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...विनोद कुमार शुक्ल की जो कमजोरी है, वही उनकी शक्ति
01-Jan-2021 12:06 PM
...विनोद कुमार शुक्ल की जो कमजोरी है, वही उनकी शक्ति

   विनोद कुमार शुक्ल का जन्मदिन 1 जनवरी   

-कनक तिवारी
कवि और कविता का रिश्ता बेहद जटिल होता है। कविता कवि का माध्यम है या कवि कविता का-यही तिलिस्म है। कविता शब्दों में वह नहीं कहती जो कवि मूलत: शब्दहीनता में कहना चाहता है। जब कवि कविता को वह सब कहने का आयाम बनाता है, जो उसने अपने मन में लगभग कहा होगा, तब कविता कवि के जुमले को समझती हुई कविता कहलाती है। कविता बेचारगी का विषय नहीं होती। अपनी कविताओं को मुग्ध होकर देखने वाला कवि कई बार बेचारा भले हो, विद्रोही बने रहना कवि का शाश्वत लक्षण है। अपनी कविता से आंतरिक संवाद करना कवि का नैसर्गिक अधिकार भले हो, उसका अवसर मिलना कविता की नीयत पर निर्भर करता है। हर अच्छी कविता खुद की सम्भावना ही होती है क्योंकि वह सदैव कुछ कहना चाहती है।

विनोद कुमार शुक्ल कविता के शिल्प में एक पंक्ति और दूसरी पंक्ति, एक कदम और दूसरे कदम, एक क्षण और दूसरे क्षण के बीच ही कविता अनहद कहते चलते हैं। शब्द त्वचा, पोशाक या केंचुल की तरह उस अनकथ के आवरण बनते बिगड़ते रहते हैं जो कविता का दिगंबर नि:संग सच है। कुछ असंभावित और अब तक अपरिभाषित मानवीय स्थितियां हैं जो सहज संभावनाओं की तरह इस कवि के प्रयोगों में साकार हुई हैं। विनोद जी आप्त या सूत्र वाक्यों के रचयिता कतई नहीं हैं। एक गहरा सूफियाना उनकी कविता का उत्स है। शायद विनोद कुमार शुक्ल ही कह सकते हैं कि उनमें ‘अतीत का विस्तृत कबाड़ है और स्मृति में नया बहुत नया।’ विनोदकुमार शुक्ल न पहुंचने के अंत तक‘ जैसा मुहावरा गढक़र कविता के हृदय को शब्दश: से ज्यादा ध्वनिश: आत्मसात करते हैं। 

बहुत कुछ है जो विनोद जी की कविताओं में सहसा समझ आनेे के लिए नहीं भी है। विनोद कुमार शुक्ल आत्मा की कसक के कवि हैं। वे उतनी ही करुणा उकेर देते हैं। एक बेहद बल्कि निहायत मामूली आदमी के लिए संवेदनाओं के संसार की सुरक्षा करना भी कवि का कर्तव्य है। विनोद कुमार शुक्ल होने की यह भी एक अन्योक्ति है, अर्थ भी। जो लोग उनकी कविताओं में शब्दों और आवाज का आर्केस्ट्रा नहीं सुन पाते, शायद उन्हीं के लिए कवि कहता है कि उसे ‘ध्वनियों के कैमूफ्लाज़ में सुनाई नहीं दिया।‘ 

विनोद कुमार शुक्ल गहरे आदिवास के बोधमय कवि होने के बावजूद इस पचड़े में नहीं हैं कि उनकी कुछ सामाजिक प्रतिबद्धताएं भी हैं। वे अपने सोच और संवेदना में शायद सबसे ज्यादा आदिवासी सरोकारों के कवि हैं। दलित लेखन का मुखौटा ओढ़े बिना यह कवि आदिम जीवन के बिम्बों को रेत में पड़ी सीपियों की तरह सागर के गहरे एकांत क्षणों में एकत्रित करता है। बहुत से प्रतिवेदनों और जांच दलों को अपने कथानक में उपसंहार के बतौर कविता का यह निकष जोड़ लेना चाहिए ‘कुछ ही दिनों से यह एक आदिवासी कथा है कि बहुत बरस से जंगल में बहुत से आदिवासी भूख से मर जाते हैं ‘विनोद कुमार शुक्ल की निर्दोष कविताएं कई स्थलों पर चाहें तो संतवाणी का चोला पहन सकती हैं। लेकिन वे अपनी अभिव्यक्तियों में अपना आदिवास नहीं भूलतीं। वे तकनीकी अर्थ में सभ्य और अभिजात्य कुल की कविताएं नहीं हैं, लेकिन अपनी मूल संरचना में निष्कपट सादगी, सहकार और सामूहिकता के बावजूद अकेलेपन के साथी भाव का एक बहुत महत्वपूर्णकुलीन प्रामाणिक दस्तावेज हैं। 

इस कुलीन कवि में उच्च मध्य वर्गीय शहरी अभिजात्य की ठसक नहीं है, जो हिन्दी के कई श्रेष्ठ कवियों में ठुंसी पड़ी है। इस कवि में वह गहरा और क्षुब्ध आक्रोश भी नहीं है जैसा बहुत से निम्न मध्यम वर्गीय कवियों के आह्वान में है। उनके कवि होने को लेकर तब आलोचकीय दृष्टि भौंचक होती है जब कवि के मन पर पड़े तरह तरह के आघातों के प्रत्युत्तर में कविता की उनकी समझ तटस्थ, निस्पृह और क्षमाशील मुद्रा में खड़ी उस समूची पृष्ठभूमि से कविता के अवयव ढ़ूंढती है। यह कवि पाठकों पर अपने नुकीले अहसासों का ठीकरा नहीं फोड़ता है। विनोद कुमार शुक्ल को पढऩा कविता के टॉर्च की रोशनी में अपने घर, मन बल्कि अपनों में भी वह खो चुका ढूंढना है जिसे हम अन्यथा भी ढूंढ़ सकते थे बशर्ते वैसा ही टॉर्च हमारे पास होता। उनकी बहुत कम कविताएं हैं जिनको पढऩे पर विनोद कुमार शुक्ल को ढूंढा नहीं जा सकता। यह कवि कविता में तल्लीनता का सीधा उदाहरण है। 

जो लोग इस कवि में उलटबासी या विरोधाभासों के प्रयोग ढूंढते हैं उन्हें शब्द सत्ता से परे जाकर टकटकी बांधकर जीवन के हर उस नहीं होने को देखना शुरू करना चाहिए, जिसे यह कवि शाश्वतता में देख रहा है। विनोद कुमार शुक्ल ने शब्दों में अर्थ इन्जेक्ट करने के बदले उन्हें अहसास करा दिया है कि भाषा और शब्द-सत्ता के परे कविता का ऐसा रहस्य लोक होता है जो कविता के आयाम में ही बोधगम्य होता है। तब पाठक खुद कवि हो जाता है। इस कविता के रहस्यलोक से अपनी सांसारिक दुनिया के चेतना लोक में लौटना तकलीफदेह अनुभव है। 

विनोद कुमार शुक्ल इक्कीसवीं सदी के कथाकार हैं। सदी के विग्रह, संताप, विसंगतियां और निष्चेष्टताएं भी उनके लेखन की पूंजी हैं, कच्चा माल हैं। विनोदजी ने बगावत के तेवर या समाज सुधार का मुखौटा लगाने की जरूरत नहीं समझी। मध्यवर्ग के विशाद का यह अजीबो-गरीब कवि तल्खी तक का आदर करता है। बहुत सी कविताएं हैं जिनमें विनोद कुमार शुक्ल यथास्थितिवादी दिखाई देते हैं कि कहीं कुछ बदलने वाला नहीं है। आदिम और मौजूदा सच यही है कि भविष्य एक पुनरावृत्ति भर है। विनोद जी के सपनों का भविष्य वर्तमान का विस्तार ही है। इसलिए विनोद कुमार शुक्ल का ऐसी भाषा रचने का हठ-योग है जो उनके लेखन का सबसे प्राणवान तत्व है। भाषा उनके लिए साध्य या साधन होने के बदले वह बहता हुआ आयाम है जिसमें से वे अपने लिए जरूरत पडऩे पर शब्द बीनते हैं। कवि विनोद कुमार शुक्ल की दिक्कत और नीयत यही है कि उनके पाठक बनने के लिए आदिम वृत्तियों की पाठशाला के सबक को याद रखना जरूरी है। घर, कस्बा, मध्यवर्ग, आदिवासी, फिर कुछ स्थानों और व्यक्तियों के नाम उन ईंटों की तरह हैं जिनसे एक कलात्मक कविता-गृह का रच जाना सुनिश्चित हुआ है। 

असल में विनोद कुमार शुक्ल की जो कमजोरी है, वही उनकी शक्ति है। उनका पूरा लेखन उनके तमाम चरित्र और खुद कवि एक साथ सजग, मितभाषी, आत्मविश्वासी लेकिन विशिष्ट होकर भी सामान्य दिखते हैं। वे हमारी सदी के कवि उपन्यासकार हैं। विनोद कुमार शुक्ल क्रियापद की यथास्थिति के बेजोड़ कवि हैं। उनमें जो घटित हो रहा है, उससे भी चकित हो उठने की एक अनोखी उत्कंठा है। वह विनोद कुमार शुक्ल को हमारे युग का पूर्वग्रह-रहित सबसे बड़ा गवाह बनाती है। विनोदजी में जबरिया सब कुछ बदल डालने का आग्रह नहीं है। कविता तो प्राणपद वायु की तरह जीवन को दुलराती रहती है। लोग ही कविता की जीवनी शक्ति से बेखबर हो उठे तो विनोद कुमार शुक्ल क्या करें। 

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