के भाई

नूर के भाई अली ने बताया, "मेरे पिता जानते थे कि नूर राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे. वह अक्सर घर से दूर ही रहते थे और राजनीतिक रैलियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे."

जब नूर लगातार दो रातें घर वापस नहीं लौटे तो माता-पिता को चिंता होने लगी. 10 नवंबर 1987 को वो उन्हें शहर की एक मस्जिद में मिले.

अली बताते हैं, "मेरे माता-पिता ने उनसे घर वापस चलने का अनुरोध किया लेकिन उन्होंने मना कर दिया. उन्होंने कहा कि वह बाद में आएंगे."

"यह नूर के साथ उनकी आख़िरी मुलाक़ात थी."

उस दिन के बाद से तो नूर प्रदर्शनकारियों में शामिल हो गए. प्रदर्शनकारी हिंसक हो गए. प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर ईंटें फेंकी और घर में बने बम फेंके. इसके जवाब में पुलिस ने उन पर आंसू गैस के गोले दागे और गोलियां बरसाईं. नूर हुसैन सहित तीन लोग गोलियों से बुरी तरह घायल हो गए थे. दर्जनों लोग इसमें घायल हुए थे.

अगले दिन दोपहर तक नूर के परिवार को यह ख़बर मिल गई थी कि नूर को गोली लग गई है. ख़बर मिलने के साथ ही नूर के पिता मुजीबुर और भाई अली सबसे पहले उस जगह पर पहुँचे जहाँ नूर विरोध कर रहे थे. फिर एक पुलिस अस्पताल में और अंत में उन्हें ख़बर मिली कि नूर को पुलिस स्टेशन ले जाया गया है.

पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े अधिकारियों ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया लेकिन उन्होंने यह ज़रूर बता दिया की एक शव अंदर है जिसके शरीर पर सिर्फ़ पैंट है. उन्होंने कहा कि अगर वे उन्हें शव देते हैं तो दंगे भड़क सकते हैं.

नूर की हत्या के लिए कभी किसी अधिकारी को आरोपी नहीं बनाया गया. जनरल इरशाद के समय में किसी भी अधिकारी पर कोई आरोप नहीं लगा जबकि प्रदर्शन के दौरान पुलिस की कार्रवाई से सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की मौत हुई थी.

मैंने अली से पूछा कि क्या उन्हें याद है कि उनके भाई के शरीर पर वह नारा किसने लिखा था. उन्होंने बताया कि उस शख़्स का नाम इकराम हुसैन था. रोचक बात यह है कि इकराम उस समय राष्ट्रपति इरशाद के स्टाफ़ क्वार्टर में रह रहे थे और उनके भाई राष्ट्रपति के दूत थे.

इसके बाद अली ने मुझे इकराम का नंबर दिया.

द पेंटर
मैंने इकराम को फ़ोन किया.

उन्होंने बताया कि, हां वही थे जिन्होंने नूर के बदन पर वो नारे लिखे थे.

साल 1987 में इकराम 18 साल के युवा थे. वो एक साइनबोर्ड आर्टिस्ट थे. वो अपने बड़े के साथ बंगभबन में रहा करते थे. मोतीझील इलाक़े में उनकी एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी. जहां पर ज़्यादातर साइनबोर्ड पेंट किये जाते थे और बैनर बनाए जाते थे.

इकराम ने बताया, "मैं नूर हुसैन को चेहरे से पहचानता था. वो ऑफ़िस के पुराने फर्नीचर बेचने वाली एक कंपनी में बतौर कर्मचारी काम किया करते थे. हालांकि हमारे बीच बहुत बातचीत नहीं हुई थी."

इकराम हुसैन

हर रोज़ की तरह 9 नवंबर को भी इकराम अपने काम में लगे हुए थे और शाम को लगभग पांच बजने के बाद दुकान बंद करने ही जा रहे थे लेकिन इसे पहले की वो दुकान बंद करके जाते नूर हुसैन उनके पास पहुंचे. नूर एक अनुरोध लेकर इकराम के पास गए थे.

इकराम ने बताया "वह मुझे पास की एक संकरी सी गली में लेकर गए. वहाँ पहुंचकर उन्होंने गली की दीवार पर चॉक से नारे लिखे. उसके बाद उन्होंने अपनी शर्ट उतार दी और मुझसे अपने बदन पर नारे लिखने को कहा."

इकराम उस वक़्त काफी डर गए थे.

इकराम ने बताया, "मैंने उनसे कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता. मेरा भाई राष्ट्रपति का दूत है और हम मुश्किल में पड़ जाएंगे. आप गिरफ़्तार हो सकते हैं. आपको मार दिया जा सकता है."

लेकिन नूर पूरी तरह तय करके और मन पक्का करके आए थे. उन्होंने इकराम से कहा कि वे चिंता ना करें क्योंकि अगले दिन ऐसे सैकड़ों लोग होंगे जिनके बदन पर यही नारा लिखा होगा.

इकराम ने नूर के बदन पर दो नारे लिखे थे.

1987 के प्रदर्शन के दौरान पुलिस
SHAHIDUL ALAM
"सायराचार नितपत जक" - निरंकुशता मुर्दाबाद (यह नारा उनकी छाती पर लिखा हुआ था)

"गोनोटोंट्रा मुक्ति पाक" - "लोकतंत्र को मुक्त होने दें" (यह नारा उनकी पीठ पर लिखा हुआ था)

इकराम ने इन नारों को लिखने के बाद दो पूर्ण-विराम भी लगाए.

इकराम ने बताया कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि वो अपने लिखे नारे को सैकड़ों के बीच भी पहचान सकें.

लेकिन अगले दिन, सड़क पर सिर्फ़ एक ही शख़्स था जिसके बदन पर नारे लिखे हुए थे. वो फ़ोटोग्राफ़र्स की नज़र में आ चुका था लेकिन भीड़ में अपनी ओर सबका ध्यान खींचने वाला यह शख़्स कुछ देर बाद ही हमेशा के लिए सो गया.

वो फ़ोटोग्राफ़र
पावेल रहमान ने मुझे बताया कि उन्होंने नूर हुसैन को सिर्फ़ पीछे से ही देखा था. मैं रहमान के साथ ढाका के एक अख़बार में काम करता था. वो बीते पचास सालों से फ़ोटोग्राफ़ी कर रहे हैं.

उस दिन नूर हुसैन को देखकर उनके दिल की धड़कनें तेज़ हो गई थीं.

रहमान ने मुझे बताया, "मैंने इससे पहले किसी भी प्रदर्शनकारी को बदन पर नारे लिखकर प्रदर्शन करते नहीं देखा था. इससे पहले की वो सैकड़ों की भीड़ में कहीं गायब हो जाते, मुझे पीछे से केवल दो बार एक वर्टिकल और एक हॉरिजेंटल तस्वीर लेने का मौक़ा मिला. मुझे इस बात की ख़बर नहीं थी कि उनकी छाती पर भी नारा लिखा हुआ है."

उस शाम जब रहमान अपनी रील से तस्वीरें बना रहे थे तब उनके साथ ही काम करने वाले एक शख़्स ने उन्हें बताया कि जिस प्रदर्शनकारी की यह तस्वीर है, उसकी मृत्यु हो गई है.

उन्होंने बताया, "यह पता चलने के बाद तस्वीर छापने को लेकर कुछ बहस हुई कि क्या तस्वीर छापी जानी चाहिए या नहीं छापी जानी चाहिए. मेरे एडिटर को लग रहा था कि यह बहुत जोख़िम भरा हो सकता है. सरकार भी इसे लेकर काफी कड़ा रुख़ अख़्तियार कर सकती है. लेकिन फिर अंत में हमने तस्वीर छापने का फ़ैसला किया."

रहमान याद करते हैं "तस्वीर छपने से राष्ट्रपति इरशाद काफी गुस्से में थे और फिर मुझे कई दिनों तक छिपना पड़ा था."

पावेल की ली गई तस्वीर पूरे देश में फैल चुकी थी और वो एक पोस्टर बन चुके थे. लेकिन ये पोस्टर-मैन कौन है इस बारे किसी को पता तक नहीं चल पाता अगर फ़ोटोग्राफ़र दीनू आलम ने सामने से उनकी तस्वीर नहीं ली होती.

दीनू बताते हैं, "मैंने सामने से उनके कई शॉट्स लिए. मैं नीचे लेटकर कुछ देर तक उनकी तस्वीरें लेता रहा था. लेकिन मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि उनकी पीठ पर भी एक नारा लिखा हुआ है."

दीनू कहते हैं, "शायद मैंने नूर के आख़िरी क्षणों की तस्वीर कैमरे में कैद की थी."

रात का पहरेदार
जब अगले दिन इकराम हुसैन ने अख़बार के पहले पन्ने पर उनकी तस्वीर देखी तो बुरी तरह से टूट गए. वो ख़ुद को नूर हुसैन की मौत के लिए दोषी मान रहे थे.

इकराम कहते हैं, "मुझे लग रहा था कि अगर मैं उनके शरीर पर नारे नहीं लिखता तो शायद वो ज़िंदा होते."

अपने को सुरक्षित रखने के लिए इकराम कई सालों तक पुलिस और अधिकारियों से छिपते-बचते रहे.

तीन साल बाद जब तानाशाह राष्ट्रपति इरशाद का पतन हो गया, उसके बाद ही कहीं जाकर इकराम ने ख़ुद को सुरक्षित पाया. इकराम इसके बाद नूर के परिवार से भी मिले और उन्हें पूरी कहानी बतायी.

नूर के परिवार के मिलकर वो रोने लगे और उनसे माफ़ी भी मांगी. लेकिन नूर के पिता ने उन्हें गले लगा लिया.

उन्होंने इकराम से कहा "आप मेरे बेटे की तरह हैं. हमने नूर हुसैन को खो दिया लेकिन अब आप मेरे बेटे हैं. आपके और नूर की वजह से ही अब हम लोकतंत्र में हैं."

मुजीबुर और उनकी पत्नी मरियम बीबी को नूर के शव के बारे में एक सप्ताह बाद पता चला. पुलिस ने उनके बेटे को ढाका में प्रदर्शन के दौरान मारे गए दो अन्य प्रदर्शकारियों के साथ एक गुमनाम कब्र में गुपचुप तरीक़े से दफ़ना दिया था. बाद में जिस शख़्स ने उनके शव को दफ़नाए जाने के लिए तैयार किया था उसने नूर के परिवार को इस बारे में सूचित किया.

मैंने जुरियन कब्रिस्तान के देखरेख करने वाले व्यक्ति से मुलाक़ात की. यह वही कब्रिस्तान है जहां नूर को दफ़नाया गया था. जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो मैंने सबसे पहले उनसे पूछा कि क्या उन्हें उस रात के बारे में कुछ भी याद है.

नूर हुसैन
आलमगीर नाम के इस शख़्स ने बताया, "जब वे यहां आए तो उस समय रात के लगभग ढाई बज रहे थे. मैं रात का पहरेदार था लेकिन मुझे और भी कई काम करने थे... कब्र खोदनी थी, शव को नहलाना था और मुर्दे को दफ़नाना था."

आलमगीर बताते हैं कि उन्होंने देर रात आए उन लोगों से कहा कि वे रात 11 बजे के बाद मुर्दे नहीं दफ़नाते हैं. लेकिन उन लोगों ने ज़ोर देकर कहा कि वे सरकार के लोग हैं. आलमगीर ने शव को नहलाया और दफ़नाए जाने के लिए तैयार किया जबकि बाकी लोगों ने मुर्दे के लिए कब्र खोदी.

आलमगीर याद करते हुए कहते हैं, "उसके शरीर पर गोली का एक छेद था. यह छाती पर लिखे नारे के ठीक नीचे था."

नूर की मौत के काफी सालों बाद उनके माता-पिता से मिलने एक ऐसा शख़्स पहुंचा जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी. उस शख़्स ने उनसे मुलाक़ात के लिए सालों का इंतज़ार किया था. 1997 में जनरल इरशाद सात साल बाद जेल से रिहा हुए और वो नूर के माता-पिता, मरियम और मुजीबुर से मिलने उनके घर पहुंचे. वो उनसे माफ़ी मांगने गए थे.

अली उस दिन को याद करते हुए बताते हैं, "उन्होंने मेरे पिता से कहा कि अगर आपका बेटा ज़िंदा होता तो जिस तरह वो आपका ख़याल रखता, मैं कोशिश करूंगा कि मैं उसी तरह आपका ख़याल रख सकूं."

इस मुलाक़ात के अगले कुछ सालों तक इरशाद परिवार के संपर्क में रहे और कभी-कभी परिवार को पैसे भी भेजते थे. लेकिन जिस दिन ढाका विश्वविद्यालय में मुजीबुर ने अपने बेटे की स्मारक पर खड़े होकर तानाशाही के वापस ना लौटने की बात कही, उसके बाद से इरशाद की ओर से होने वाली हर पहल बंद हो गई.

अली बताते हैं कि इस बात से इरशाद काफी नाराज़ हो गए थे और इसके बाद उन्होंने नूर और अली के पिता मुजीबुर से कभी संपर्क नहीं किया.

जनरल इरशाद
नूर की मौत के क़रीब एक दशक से अधिक समय बाद मैं जनरल इरशाद से मिला. यह साल 1999 का दौर था और उस समय इरशाद विपक्ष में थे और लोगों का समर्थन वापस पाने के लिए देश की यात्रा कर रहे थे. मैं उनके साथ बांग्लादेश के दक्षिण में एक नदी पर गया. उनके एक सहयोगी ने उन्हें बताया कि मैं अपने छात्र जीवन में एक कट्टरपंथी कार्यकर्ता था और जेल भी गया था.

नाश्ते के दौरान मज़ाकिया अंदाज़ में उन्होंने कहा था, "मैंने सुना है कि आप एक क्रांतिकारी थे."

बीते साल जनरल का निधन हो गया. वो एक आकर्षक व्यक्तित्व वाले थे लेकिन उनके कई चेहरे थे. वह साल 1982 में एक रक्तहीन सैन्य-तख़्तापलट से सत्ता में आए. उन्होंने भी दुनिया भर के तमाम सैन्य-शासकों की तरह भ्रष्टाचार से लड़ने, सत्ता में सुधार लाने और राजनीति को साफ़ करने का संकल्प लिया था. उन्होंने धार्मिक रूढ़िवादियों को खुश करने के लिए इस्लाम को बांग्लादेश का राज्य-धर्म बना दिया और धर्म-निरपेक्ष संविधान को मूल रूप से बदल दिया.

1986 में उनकी चुनावी जीत वोटरों के फ़्रॉड के आरोपों के कारण विवादों में घिर गई थी. जनरल इरशाद ने सत्ता में रहते हुए देश के संविधान और संसद को निलंबित कर दिया था और राजनीतिक विरोधियों पर सख़्त कार्रवाई की थी. इसके बाद साल 1987 के विरोध प्रदर्शनों को हिंसक तरीक़े से दबाने के पीछे भी उन्हीं का नेतृत्व था. जिसकी वजह से मुझे भी जेल जाना पड़ा था.

साल 1990 में इरशाद के नौ साल का शासन समाप्त हो गया था. जब उन्हें बड़े पैमाने पर भड़के विद्रोह के कारण मजबूरी में इस्तीफ़ा देना पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्हें कैद कर लिया गया. उस दिन ढाका की सड़कों पर हज़ारों लोगों ने मार्च निकाला. लोग सड़कों पर झूम रहे थे. नाच रहे थे. गा रहे थे. साल 1971 में आज़ादी के बाद से देश ने ऐसा कुछ नहीं देखा था. ऐसा लग रहा था कि यह एक नई सुबह है . देश के लिए एक नई शुरुआत लेकिन यह लंबे समय तक नहीं रहा.

दो मुख्य पार्टियां आवामी लीग और बीएनपी जल्दी ही सत्ता की लड़ाई में आ गईं. आने वाले कुछ दशकों तक वो बारी-बारी से सत्ता पर काबिज़ हुईं और उन्होंने भी कमोबेश वैसे ही तरीक़े अपनाए जैसे पहले अपनाए गए थे.

बांग्लादेश में सत्ता का ये रूप देखना उन लोगों के लिए ख़ासतौर पर पीड़ा देने वाला था जिन्होंने जनरल इरशाद के शासन के ख़िलाफ़ एक लंबी लड़ाई लड़ी थी.

1990 के दौर के एक अनुभवी नसीर उद डोज़ा ने कहा, "हमने अपने जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा लोकतंत्र के लिए लड़ने में कुर्बान कर दिया था. मैं उन राजनेताओं को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा जिन्होंने अपने हितों को साधने के लिए हमारे सपनों को कुचल दिया."

1987 के प्रदर्शन
SHAHIDUL ALAM
नसीर से मैं पहली बार 1987 में उस लॉरी में मिला था जिसमें डालकर हमें पुलिस स्टेशन ले जाया गया था.

इकराम हुसैन याद करते हुए कहते हैं, "बांग्लादेश ने कुछ समय के लिए अंधेरी रात में पूर्णिमा की चांद की तरह लोकतंत्र का ख़ूब मज़ा लिया."

वो कहते है, "अब लोकतंत्र कहां है?"

इकराम अभी भी साइनबोर्ड बनाते हैं. हालांकि अब उनका ज़्यादातर काम डिजीटल हो चुका है. अब उन्हें इनेमल पेंट की बहुत कम ज़रूरत पड़ती है. उनकी छोटी सी दुकान हटकोला रोड पर राष्ट्रपति क्वार्टर से महज़ कुछ सौ मीटर की दूरी पर है. वहीं जहां वो साल 1987 में थे. इकराम की दुकान से कुछ दूरी पर वो गली भी है जहां उन्होंने नूर के शरीर पर वो नारे लिखे थे. वो जगह भी ज़्यादा दूर नहीं है जहां नूर को गोली मारी गई थी. अब उस जगह को "नूर हुसैन स्क्वायर" कहा जाता है.

"नूर हुसैन स्क्वायर"

इकराम नूर के चेहरे पर नारे लिखने की बात को याद करके अब भी सहम जाते हैं.

वो कहते हैं, "वो मेरी सबसे अच्छी हैंडराइटिंग नहीं थी लेकिन ये वो सबसे अच्छी चीज़ थी जो मैंने आज तक लिखी."

तस्वीरें: बीबीसी के लिए यूसुफ़ तुषार. (bbc.com)
 

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