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जर्मनी: एंगेला मर्केल की विदाई मुश्किल या मौक़ा?
22-Jan-2021 12:01 PM
जर्मनी: एंगेला मर्केल की विदाई मुश्किल या मौक़ा?

Angela Merkel photo from wikipedia

जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल 16 साल से सत्ता में हैं. क़रीब नौ महीने बाद बतौर चांसलर उनका चौथा कार्यकाल पूरा हो जाएगा और उन्हें पद छोड़ना होगा.  

एंगेला मर्केल की पार्टी क्रिश्चन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) ने आर्मिन लाशेट को नया नेता चुन लिया है. वो अगला चांसलर बनने की रेस में आगे माने जा रहे हैं. ये पद उन्हें ही मिलेगा, अभी इसकी गारंटी नहीं है.

हालांकि, ये तय है कि अगले चांसलर के सामने कई चुनौतियां होंगी. उन्हें जर्मनी को कोरोना महामारी के झटके से उबारना होगा. साथ ही यूरोपीय यूनियन के साथ बेहतर तालमेल के ज़रिए सुखद भविष्य की राह तलाशनी होगी. 

नए चांसलर की सबसे बड़ी चुनौती होगा एंगेला मर्केल की छाया से बाहर आना.

जर्मनी का 'मर्केल युग'
जर्मनी में एंगेला मर्केल के युग का ज़िक्र करते हुए यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स की सीनियर फेलो याना पुलेरिन कहती हैं, "मुझे लगता है कि उन्हें यूरोप की एक महान शख्सियत और जर्मनी की बेहतरीन चांसलर के तौर पर याद किया जाएगा लेकिन आप उनकी किसी एक बहुत बड़ी उपलब्धि को बयान नहीं कर सकते हैं हालांकि, उनकी एक बड़ी नाकामी को गिनाना भी मुश्किल है." 

याना कहती हैं कि एंगेला मर्केल के पास मुश्किल वक़्त में संतुलन बनाए रखने की ख़ूबी है और जर्मनी को इसका फ़ायदा मिलता रहा है.

वो कहती हैं कि बीते दस सालों को देखें तो एंगेला मर्केल मुश्किल वक़्त में एक अच्छी प्रबंधक साबित हुईं. 

एंगेला मर्केल की शुरुआती ज़िंदगी की बात करें तो वो पूर्वी जर्मनी में बड़ी हुईं. 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिरी और जर्मनी का एकीकरण हुआ तब वो 35 बरस की थीं. सीडीयू में शामिल होने के 16 साल बाद वो जर्मनी की चांसलर बन गईं. 

एंगेला मर्केल के पहले कार्यकाल के दौरान कई विश्लेषकों की राय थी कि वो इस पद पर ज़्यादा वक़्त तक नहीं टिक पाएंगी. 

इसकी वजह बताते हुए याना पुलेरिन कहती हैं, "तब सीडीयू के पास मामूली सा बहुमत था. दूसरी वजह ये थी कि वो सीडीयू में दबदबा रखने वाली पहली महिला थीं. वो पूर्वी जर्मनी से आईं थीं और उन्हें एक बाहरी शख्स के तौर पर देखा जाता था." 

लेकिन साल 2007 में एंगेला मर्केल के बारे में राय बदलने लगी. तब उनके कार्यकाल की पहली बड़ी चुनौती यानी वित्तीय संकट सामने था और उन्होंने समझबूझ के साथ रास्ता तलाशा. तब उन्होंने कड़े उपायों की बजाए निवेश पर ज़ोर दिया. उन्होंने उस समय जो स्कीम लागू की, वैसे ही उपाय कोरोना महामारी के दौरान भी किए गए. बाद के सालों में चुनौतियों के वक़्त उनके मज़बूत नेतृत्व की ख़ूबियां सामने आती रहीं.  

कमाल की प्रबंधक
एंगेला मर्केल की नेतृत्व क्षमता पर याना पुलेरिन कहती हैं, "एंगेला मर्केल भविष्य की योजना पेश करने वाली कल्पनाशील नेता नहीं हैं. वो संतुलित और व्यावहारिक नेता हैं. चुनौती के वक़्त वो साहसिक फ़ैसले लेती रही हैं."

उधर, एंगेला मर्केल कहती हैं कि लोग उन्हें लेकर आरोप लगाते हैं कि वो तेज़ी से काम नहीं करती हैं. जबकि होता ये है कि कोई भी फ़ैसला लेने के पहले वो उस पर सोच विचार करती हैं. 

बतौर चांसलर उनके सामने आई बड़ी चुनौतियों में से एक था यूरोज़ोन संकट. उस वक़्त एंगेला मर्केल की राय थी कि यूरोप के हर एक देश को अपनी वित्तीय चुनौती से ख़ुद निपटना चाहिए. वो मानती थीं कि दूसरों की ग़लती का बोझ जर्मनी के करदाताओं पर नहीं पड़ना चाहिए. तब दक्षिणी यूरोप के देशों ने उनकी ख़ूब आलोचना की.

एंगेला मर्केल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोप के केंद्रीय बैंक के ज़रिए यूरोज़ोन संकट का हल कराने में कामयाब रहीं लेकिन इसके ठीक बाद एक और बड़ा संकट उनके सामने था. साल 2011 में सीरिया में ज़ोरदार संघर्ष शुरू हो गया. सीरिया के लोग यूरोप का रुख़ करने लगे. दस लाख से ज़्यादा प्रवासी जर्मनी में दाख़िल हो गए. इस वक़्त एंगेला मर्केल प्रवासी संकट से जूझते यूरोपीय देशों के साथ खड़ी हो गईं.

याना पुलेरिन बताती हैं कि शुरुआत में एंगेला मर्केल की तारीफ़ हुई लेकिन बाद में वो घिरने लगीं.

वो कहती हैं, "शरणार्थी संकट की शुरुआत में जर्मनी के लोग सीमाएं खुली रखने और प्रवासियों को देश में आने देने के समर्थन में थे. बाद में लोग सोचने लगे कि हमने किन्हें आने दिया है. क्या ये सही फ़ैसला था और क्या चीज़ें हमारे नियंत्रण से बाहर जा रही हैं. मुझे लगता है कि मर्केल ने जब ये फ़ैसला किया था तब उन्हें जानकारी नहीं थी कि चीज़ें कैसे बदल जाएंगी और लोग कैसी प्रतिक्रिया देंगे."

जर्मनी में लोग नाराज़ हुए और एंगेला मर्केल की लोकप्रियता तेज़ी से कम हुई. तब धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) के लिए लोगों का समर्थन बढ़ने लगा. फिर आया साल 2020 और कोरोना महामारी. हवा का रुख़ दोबारा बदल गया. याना कहती हैं कि तमाम संकटों के दौरान एंगेला जर्मनी की उम्दा चांसलर साबित हुईं.

यहां के लोग जब बीते 10 सालों को देखते हैं तो उन्हें अभूतपूर्व ख़ुशहाली नज़र आती है. बेरोज़गारी घटी है. अर्थव्यवस्था मज़बूत है. लेकिन जर्मनी के लोग ये सोचकर फ़िक्रमंद हैं कि जब एंगेला मर्केल चांसलर नहीं रहेंगीं तब संकट की स्थितियों के दौरान देश का प्रबंधन कौशल कसौटी पर आ सकता है.

जर्मनी की अर्थव्यवस्था का दसवां हिस्सा कार निर्माण और सप्लाई पर टिका है. जर्मनी में क़रीब दस लाख लोग सीधे या किसी न किसी तौर पर ऑटो सेक्टर का हिस्सा हैं. इस सेक्टर पर जर्मनी का बहुत कुछ दांव पर लगा होता है. 

लेकिन अब इस क्षेत्र में बदलाव की जरूरत महसूस होने लगी है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ बासेल के प्रोफ़ेसर ऑलिवर नैचवे की राय में जर्मनी के इंजन को पूरी तरह से मरम्मत किए जाने की ज़रूरत है. 

वो कहते हैं, "आने वाले सालों में जर्मनी की अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक होगा निर्माण के ऐसे मॉडल को अपनाना जो ज़्यादा टिकाऊ और पर्यावरण के ज़्यादा माकूल हो. जर्मनी की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक निर्माण, ख़ासकर कार के निर्माण पर टिकी है. ग्लोबल वार्मिंग पर इसका काफ़ी असर होता है. ये एक ऐसा क्षेत्र है जहां नई खोज होती रहती है. इसमें श्रमिकों की भी माँग रहती है. ये क्षेत्र राजनीति को भी काफ़ी प्रभावित करता है." 

प्रोफ़ेसर ऑलिवर को जर्मनी के तकनीकी कौशल पर भरोसा है. लेकिन उन्हें एक फ़िक्र भी है. उनकी राय है कि जर्मन कारों की माँग दो बातों पर टिकी है, जो शायद भविष्य में उतनी मज़बूत न रहें. इनमें से पहली है चीन में मध्यवर्ग के लोगों की लगातार बढ़ती संख्या और दूसरी है पूर्वी यूरोप में उपलब्ध सस्ता श्रम. वो कहते हैं कि बीते दस साल में ये दो वजह जर्मनी की कामयाबी और अर्थव्यवस्था बढ़ने के अहम कारण थे. लेकिन अब स्थिति बदल रही है.

कैसे दूर होगी असमानता?
प्रोफ़ेसर ऑलिवर कहते हैं, "जो समस्या सबसे बड़ी है, वो है जर्मनी में पिछले बीस साल के दौरान बनी असमानता है. जर्मनी की कुल श्रमशक्ति में से एक चौथाई कम वेतन पर काम करती है. जर्मनी में जिन क्षेत्रों में कम मज़दूरी मिलती है, वो मज़दूरी के लिहाज़ से यूरोप में सबसे निचले पायदान पर हैं." 

इसे देखते हुए एंगेला मर्केल के उत्तराधिकारी के लिए सामाजिक एकजुटता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती हो सकती है.  

प्रोफ़ेसर ऑलिवर कहते हैं, "मिडिल क्लास का एक तबक़ा अपने भविष्य को लेकर चिंतित है. उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है. भविष्य को लेकर इस फ़िक्र ने जर्मनी में ध्रुवीकरण की शुरुआत करा दी है. इसका अनुभव दुनिया के दूसरे देश भी कर चुके हैं. मसलन ब्रिटेन, अमरीका, फ्रांस या फिर इटली. अगर हालात बेहतरी की दिशा में नहीं गए तो जर्मनी में पहले से कहीं ज़्यादा अस्थिरता देखने को मिल सकती है." 

ज़मीनी सच ये है कि जर्मनी यूरोपीय यूनियन का सबसे ज़्यादा आबादी वाला और सबसे अमीर देश है. ऐसे में जब यूरोपीय यूनियन को दिशा दिखाने का मौक़ा आता है, तब जर्मनी ही आगे बढ़ने की राह तय करता है लेकिन इसमें भी कुछ पेंच हैं.

'द पैराडॉक्स ऑफ़ जर्मन पावर' नाम की किताब के लेखक और यूरोप की राजनीति पर नज़र रखने वाले विश्लेषक हंस कंडनानी कहते हैं, "अगर सरल शब्दों में कहें तो जर्मनी इतना शक्तिशाली है कि वो नियम तय कर सके. लेकिन उसके पास इतनी शक्ति नहीं है कि दबदबे के ज़रिए नियम लागू करा सके. दूसरे देशों के पास इतनी ताक़त है कि वो नियम तोड़ सकें. लेकिन उनके पास इतनी शक्ति नहीं है कि नियमों को बदल सकें. यूरो संकट और शरणार्थी संकट दोनों के ही समय यही देखने को मिला था. यूरोप में अब भी यही स्थिति है." 

हंस की राय है कि जर्मनी को अक्सर ख़ुशफ़हमी में ये मानकर चलता है कि उनके और यूरोप के हित मोटे तौर पर एक से हैं.

हंस कहते हैं कि यूरोज़ोन संकट के वक़्त जर्मनी अपने हित दूसरे देशों पर थोपने की कोशिश कर रहा था. तब एंगेला मर्केल ने कमज़ोर देशों को लेकर कड़ा रुख़ अपनाया था. इसका मक़सद जर्मनी के हितों की रक्षा करना था लेकिन उन्होंने तस्वीर ऐसी पेश की मानो उनके क़दम यूरोप के हित में हों.

हंस कंडनानी कहते हैं, "यूरो संकट की शुरुआत से ही एंगेला मर्केल ने जर्मनी की रणनीति तय कर दी थी. वो यूरोप को जर्मनी की छवि में ढालना चाहती थीं. ख़ासकर आर्थिक मामलों में. जर्मनी में तमाम लोगों की राय यही थी कि संकट को टालने का सही तरीक़ा यही है. ये तमाम तरह से दिक्क़त की बात है लेकिन जर्मनी की नीति ऐसी ही रही है."

बदलेंगे रिश्ते?
ये भी माना जा रहा है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन जर्मनी के साथ रिश्ते सुधारना चाहेंगे. लेकिन इसकी राह में दो बड़ी बाधाएं हैं. ये हैं आर्थिक क्षेत्र और सुरक्षा का मामला.

हंस कंडनानी कहते हैं, "ये देखना होगा कि बाइडन प्रशासन रक्षा पर ख़र्च बढ़ाने और अपने आर्थिक ढांचे में सुधार के लिए जर्मनी पर किस हद तक दबाव बना पाता है." 

जर्मनी की अर्थव्यवस्था में चीन की भूमिका अहम है. हंस का कहना है कि ये एक ऐसी राजनीतिक साझेदारी है जिसे बनाए रखना एंगेला मर्केल के उत्तराधिकारी एक मुश्किल चुनौती होगी.

हंस कंडनानी कहते हैं, "मर्केल जब से चांसलर बनीं, उन्होंने लगभग हर साल चीन का दौरा किया. आर्थिक साझेदारी के अलावा दोनों देशों की साझा कैबिनेट मीटिंग भी होती रही हैं. लेकिन अब ये स्थिति जर्मनी के लिए मुश्किल बन गई है. ख़ासकर अमेरिका और जर्मनी के रिश्तों के लिहाज़ से यही लगता है."

कौन होगा अगला चांसलर?
बड़ा सवाल ये भी है कि एंगेला मर्केल की जगह कौन लेगा ?

एंगेला मर्केल ने सीडीयू की कमान साल 2018 में छोड़ दी थी. उनकी जगह आनेग्रेट क्राम्प-कारेनबावर को नेता चुना गया था. जर्मनी के लोग उन्हें मिनी मर्केल कहते रहे हैं. लेकिन वक़्त के साथ ज़ाहिर होता गया कि उनमें एंगेला मर्केल जैसा दबदबा नहीं हैं. उन्होंने बीते साल फ़रवरी में इस्तीफ़ा दे दिया.

जर्मनी की राजनीति पर क़रीबी नज़र रखने वाली पत्रकार मेलानी अमन कहती हैं," ये सीडीयू के लिए एक दुखद अध्याय था. जब ये महिला आईं थीं तो उनकी काफ़ी तारीफ़ होती थी, उन्हें लेकर काफ़ी उम्मीदें लगाई गई थीं. तब माना गया था कि वो यक़ीनन चांसलर बनेंगी."

और अब जब एंगेला मर्केल की विदाई भी क़रीब है तब जर्मनी के कई लोग चाहते हैं कि वो अक्टूबर के बाद भी पद पर बनी रहें. मर्केल इससे इनकार कर चुकी हैं और इस बीच सीडीयू ने आर्मिन लाशेट को नया नेता चुना है. लाशेट नॉर्थ राइन वेस्टफ़ेलिया राज्य के मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने पार्टी के सम्मेलन में एंगेला मर्केल के पुरानी प्रतिद्वंद्वी फ्रेडरिक मैर्त्स को मात दी. रेस में शामिल तीसरे उम्मीदवार नॉर्बर्ट रोएटगेन पहले ही दौर में बाहर हो गए. आर्मिन लाशेट के मुस्लिम समूहों के साथ अच्छे संबंध हैं.

मेलानी अमन कहती हैं, "एक वक़्त ऐसा भी था जब सीडीयू के अंदर ही उनकी लोकप्रियता काफ़ी घट गई थी. इसकी वजह ये थी कि वो मुसलमान सदस्यों के साथ काफ़ी घुलते मिलते थे. तब उन्हें तुर्क आर्मिन कहा जाने लगा था. लेकिन अब उन्होंने ख़ुद को काफ़ी मज़बूत बना लिया है."

मेलानी अमन की राय है कि अब नए नेता के अगला चांसलर बनने की संभावना सबसे ज़्यादा रहेगी.

वो कहती हैं, "जर्मनी में फ़िलहाल सोशल डेमोक्रेट्स संघर्ष कर रहे हैं. चुनाव में उनका प्रदर्शन ख़राब रहा है. मर्केल जब से चांसलर बनी हैं, तब से हर चुनाव में उनका आधार घटा है. अगर वो चांसलर पद के लिए उम्मीदवार भी खड़ा करेंगे तो लोगों को हैरानी होगी."

कोरोना महामारी जब से शुरू हुई है तब से दक्षिणपंथी पार्टी एएफ़डी के समर्थन में भी कमी आई है. इस दौरान ग्रीन पार्टी ने प्रगति की है.

मेलानी अमन के मुताबिक़, "एक वक़्त चुनाव में उनका प्रदर्शन इतना उम्दा था कि उन्हें सीडीयू से मज़बूत माना जा रहा था. तब ये बात की जा रही थी कि एक दिन जर्मनी का चांसलर ग्रीन पार्टी से होगा. देखना दिलचस्प होगा कि क्या वो इस कामयाबी को जारी रख पाते हैं."

हालांकि, फ़िलहाल तय ये है कि नौ महीने बाद जर्मनी के लोग नए चांसलर का चुनाव करेंगे. लेकिन अभी ये तय नहीं है कि लाशेट ही अगले चांसलर बनें. उन्हें स्वास्थ्य मंत्री येन्स श्पान और सीएसयू के नेता मार्कुस ज़ूडर से चुनौती मिल सकती है.

चांसलर चाहे जो बने लेकिन ये सवाल सामने रहेगा कि क्या जर्मनी एंगेला मर्केल के बिना ख़ुद को संभाल सकेगा. फ़िलहाल दुनिया के तमाम देशों की तरह जर्मनी भी कोरोना महामारी से आर्थिक मोर्चे पर मिले झटके से जूझ रहा है. चुनौतियां यूरोप के दूसरे देशों के साझा दिक्क़तों से निपटने की भी होंगी.

जर्मनी के अगले चांसलर को न सिर्फ़ समझबूझ दिखानी होगी बल्कि एक ऐसा व्यापक नज़रिया भी पेश करना होगा, जिसके न होने को लेकर एंगेला मर्केल की भी आलोचना होती रही थी. (bbc.com)

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