संपादकीय
दुनिया में सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया फेसबुक, और सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला मैसेंजर वॉट्सऐप दोनों एक ही मालिक के हाथ हैं। अब वॉट्सऐप में अपनी सर्विस इस्तेमाल करने वाले लोगों से उनकी निजता-गोपनीयता में कई तरह की छूट मांगी है जिससे वह जानकारियों का इस्तेमाल कर सकें। जो लोग ऐसी छूट देने पर सहमति नहीं दे रहे हैं, उनके फोन पर वॉट्सऐप 8 फरवरी को बंद कर देने की जानकारी इस सर्विस की तरफ से दी गई है।
वैसे तो हिन्दुस्तान में लोग निजता और गोपनीयता को पश्चिमी सोच मानते हैं, और किसी का कोई व्यक्तिगत जीवन भी होने की सोच भारत में नहीं है। इसलिए हिन्दुस्तान में अभी वॉट्सऐप की सहूलियत और आदत को छोडऩे का सिलसिला नहीं दिख रहा है, लेकिन एक दिलचस्प बात यह है कि सौर ऊर्जा और सोलर बैटरियों से चलने वाली कारें बनाकर दुनिया के सबसे रईस इंसान बने कारोबारी एलन मस्क ने ट्विटर पर एक दूसरी मैसेंजर सर्विस, सिग्नल, का नाम भर लिखा है, और उसे लाखों लोग देखते चल रहे हैं, आगे बढ़ाते चल रहे हैं। लोग विकसित दुनिया में वॉट्सऐप छोडऩे के पहले दूसरी सेवाओं का इस्तेमाल जोड़ते चल रहे हैं, और अभी से एक महीने बाद पता चलेगा कि दूसरी मैसेंजर सर्विसों को कितने लोगों ने इस्तेमाल करना शुरू किया है। हो सकता है कि ऐसे लोग आगे भी वॉट्सऐप को छोडऩे के बजाय उसे कुछ साधारण कामकाज के लिए बनाए रखेंगे, और सचमुच के निजी संदेशों के लिए दूसरी सर्विस इस्तेमाल करेंगे।
इस बारे में आजकल में ही लिखे गए एक लेख में एक ताजा फिल्म का एक वाक्य लिखा गया है कि अगर आप किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने के लिए पैसे नहीं चुका रहे हैं, तो आप ही वो प्रोडक्ट हैं।
बात सही है क्योंकि दुनिया में कुछ भी बिना प्राइज-टैग के नहीं आ सकता। सोशल मीडिया हो, या ऐसी मैसेंजर सर्विसेज हों, ये कोई समाजसेवा का काम तो है नहीं। इन्हें कारोबारियों ने शुरू किया, और मुफ्तखोरों ने इन्हें लपक लिया। नतीजा यह हुआ कि आज जब आदत डालकर और जरूरत बनाकर सोशल मीडिया और मैसेंजर लोगों की गोपनीयता खत्म कर रहे हैं, तो लोगों को यह भी लग रहा है कि इनके बिना जिंदगी कटेगी कैसे? लेकिन यह बात महज सोशल मीडिया या मैसेंजर के बारे में नहीं है, यह बात तो अखबारों पर भी लागू होती है जिन्हें लोग रद्दी के भाव पर चाहते हैं। अब अखबार उन्हें तकरीबन मुफ्त चाहिए, या लागत के दस फीसदी दाम पर चाहिए, और पाठक अखबार निकालने वाले लोगों से पूरी ईमानदारी की उम्मीद भी करते हैं। सस्ते की चाह का नतीजा यह होता है कि लोग प्रायोजित समाचार-विचार पाते हैं, उन्हीं पर भरोसा करने को मजबूर होते हैं, और फिर उनके असर में ऐसी सरकारें चुनते हैं जो कि उन प्रायोजकों की पसंद रहती हैं। मुफ्त के बारे में हिन्दुस्तान में बहुत पहले से एक बात चली आ रही है कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। मुफ्त में जो मिल जाता है, उसे उसी तरह लेना पड़ता है। अब आज फेसबुक और वॉट्सऐप नाम के दान के बछिया-बछड़ा लोगों के तौलिए खींच रहे हैं, तो लोगों के पास पसंद की कोई अधिक गुंजाइश भी नहीं बची है। आज अगर अपनी गोपनीयता बनाए रखने के साथ फेसबुक और वॉट्सऐप लोगों से कुछ सौ रूपए महीने मांगने लगें, तो कितने लोग उसे देने तैयार होंगे? आज दूसरी कोई सेवाएं गोपनीयता के साथ मैसेंजर देने को खड़ी भी हों, लेकिन वे भी कोई समाजसेवी संस्थान तो है नहीं। कल जब उनका बाजार भी बढ़ जाएगा, तो वे भी यही काम करेंगी, या तो निजी जानकारियां जुटाकर उन्हें बाजार में बेचेंगी, या वे ग्राहकों से भुगतान करने को कहेंगी।
निजता को लेकर एक हल्का-फुल्का किस्सा दशकों से प्रचलन में है। हनीमून मनाने गया एक जोड़ा एक होटल में रूका, तो उससे कोई भुगतान नहीं लिया गया, कहा गया कि यह होटल की तरफ से गिफ्ट है। ऐसी गिफ्ट से खुश यह जोड़ा एक बरस बाद फिर वहीं जाकर रूका, तो निकलते समय उसे बिल थमा दिया गया। सदमे में आकर उसने याद दिलाया कि पिछली बार तो बिल नहीं दिया गया था, तो होटल ने उन्हें बताया कि पिछली बार उन्हें वीडियो कैमरे वाले कमरे में ठहराया गया था, और उनका वीडियो बाकी कमरों के लोग देख रहे थे। अब निजता को छोडक़र कुछ मुफ्त पाना, या निजता बनाए रखने के लिए भुगतान करना, यह लोगों को खुद तय करना है। दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं आता, लोगों को समझौता या भुगतान इन दो में से एक छांटना पड़ता है। उदार बाजार व्यवस्था में बस यही है कि आज एक सर्विस आपकी निजी जानकारी पर कब्जा चाहती है, तो कोई दूसरी सर्विस बिना ऐसी चाहत भी मुफ्त में हासिल है। लोग खुद तय करें कि उन्हें क्या पसंद है।