संपादकीय
बाम्बे हाईकोर्ट का एक बहुत ही गलत फैसला आज सामने आया है जिसमें जिला अदालत द्वारा एक 12 बरस की नाबालिग के यौन शोषण के आरोपी की सजा को हाईकोर्ट ने पलट दिया है। हाईकोर्ट का तर्क है कि किसी लडक़ी के सीने को जबर्दस्ती छू लेने को ही यौन उत्पीडऩ नहीं कहा जा सकता। बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। जिला अदालत ने इस आदमी को लालच देकर 12 बरस की लडक़ी को अपने घर बुलाने, और जबरन उसके सीने को छूने और उसके कपड़े उतारने की कोशिश का गुनहगार माना था और उसे धारा 354 के तहत एक साल की, और पॉस्को एक्ट के तहत तीन साल की कैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के बाद तीन साल की सजा बेअसर हो गई है।
हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।
अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें।
सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)