विचार / लेख
-प्रकाश दुबे
कोरोना नाम की महामारी ने साल-2020 को कुतर डाला। वक्त के दीमक ने अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त की। दुनिया भर में करोड़ों प्राण निष्प्राण कर डाले। निष्प्राण इसलिए, कि समाज का लगभग पूरा हिस्सा निष्क्रिय पड़ा रहा। इस महामारी से बड़ा अदृश्य विषाणु भारतीय समाज को लम्बे समय से चाट रहा है। इसके प्रहार की तड़प का आभास होता है। कोरोना वायरस की तरह इसके स्वरूप का सही अकलन अब तक नहीं किया जा सका। अनेक ऐसे लोग भी थाह नहीं ले सके जो आयेदिन इसके विरोध में प्रवचन देने के आदी हैं। इस विषाणु का नाम है-कुनबापरस्ती। सत्ता और संपत्ति की ललक इसके तेजी से बढऩे के लिए उपयुक्त वातावरण है। इसके सारे लक्षण कोरोना महामारी से मिलले-जुलते हैं।
देश के संभवत: सबसे पुराने संगठित राजनीतिक दल कांग्रेसकी नस नस में यह रोग गहराई तक भिद चुका है। साल भर बीत जाने के बावजूद संक्रमित पार्टी स्थायी अध्यक्ष तलाश कर चैन की सांस नहीं ले सकी। घूम फिर कर बात अम्मा-भैया-दीदी पर अटक जाती है। बलगम-थूक की जांच से कोरोना संक्रमित की पहचान होती है। जब कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल कहते ही कुनबापरस्ती का संक्रमण स्पष्ट दिखने लगता है। क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा वाले शिवसेना, द्रविड़ मुनेत्र कड़घम और इससे छिटक कर बने कई अन्य दल, दलित संगठनों समेत जातीय आधार पर उभरे दर्जनों राजनीतिक दल साक्षात् प्रमाण हैं। दरअस्ल पार्टी और पुश्तैनी कारोबार लगभग समानार्थी हो चुके हैं। शरद पवार की विचारधारा कांग्रेस से अलग नहीं है। एक परिवार की मुट्?ठी से पार्टी को मुक्त करने के लिए उन्होंने पूर्णो संगमा तथा तारिक अनवर के साथ बगावत की। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। संगमा और पवार परिवार की सत्ता में सहभागिता के आधार पर आसानी से कहा जा सकता है कि मेघालय से लेकर महाराष्ट्र तक राजनीति कुनबापरस्ती संक्रमित है।
विचार की राजनीति में कुनबापरस्ती का स्थान नहीं होता। यह दावा करने वाले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद के नाम पर ही न रुकें। जाति तोड़ो और पिछड़े पावैं सौ में साठ का विचार देने वाले डा राम मनोहर लोहिया के अधिकांश अनुयायी विचार की राजनीति को सौ में सात प्रतिशत से अधिक स्थान नहीं देते। इस सूची में नीतीश कुमार का नाम पहली बार नहीं जुड़ा है। सुशासन बाबू ने जार्ज फर्नांडिस की छत्रछाया में समता पार्टी से नई शुरुआत कर राजनीति के मैदान में धाक जमाई। जार्ज दुनिया से अलविदा हो गए। शरद यादव को हाशिये पर धकेलने के बाद नीतीश ने नया नेतृत्व जोड़ कर अपना आभा चक्र तैयार किया। पवन वर्मा पहले से उनके खासमखास थे। अब राम चंद्र प्रसाद सिंह पार्टी अध्यक्ष बनाए गए हैं। आरसीपी सिंह से नीतीश कुमार का दोहरा रिश्ता है। सिंह राज्यसभा में जद यू पार्टी संसदीय दल के नेता है। जय प्रकाश नारायण के संघर्ष के बाद आपात्काल के दौरान अस्तित्व में आई जनता पार्टी पंचमेल खिचड़ी थी। बार बार की टूट के बाद दावा किया गया कि जनता दल यू वैचारिक राजनीतिक दल है। जनता दल यू में संगठन की कमान संभालने वाले नए चेहरे का रहस्य जानते हैं? रेल मंत्री के निजी सचिव रहे आरसीपी सिंह बिहार के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर थे। यह भी जान लें कि सिंह नीतीश कुमार के सजातीय होने के साथ गृह जिले नालंदा के निवासी हैं। इस राजनीतिक समीकरण के आधार पर कुछ लोग इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि नालंदा में वैचारिक पोथियां ही नहीं जलाई गईं। वैचारिक राजनीति तक भस्म होती रहती है।
विचार की राजनीति करने वाले साम्यवादी दल अपने पुरखा राज्य बंगाल तक में हाशिये पर सिमट गए। केरल में धर्म आधारित दलों की कंधों का सहारा लेना पड़ा। बच रही भारतीय जनता पार्टी-जिसका औरों से अलग हटकर होने का दावा अब साक्षात् हमारे समक्ष है। भाजापा की कुनबापरस्ती सचमुच औरों से हटकर है। याद करें। भाजपा कार्यकारिणी ने लाल कृष्ण आडवाणी को अध्यक्ष पद से नहीं हटाया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक कुपु सुदर्शन ने जिन्ना की समाधि को प्रणाम करने वाले आडवाणी को रुख्सत किया। आज इस तरह क आदेश लागू करने की क्षमता के बारे में संघ के वर्तमान पदाधिकारी बेहतर बता सकते हैं। दीवार पर लिखी इबारत को राजनीतिक साक्षर बांचते होंगे। भजन लाल पूरी हरियाणा सरकार समेत 1977 में जनता पार्टीमय हुए। जनता पार्टी तथा सरकार बिखरने के बाद सरकार समेत वापस कांग्रेस में घरवापसी की। हरियाणा में स्वयंसेवक मुख्यमंत्री है। धर्म आधारित राज्य पर आस्था रखने वाला राज्यपाल। अरुणाचल से हरियाणा तक अनेक राज्यों में नई राजनीतिक संस्कृति में विचार की तलाश कर समय नष्ट न करें।बंगाल की खाड़ी में जादूगर पहुंचने लगे हैं। सत्ता की जादुई छड़ी के कमाल से अपराधी, चिटफंडिये घोटालेबाज, (यहां तक कि) रूस, चीन के दलाल कहे जाने वाले मार्क्सवादी गंगासागर में डुबकी लगाकर पवित्र होते जा रहे हैं। कुनबापरस्ती का मूलमंत्र परिवार तथा जाति के आगे क्षेत्र और व्यवसाय तक व्यापक है। सदियों पुरानी महामारी दूर नहीं होती।
महाभारत काल में भाइयों ने भाइयों को भस्म करने लाक्षागृह में आग लगाई। युवा आदिवासी घटोत्कच और अभिमन्यु ने युद्ध में प्राण दिए। असली राजा जितनी मूंगफली खाता, कुटुम्ब-कलह में उतने हजार सैनिक अगले रोज़ युद्ध में मारे जाते थे।
हर तरह की कुनबापरस्ती का असली चेहरा यही है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)