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ट्रंप की जगह बाइडेन, नाटो के लिए क्या बदलेगा
29-Dec-2020 12:24 PM
ट्रंप की जगह बाइडेन, नाटो के लिए क्या बदलेगा

पश्चिमी देशों का सैन्य संगठन नाटो नई उम्मीदों के साथ नए साल में प्रवेश कर रहा है. अमेरिका में सत्ता बदलने वाली है. डॉनल्ड ट्रंप की जगह जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने से क्या कुछ बदलेगा?

  डॉयचे वैले पर टेरी शुल्स का लिखा- 

दिसंबर 2019 में नाटो के 70 साल पूरे हुए तो इस मौके पर कोई बड़ा आयोजन नहीं किया गया, बल्कि लंदन में सादा सा समारोह किया गया, जिसे 'नेताओं की बैठक' का नाम दिया गया. इसकी एक वजह अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी रहे जो ऐसे मौकों को अपनी बातों से अकसर हाइजैक करने में माहिर हैं और अपने सहयोगियों के साथ एकजुटता दिखाने की बजाय उन्हें निशाना बनाने लगते हैं.

हालिया अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आने के बाद आम तौर पर तटस्थ माने जाने वाले नाटो के महासचिव येंस स्टोल्टेनबर्ग अपनी उत्सुकता को छिपा नहीं पा रहे हैं. उन्होंने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन को "नाटो और ट्रांस अटलांटिक (यूरोप-अमेरिका) संबंधों का मजबूत समर्थक बताया है." उन्होंने बाइडेन को प्रशासन की बागडोर संभालने के बाद ब्रसेल्स आने का न्यौता दिया है.

व्हाइट हाउस में ट्रंप के स्थान पर बाइडेन का होना नाटो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. फ्रेंड्स ऑफ यूरोप संस्था में सीनियर फेलो पॉल टेलर कहते हैं, "वाकई बहुत मुश्किल समय रहा. लेकिन बड़ी बात यह है कि नाटो ने डॉनल्ड ट्रंप को झेल लिया, बिना टूटे फूटे और बिना बदले हुए."

पहले से बेहतर या बुरा

वैसे ट्रंप के रहते कुछ बातें अच्छी भी हुई. मिसाल के तौर पर सदस्यों देशों की तरफ से नाटो के लिए दिए जाने वाले योगदान में गिरावट नहीं आई. नाटो का लक्ष्य है कि सदस्य देश अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत सैन्य गठबंधन के लिए दें. इस दो प्रतिशत की मांग को देखते हुए सभी सदस्य देशों ने अपने रक्षा खर्च में इजाफा किया है ताकि ट्रंप की किसी भी सार्वजनिक फटकार से बचा जा सके.

टेलर कहते हैं, "उन्होंने सहयोगियों के बीच चीन के मुद्दे को भी लगातार गर्म रखा जबकि यह कभी नाटो के एजेंडे पर नहीं रहा. क्या कभी ना कभी इसे एजेंडे पर आना ही था? पता नहीं, लेकिन यह उनके रहते हुआ, उनकी जिद पर हुआ."

हालांकि इराक और अफगानिस्तान से एकतरफा तौर पर अमेरिकी सेनाओं को हटाने के उनके फैसले का अच्छा पहलू ढूंढना मुश्किल है. वहां नाटो सैनिक स्थानीय बलों को प्रशिक्षण दे रहे हैं ताकि वे अपने देश की सुरक्षा जिम्मेदारी अपने हाथों में ले सकें. अपने सैनिकों को हटाने का फैसला करते वक्त ट्रंप ने ना तो नाटो से सलाह मशविरा किया और ना ही उन सरकारों से जिनके सैनिक वहां तैनात हैं. अमेरिकी सैनिकों के ना होने के चलते अब इन देशों के सैनिकों को लिए वहां हालात पहले से मुश्किल होंगे.

नाटो में जर्मनी की भूमिका
आधिकारिक तौर पर पश्चिमी जर्मनी 1955 में ट्रांस-अटलांटिक सैनिक संधि में शामिल हुआ. लेकिन 1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण के बाद से ही जर्मन सेना को नाटो के नेतृत्व में "आउट ऑफ एरिया" मिशनों के लिए भेजा गया. नाटो के कई साथी देशों की मदद के लिए जर्मन सेना ने शांति स्थापना से लेकर शक्ति संतुलन बनाने तक के मिशन पूरे किए हैं.

ऐसे हालात में सत्ता संभाल रहे बाइडेन से नाटो को उम्मीद है कि वे मौजूदा और निकट भविष्य की सुरक्षा चिंताओं से निपटने में सामूहिक प्रयासों को मजबूत करेंगे. अब स्टोल्टेनबर्ग ऐसी चुनौतियों की प्राथमिकता सूची बना रहे हैं. नाटो के लिए मौजूद खतरों और क्षमताओं से जुड़ी "सामरिक अवधारणा" को 2010 से अपडेट नहीं किया गया है. नाटो में नई जान फूंकना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों कह चुके हैं कि इसकी "दिमागी मौत" हो चुकी है.

"नाटो रिफ्लेक्शन ग्रुप" की नई रिपोर्ट "नाटो 2030: नए युग के लिए एकजुट" कहती है कि लगातार आक्रामक बना हुआ रूस अगले दशक में भी सैन्य गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती रहेगा, लेकिन निश्चित रूप से चीन से भी निटपना होगा. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी और पूर्व जर्मन विदेश मंत्री थॉमस दे मेजिएरे के साथ मिलकर नाटो के रिफ्लेशन समूह की साझा तौर पर अध्यक्षता करने वाले वेस मिचेल कहते हैं, "चीन का उदय नाटो के रणनीतिक परिदृश्य में अकेला और सबसे बड़ा बदलाव है और इस बदलाव को समझना होगा."

फिलहाल तो अफगानिस्तान में नाटो की सबसे बड़ी परीक्षा है. वहां अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता कछुए की चाल से चल रही है. नाटो महासचिव का कहना है कि फरवरी में इस बात का फैसला होगा कि अफगान बलों को ट्रेनिंग देने का काम जारी रखा जाए या फिर वहां दो दशक से जारी नाटो के अभियान को अब समेट लिया जाए.

मील का पत्थर, 2008
2008 में जब दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी से खस्ताहाल हो रही थी, तभी चीन अपने यहां भव्य तरीके ओलंपिक खेलों का आयोजन कर रहा था. ओलंपिक के जरिए बीजिंग ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अपने बलबूते क्या क्या कर सकता है.

बीते चार साल में नाटो के लिए बजट योगदान को लेकर सबसे ज्यादा विवाद रहा है. "दो प्रतिशत" की कुख्यात मांग को लेकर अब भी तनाव होगा. थॉमस दे मेजिएरे ने सेंटर फॉर पॉलिसी एनालिसिस में कहा, "बाइडेन प्रशासन हमारे लिए कहीं ज्यादा सख्त होगा क्योंकि उनका अंदाज ज्यादा दोस्ताना हैं." वह कहते हैं कि ट्रंप के अक्खड़ रवैये के कारण चर्चा कभी इतनी गंभीरता से हुई ही नहीं. उन्होंने कहा, "इससे हमारे लिए यहां यूरोप में, जर्मनी में स्थिति ज्याादा मुश्किल होगी.. लेकिन मैं इसका स्वागत करता हूं."

पॉल टेलर भी कहते हैं कि यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि बाइडेन के प्रशासन में सब कुछ बहुत सहज होगा, लेकिन सहयोगी इतना तो उम्मीद कर ही सकते हैं कि मुश्किल वार्ताओं का मतलब लड़ाई करना नहीं होगा. वह कहते हैं, "इसका आधार कुछ तथ्य होंगे. इसका आधार कुछ बुनियादी अवधारणाएं होंगी कि हम मिलकर हालात का सामना कर रहे हैं, कि हम एक साथ ज्यादा मजबूत हैं, कि अमेरिका सिर्फ अकेला नहीं बल्कि अपने सहयोगियों के साथ मिलकर कहीं ज्यादा मजबूत है, और सहयोगी भी अकेले अकेले नहीं बल्कि अमेरिका के साथ मिलकर ज्यादा मजबूत हैं." 

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