विचार / लेख
-डॉ. संजय शुक्ला
किसी भी देश और समाज का सर्वांगीण विकास उसकी स्कूली शिक्षा पर निर्भर होता है, प्राथमिक शिक्षा ही उच्च शिक्षा की बुनियाद होती है। भारत की शिक्षा व्यवस्था में व्यापक असमनताएं हैं, कोरोना संकट ने शिक्षा क्षेत्र में पहले से जारी असमानता की खाई को और चौड़ा कर दिया है। कोरोना ने सबसे ज्यादा नुकसान जिन क्षेत्रों का किया है उसमें शिक्षा सबसे आगे है। देश में कोरोना लॉकडाउन के बाद अनलॉक के दौर में भी जब आम जनजीवन से जुड़े सभी क्षेत्र खुल रहे हैं तब भी स्कूल और कालेज बंद हैं। फलस्वरूप शिक्षा से जुड़ी पढ़ाई, परीक्षा और मूल्यांकन जैसी सभी व्यवस्थाएं बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। जानकारी के मुताबिक अकेले भारत में 32 करोड़ स्कूली बच्चों की शिक्षा इस दौर में प्रभावित हुई है।आलम यह है कि पूरा शैक्षणिक सत्र कोरोना संकट के भेंट चढ़ चुका है तथा इस सत्र में स्कूल-कालेज खुलने की संभावनाएं क्षीण है।बेपटरी हुई शिक्षण व्यवस्था का विपरीत असर शिक्षा की गुणवत्ता और छात्रों के अध्ययन कौशल में पड़ना अवश्यंभावी है। शिक्षा एक ऐसी व्यवस्था है जो समयबद्ध ढांचे और मानकों पर संचालित होती है लेकिन इस त्रासदी काल में यह अनिश्चितता का शिकार है। हालिया दौर में जब स्कूल खोलना जोखिम भरा है तब देश की सरकारों ने स्कूली छात्रों के लिए ऑनलाइन कक्षाएं और सिलेबस में कटौती जैसी व्यवस्थाएं लागू की हैं लेकिन इसका आशातीत परिणाम नहीं मिल रहा है। कुछ राज्यों में "मोहल्ला क्लास" जैसी ऑफलाइन कक्षाएं भी जारी है जिसका आंशिक प्रतिसाद मिला है। बहरहाल भारत जैसे बदहाल सरकारी शिक्षा व्यवस्था वाले देश में ऑनलाइन कक्षाएं शिक्षण व्यवस्था की समस्या का व्यवहारिक समाधान नहीं है और न ही विकल्प। बड़े निजी स्कूलों के बच्चे तो ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन सरकारी व देहात के स्कूलों में यह दूर की कौड़ी है।विडंबना है कि ऑनलाइन कक्षाएं अभिजात्यवाद को बढ़ावा दे रही है तथा सामाजिक वर्गीकरण का एक नया माध्यम बन रही हैं।दरअसल ऑनलाइन कक्षाओं की अपनी चुनौतियां और सीमाएं हैं।
भारत में शिक्षा व्यवस्था सरकारी और निजी दो हिस्सों में बँटी हुई है, एक तरफ बुनियादी सुविधाओं के लिये तरसते खस्ताहाल सरकारी स्कूल हैं जिसमें ग्रामीण और कमजोर आय वर्ग के बच्चे दाखिला लेते हैं।इन स्कूलों में बिजली, इंटरनेट और सूचना तकनीक से प्रशिक्षित शिक्षकों की उपलब्धता बेहद निराशाजनक है इन परिस्थितियों में ऑनलाइन कक्षाओं के हकीकत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। दूसरी ओर अत्याधुनिक संसाधनों से लैस पांच सितारा स्कूल हैं जहाँ अभिजात्य नौनिहालों का भविष्य गढ़ा जाता है। कोरोना त्रासदी ने देश की एक बड़ी आबादी की रोजी-रोटी छिन ली है। जिस परिवार को हाथ की रोजी और पेट की रोटी की दुश्ववारियां है आखिरकार वह अपने बच्चों के लिए स्मार्टफोन और इंटरनेट डेटा का खर्च कैसे जुटा पाएगा? यह अहम सवाल है। इसके अलावा दुर्गम ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की पहुंच और कनेक्टिविटी भी ऑनलाइन कक्षाओं की सार्थकता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण कार्यालय यानि एनएसएसओ के सर्वेक्षण के मुताबिक देश के केवल 42 फीसदी शहरी और 15 फीसदी ग्रामीण घरों में ही इंटरनेट है। एनसीआरटी के मुताबिक 27 फीसदी से ज्यादा बच्चे, टीचर और अभिभावक स्मार्ट डिवाइस की कमी से जूझ रहे हैं। डिजिटल इंडिया का हकीकत यह है कि अभी भी 55 हजार गाँव इंटरनेट की पहुंच से दूर हैं। एक अन्य शोध के अनुसार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 15 फीसदी बच्चों के परिवारों के पास ही स्मार्टफोन है जो उनके अभिभावकों के पास रहता है। ऐसे अभिभावकों की संख्या भी काफी है जो एक से ज्यादा बच्चों के लिए यह इंतजाम करने में सक्षम नहीं हैं।यह आभाव गरीब अभिभावकों और बच्चों में सामाजिक और आर्थिक हीनता भी पैदा कर रही हैं।
गौरतलब है कि कोरोना महामारी के कारण बच्चे मानसिक तनाव और अवसाद का शिकार हो रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में पढ़ाई और परीक्षा की दौड़ पिछड़ने का डर तथा डिजिटल साधनों के आभाव के चलते कई बच्चों के खुदकुशी की खबरें भी प्रकाश में आयीं हैं। ऑनलााइन कक्षाओं केे दुश्वारियों के बीच शहरों की ओर पलायन करने वाले घूमंतू परिवारों के बच्चों के पढ़ाई की हकीकत जानना जरूरी है जिनके सिर पर छत नहीं है झुग्गियां ही जिनका आशियाना है। इस दौर में आंगनबाड़ी और स्कूल बंद है तब इन बच्चों के पोषण और शिक्षण दोनों अधर में है। कोरोनाकाल में शिक्षा जगत में जारी विभेद का आलम यह भी देखा गया कि एक तरफ निजी कान्वेन्ट स्कूलों के बच्चे जहाँ ऑनलाइन कक्षाओं के जरिए अपना कल संवार रहे थे वहीं सरकारी स्कूलों के ग्रामीण और गरीब बच्चे मध्यान्ह भोजन के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। कोरोना लॉकडाउन के दौरान जब स्कूल बंद हुए तब मिड-डे मील भी बंद हो गया था तब बच्चों की भूख भी समस्या बन चुकी थी।
बहरहाल यह गैर मुनासिब नहीं है कि कोरोनाकाल में 'शिक्षा पर अधिकार' केवल उन तबकों का रह गया है जिनके पास इंटरनेट, स्मार्टफोन,टैबलेट, लैपटॉप और डेस्कटॉप और जैसे डिवाइस हैं।यह परिस्थिति शिक्षा के क्षेत्र में पहले से ही मौजूद सरकारी-निजी, अंग्रेजी-हिंदी माध्यम और शहरी-ग्रामीण स्कूली बच्चों के भेदभाव की खाई को और चौड़ी कर रही है। शिक्षा का लक्ष्य समतामूलक विकसित समाज का निर्माण है लेकिन आर्थिक हैसियत और संसाधनों के उपलब्धता के आधार पर निर्धन छात्रों को शिक्षा अवसर मिलना तथा इस बिना पर उनके मेधा का क्षरण निश्चय ही पीड़ादायक है। आसन्न बोर्ड परीक्षाओं के सिलेबस में तीस फीसदी कटौती के फैसले के दूरगामी परिणाम पर भी विचार भी जरूरी है। भले ही सरकार ने यह निर्णय शैक्षणिक कैलेंडर बचाने व छात्रों पर पढ़ाई का तनाव कम करने के लिहाज से लिया हो लेकिन कटौती किए गए सिलेबस की पढ़ाई कैसे होगी? इसका उत्तर फिलहाल काल के गाल में है। यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि बोर्ड परीक्षाओं के बाद ली जाने वाली तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में यह सिलेबस तो शामिल ही रहेंगे। आर्थिक रूप से संपन्न छात्र तो इसकी पढ़ाई महंगे कोचिंग संस्थानों में कर लेंगे लेकिन गरीब छात्र इस सिलेबस के लिए अनपढ़ ही रहेंगे। इन परिस्थितियों में छात्रों का बड़ा तबका साधन संपन्न बच्चों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ेगा। देश में शिक्षा के क्षेत्र में जारी निजीकरण और बाजारीकरण के बीच इस आपदाकाल में डिजीटल क्लास रूम और ऑनलाइन कोचिंग के बढ़ते चलन ने शिक्षा उद्योग को बढ़ावा दिया है। निःसंदेह शिक्षा का यह नया प्लेटफार्म गरीब अभिभावकों और बच्चों के पहुंच से बाहर होगा।बहरहाल बच्चे देश का भविष्य हैं इसलिए शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं में असमानता देशहित में नहीं है। यह स्मरण में रखना होगा कि देश के बहुतेरे अग्रणी व्यक्तित्व सरकारी स्कूलों और गांवों के पगडंडियों से ही निकले हैं इसलिए गुदड़ी के लालों की चिंता सरकार और समाज को करना ही होगा। यह जरूरी है कि संसाधन विहीन बच्चों को भी शिक्षा का समान अवसर मुहैया कराने के लिए सरकार और स्वयंसेवी संगठनों को सामने आना होगा ताकि कोरोनाकाल उनके भविष्य के लिए त्रासदी न बने।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज, रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं।)